Thursday 27 December 2018

रावण कैसे भटक गया

भाग - 8
कल ही एक व्यक्ति बतला रहे थे कि एक आदमी को हमने जैसे-तैसे करके बड़ी गद्दी दिलवा दी। गद्दी दिलाने के लिए जाल फरेब किया, तो वह गद्दी कितने दिन चलेगी और वह महंत कितने दिन चलेगा, वस्तुत: साधु होगा या नहीं होगा। कैसे बड़ा उदार होगा, कैसे उसमें तमाम विशिष्टताएं होंगी, कैसे उसका जीवन चमचमाएगा, हो ही नहीं सकता। गलत पद्धति हो गई, उद्देश्य गलत, शिक्षा गलत, उसका निर्माण गलत। 
आज कोई कह ही नहीं रहा कि कहां से शुरुआत होगी, कहां से शुरू करें। अभ्यास की आवश्यकता है। शास्त्रों ने इस बात को बार-बार दोहराया है। जैसे अपनी दूकान नहीं बंद कर रहे हो, जैसे अपने दूसरे काम बंद नहीं कर रहे हो, वैसे ही आप अभ्यास बंद मत करो। जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे अभ्यास से बढ़ाइए। देखिए आपकी वैराग्य की स्थिति क्या है, आपके विश्वास की स्थिति क्या है, विश्वास के अभाव में भी लोगों का जीवन बिगड़ रहा है। शास्त्रीय लोगों में विश्वास नहीं है। जाति में परिवार में नहीं और परलोक में विश्वास नहीं है। इसमें श्रद्धावान जरूर होना चाहिए। श्रद्धावान ऐसा नहीं कि अंध भक्त हो जाएं। श्रद्धा का अर्थ है - शास्त्रों में पूर्ण विश्वास हो और उन शास्त्रों के आधार पर जिन्होंने अपने जीवन को परिपूर्ण कर लिया है, उन पर विश्वास हो - यही श्रद्धा है। आस्तिक बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं।
यह भी होता है कि लोग पुरानी चीजों, प्राचीन ज्ञान से दूर भागने लगते हैं। मुंह से खाने की परंपरा या तरीका पुराना है, तो क्या नाक से खाने लगोगे? सडक़ पर ही चलना है या सडक़ पर नहीं चलकर कहीं और चलने लगोगे? हवाई जहाज उड़ता है, उसके उडऩे का तंत्र व्यवस्थित है, यह रोज नहीं बदलता है। इसलिए हम केवल कपड़ा बदलते हैं, केवल कार बदलकर, सोफा बदलकर, मित्र बदलकर, कारोबार बदलकर, आभूषण बदलकर जीवन को परमपथ पर ले जाना चाहेंगे, तो यह बिल्कुल ढकोसला हो जाएगा। जो बना है परंपरा से, जो बने हैं संयम-नियम, उनके आधार पर यदि हम अपने जीवन को ले चलेंगे, तो हमारा जीवन धन्य होगा। इसलिए व्यवहार को दुरुस्त करने की आवश्यकता है। तमाम लोग ऐसे हैं, जो बहुत बड़ी-बड़ी बात बोलते हैं, किन्तु उनका व्यवहार शून्य होता है। 
हमने छोटी आयु में एक कहानी पढ़ी थी - आज भी वह कहानी पढ़ाई जाती है। किसी तोते को उसके पालक ने सिखाया था कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, उसमें मत फंसना। कंठस्थ हो गया। एक बार शिकारी आया, जाल बिछाया और दाना डाला, पास ही बैठ गया कि देखें, कौन फंसता है, तो वही तोता आया। तोते ने तो केवल याद किया था मालिक के शब्दों को, बार-बार सुनकर अभ्यास करके, किन्तु उसे यह नहीं पता था कि शिकारी कौन होगा, दान क्या होगा, कैसे आएगा, कैसे जाल बिछाएगा, फंसने का क्या अर्थ है, कैसे हम फंसने से बचेंगे, यह कुछ नहीं पता था। ठीक इसी तरह से तमाम अच्छी बात करने वाले लोग हैं, किन्तु पहले बतलाया जा चुका है, ज्ञान को परिपक्व बनाना पड़ता है। ज्ञान जब परिपक्व होता है, तभी लाभ देता है। 
ऐसे ही तमाम लोग हैं - रामायण या भागवत पर बोल रहे हैं। लोकतंत्र पर बोल रहे हैं, तमाम विधाओं पर बोल रहे हैं, स्वच्छता पर बोल रहे हैं, कुरीतियों को दूर करना है, लेकिन ये तोते के जैसा बोल रहे हैं। तोता भी बोलता था, किन्तु आकर जाल में फंस गया। शिकारी ने फंसा लिया। तो हम अपने ज्ञान को परिपक्व ज्ञान बनाएं, तब हमारा व्यवहार शुद्ध होगा, इसलिए हमारे यहां कहा जाता है कि केवल अधकचरा ज्ञान विष के समान होता है। ज्ञान पचना चाहिए, चरित्र में उतरना चाहिए। दुुनिया में जितने दुराचारी हुए, उन्हें भी पता था कि झूठ नहीं बोलना है, चोरी नहीं करना है, गलत आहार नहीं लेना है, गलत स्त्री को साथ नहीं लेना है, दूसरे की स्त्री को नहीं देखना है, कहीं से भी लांछित नहीं होना है, छल-कपट नहीं करना है, किन्तु वे नहीं कर सके। क्रमश:

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