Friday 19 December 2014

साधु, तुझको क्या हुआ?

भाग - ४
कबीरदास जी की एक कथा है। वे एक दिन बैठकर राम-राम भजन कर रहे थे, तभी एक आदमी भागता हुआ आया और बोला, 'मुझे बचाओ, कोई मुझे हथियार लेकर मारने के लिए दौड़ा रहा है। बोल रहा है कि मार दूंगा, आप मुझे बचाओ।
पास ही रुई का ढेर था, कबीरदास जी ने कहा, 'जाओ, उसमें छिप जाओ।
वह व्यक्ति बहुत डरा हुआ था, बिना विचार किये वह तत्काल जाकर रुई के ढेर में छिप गया। इसके कुछ ही पल बाद तलवार लिए एक आदमी आया, उसने पूछा, 'यहां एक आदमी दौड़ता हुआ आया था क्या?
कबीरदास जी ने कहा, 'हां, इसी ढेर में छिपा हुआ है।
हमला करने आए व्यक्ति ने कहा, 'मुझे मूर्ख बना रहे हो, जिसे मौत का भय होगा, वह रुई के ढेर में छिपेगा क्या? उसमें तो मारना बहुत आसान है, रुई में तो कोई आग लगा देगा, तो छिपा बैठा आदमी मर जाएगा। तलवार से बचना है, तो व्यक्ति कहीं और छिपेगा। वह सोचेगा कि किसी भी तरह से सुरक्षा हो जाए, यह संभव नहीं है कि कोई रुई में छिपे।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैं कह रहा हूं कि वह यहीं छिपा है।
हमलावर व्यक्ति को विश्वास नहीं हुआ, वह बुरा-भला कहते आगे बढ़ गया। उसके जाने के कुछ देर बाद रुई में छिपा व्यक्ति बाहर निकला। उसने कबीरदास जी से कहा, 'आप बाबा बड़े ढोंगी हो, आपने मुझे छिपाया और वह आया, तो आपने उसे भी बता दिया कि इसी में छिपा है, आप तो ढोंगी हैं, आप तो जान के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, मैं तो भाग्य से बच गया।
कबीरदास जी ने कहा, 'मैंने तुम्हें रुई से नहीं ढका था, मैंने तुम्हें सत्य से ढका था, सत्य पर कोई तलवार काम नहीं करती। तुम छिपे थे, मैं संत हूं, मैंने ही छिपाया था, मैंने ही कहा कि आप मार दीजिए, लेकिन सत्य इतना मजबूत है कि उस हमलावर को विश्वास ही नहीं हुआ। वह तो उसे रुई समझ रहा था और मैं सत्य समझ रहा था।
तो संत लोग अपने प्रत्येक व्यवहार को सत्यतापूर्वक चलाते हैं। संयम, वैराग्य की इच्छा से अपना पूरा जीवन चलाते हैं और समाज में ऐसे श्रेष्ठ मूल्यों का प्रचार करते हैं, जिन मूल्यों के कारण मनुष्य मनुष्यता वाला बन जाता है, जिसके कारण मनुष्य देवता तक बन जाता है, चंद्रमा बन जाता है, ग्रह-नक्षत्र बन जाता है। 
दुनिया के दूसरे देशों में भी संत हुए, लेकिन जितनी समृद्ध परंपरा संतों की भारत में रही है, वैसी कहीं नहीं रही। कल भी नहीं थी और आज भी नहीं है और कल भी नहीं रहेगी। यहां संतत्व की प्राप्ति का बड़ा राजमार्ग था, इस राजमार्ग पर चलकर असंख्य लोग संतत्व को प्राप्त करते थे। इस मार्ग पर चलना है, यह ईश्वरीय मार्ग है, यह खाने-कमाने का मार्ग नहीं है। कहीं भी रहकर संतत्व को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी कमरे में किसी भी क्षेत्र में, भाषा, जाति, समाज, आयु में रहकर संत बना जा सकता है।
रोम-रोम से जैसे ईश्वर का जीवन होता है, वैसे ही संत का जीवन होना चाहिए, कहीं कोई बुराई नहीं, वासना नहीं, कहीं कोई राग, विद्वेष नहीं। कोई दुर्गण उनमें नहीं है, ये लोग घूम-घूमकर संस्कारों का प्रचार करते हैं, असंख्य लोगों को मंगलमय जीवन देते हैं, पूर्ण विश्राम का जीवन देते हैं। अद्भुत जीवन है उनका। ऐसी ही देश में एक लंबी परंपरा चली है, संतत्व जो है, वह सतयुग में भी वैसा ही था, त्रेता में भी और द्वापर में भी ऐसा ही और कलयुग में भी ऐसा ही है। क्रमशः 

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