Friday 19 December 2014

साधु, तुझको क्या हुआ?

समापन भाग
स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी, जो गृहस्थ के रूप में रहते थे, किन्तु तब भी उन्होंने ऊंचे संतत्व को प्राप्त किया। आज संसार में संतत्व को महत्वपूर्ण रूप में देखना चाहिए। जैसे सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारे हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर जो सबसे बड़े सूर्य हैं, लेकिन उनकी भावनाओं को लोगों के बीच पहुंचाने का काम संतों ने हमेशा ही किया है। मैं किसी संत विशेष की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु इतना अवश्य कहूंगा कि संतत्व संसार से कभी खत्म नहीं होगा। 
मैं तो मोहम्मद साहब और ईसा मसीह को भी मान देता हूं। अजमेर वाले ख्वाजा गरीबनवाज भी सूफी संत थे। सूफी संतों में अनेक ऐसे हुए हैं, जो अहं ब्रह्मास्मि कहते थे, एक ऐसे सूफी संत की हत्या कर दी गई। जब उन्हें जलाकर राख समुद्र में फेंकी गई, तो उसमें से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आई, जिसने उस जल को पिया उसके पेट से भी अहं ब्रह्मास्मि की आवाज आने लगी। उस सूफी संत ने कितना तप किया होगा, सोचकर देखिए। जिसने उन्हें मरवाया था, उसने भी जब जल पिया, तो उसके पेट से भी आवाज आने लगी अहं ब्रह्मास्मि। कितना संयम किया होगा, कितना तप किया होगा, तभी तो ऐसी शक्ति अर्जित हुई।
हम लोगों की यह भावना है कि संसार के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हुए हैं। खान-पान, चिंतन बदला है, किन्तु ऐसे परिवेश में भी संतत्व कहीं भी निखर सकता है, संतत्व लाखों-लाखों को प्रेरित करता है। लोगों को संयम के लिए प्रेरित करना, अच्छाई की ओर प्रेरित करना, दुराचार को रोकने का प्रयास करना, समाज को ईश्वर की ऊंचाई की ओर ले जाना। यहां तो तोते को भी राम राम रटवाने की परंपरा रही है। पशु-पक्षी सारा वातावरण ईश्वरीय हो। रामायण, योगदर्शन, पुराणों में लिखा है कि व्यक्ति पूर्णत: अहिंसक हो जाए, तो साक्षात विरोधी जो जीव हैं, उनमें भी अहिंसा की भावना आ जाती है। यदि आप सच्चे अहिंसक हो जाएं, तो आपके पास सांप और नेवले भी साथ-साथ आ जाएंगे, वे भी अपना परस्पर विरोध छोड़ देंगे। परस्पर शाश्वत विरोध वाले बाघ और हिरण एक साथ ऋषियों के आश्रम में रहते थे, कोई किसी को परेशान नहीं करता था। प्रेम का वातावरण संत बनाते हैं। दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं, प्रशासनिक, वैज्ञानिक  व्यवस्थाओं में उतना दम नहीं है, जितना संतों की व्यवस्था में दम है। अत: ईश्वरीय समाज का, ईश्वरीय भावना के अनुरूप समाज का निर्माण होना चाहिए।
आज नेताओं को देखिए। उनमें आवश्यक गुण नहीं हैं। संसदीय प्रणाली जैसी होनी चाहिए, लोकतंत्र के लिए, वैसी नहीं है। यदि नेताओं में लोकतांत्रिक भाव ही ठीक से नहीं है, तो ईश्वरीय भाव कहां से आएगा? ईश्वरीय संसार को ईश्वरीय शक्ति के माध्यम से ही ईश्वरीय वातावरण देने का एकमात्र जो कारण है, उसी का नाम संतत्व है। संतत्व कभी नष्ट नहीं होता। अभी अनेक संत संसार की श्रेष्ठ सेवा कर रहे हैं। देश और दुनिया में ऐसे असंख्य लोग हैं, जो ईश्वरीय जीवन को जी रहे हैं।
जय श्रीराम

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