Tuesday 25 December 2018

रावण कैसे भटक गया

भाग - ३
क्या करते हैं आज के लोग, आनंद लेते हैं, विकृत्त संसाधन को अपनाते हैं। कोई जरूरत नहीं कि रोज पत्नी बदलें, किसी को भी पत्नी बनने के लिए बाध्य करें। रावण के अभिभावकों को रोकना चाहिए था कि अभी तुम्हारा ज्ञान पका नहीं है, उसे परिपक्व करो। यह ठीक नहीं है कि संसार के सभी साधन, सभी सुंदर स्त्रियां प्राप्त हों, इन्द्रियों की परमलोलुपता प्राप्त हो। कोई बताने वाला नहीं था, इसलिए पूरा जीवन ही भोग को समर्पित हो गया। यही सब आज संसार में हो रहा है। केवल हमारा सम्मान हो, सब साधन मिले, सब धन मिले, संपूर्ण समाज हमारे आगे-पीछे रहे, तो शास्त्र का अध्ययन नहीं होने से और पिछले जन्म के पापों के कारण श्रेष्ठजन के कहने के बाद भी यह बात ध्यान में नहीं आती है। यह भी ज्ञान की बात है। आदमी जब अत्यधिक पापी होता है, तो वह अपने बड़ों की बात नहीं सुनता, पिता की बात, माता की बात, बड़े भाइयों की बात नहीं सुनता और वैसे ही उसका जीवन पूरा हो जाता है। इसलिए पिछले पापों के कारण और प्रशिक्षण की कमी के कारण आदमी गलत मार्ग पर चल पड़ा। जाना था दिल्ली, मुंबई और मार्ग ऐसा पकड़ लिया कि लाहौर पहुंच जाए। जहां नहीं जाना है, वहां पहुंच जाए। यह बहुत बड़ी हानि होगी, बहुत बड़ी विडंबना होगी। 

वैसे तो पूरा जीवन ही सीखने का जीवन है। कई ऐसे जीवन के लोग हैं, तो शिक्षा लेते हैं, तभी पढ़ते हैं। जब डिग्री मिली, तो पढऩा भी बंद हो जाता है। जीवन में प्रेरणा और चमत्कार की प्राप्ति बंद हो जाती है। आदमी यदि पढ़ रहा है, तो भी और यदि नहीं पढ़ रहा है, तो भी उसे निरंतर अध्ययन से जुड़ा रहना चाहिए और वह अध्ययन जो जीवन की सभी समस्याओं का समाधान देता है। अनेक समस्याएं हैं, जिनका समाधान शास्त्र ही देंगे। शोक का निवारण तो ज्ञान से ही होता है। 
कहा गया है कि आत्मा को जानने वाला शोक सागर को पार कर जाता है। प्रशिक्षण बंद नहीं होना चाहिए। जैसा हमारा सांस लेना बंद नहीं होता, जैसे हमारा भोजन करना बंद नहीं होता, पानी पीना बंद नहीं होता, ये सब स्वाभाविक व्यवहार कभी बंद नहीं होते। ठीक उसी तरह से हम स्वाध्याय करें, उसके बिना हम नहीं रहें, स्वाध्याय ही आदमी को परिपक्वता देता है। निरंतर अध्ययन, निरंतर बड़ों के संसर्ग में रहकर ज्ञान को बढ़ाना, अपनी प्रकाशित अवस्था को बनाना। ये अभी बड़े लोग भी नहीं कर पा रहे हैं। बहुत कम लोग हैं, जिनको पढऩे का शौक है, अखबार पढ़ लिया, पत्रिका पढ़ लिया, ऐसे ही सस्ता साहित्य, गंदा साहित्य, हल्का साहित्य, जहां कहीं भी जीवन को कोई प्रेरणा नहीं मिलती, सही मार्ग नहीं प्राप्त होता। इसकी बड़ी कठिनाई है, इसीलिए समाज को सही जीवन प्राप्त नहीं होता है। प्रतिदिन बैठकर घंटा दो घंटा अपने लोगों के साथ या अकेले में उन साहित्य के ग्रंथों को उन विषयों को पढऩा चाहिए, जिन्हें अमरत्व प्राप्त है, जिन्हें मानवता के लिए वरदान प्राप्त है। एटम बम भी बना, बड़ा अनुसंधान हुआ, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने जीवन लगाकर इस अध्ययन को प्रकट किया, अनेक तरह के हथियार बने हैं, किन्तु उनके द्वारा दिया जीवन कभी दैव जीवन नहीं बन सकता। 
मैं बहुधा लोगों को सुनाता हूं। राममनोहर लोहिया जी, समाजवादी चिंतक थे, वे आइंस्टीन से मिलने गए, तो पूछा, जो अनुसंधान आपने किया, उससे संतुष्ट हैं क्या, तो आइंस्टीन की आंखें भर गईं, उन्होंने कहा, मुझे मालूम होता कि मेरे अनुसंधान से जो प्रयोग होगा, उससे लाखों लोगों की बलि हो जाएगी, प्राण पखेरू उड़ जाएंगे, तो मैं वैज्ञानिक बनना पसंद नहीं करता। ऐसे ही कपड़े का एक टुकड़ा पहनकर हाथ में छड़ी लेकर जीवनयापन कर लेता। मैं एक मनुष्य नहीं बना सकता, एक वृक्ष को विकसित नहीं कर सकता, किन्तु वहां कितने लोग राख हो गए। 
अभिप्राय यह कि आदमी को यह चिंतन करना चाहिए कि ये जो जीवन हम जी रहे हैं, वह कहां जा रहा है या तो पढ़ें शास्त्रों को, सुने अच्छे लोगों को, सही मार्ग वालों को सुनें। ऐसा नहीं कि जब गाड़ी स्टार्ट हुई, तो सही चलावें और बाद में छोड़ दें। हवाई जहाज में टकराहट वाली कोई बात नहीं है, किन्तु वहां भी सदा सावधानी की आवश्यकता है। ऐसे ही हम घर में भी चलते हैं, हमारी भूमि है, समर्पित भूमि है, वहां भी कदम-कदम पर सावधानी आवश्यक है। मां के गर्भ में आने के बाद जन्म प्राप्त करने के बाद शरीर और जीवन की प्राप्ति के बाद जो परम उद्देश्य है प्रशिक्षण, प्रयोग, सुनना, बोलना, जैसे हमें तत्परता की आवश्यकता है, वैसे ही जीवन भर इनकी आवश्यकता है। कभी भी आदमी राक्षसी व्यवहार को प्राप्त न करे। 
कई लोगों को देखकर लगता है कि देवपुरुष हैं, किन्तु उनके ज्ञान की दुर्बलता ने, अभ्यास की दुर्बलता ने, गलत आदमी बना दिया। वेदों में लिखा है कि स्वाध्याय और प्रवचन से कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। 
स्वाध्याय कहते हैं कल्याणकारी शास्त्रों को पढऩे को। मोक्ष शास्त्र पढ़ें, अध्यात्म पढ़ें और पालन करें, मनन करें, उसके अर्थ को अपने मन से जोड़ें। निरंतरता की आवश्यकता है, भोजन निरंतर, कपड़ा निरंतर, तो श्रद्धा-प्रवचन निरंतर क्यों नहीं? जैसे हम निरंतर धन कमाना चाहते हैं, भोग कमाना चाहते हैं, ठीक उसी तरह से हमें निरंतर स्वाध्याय और प्रवचन की आवश्यकता है। 
यह क्रम चलता रहना चाहिए। लोग जवानी में भी बिगड़ रहे हैं और बुढापे में भी बिगड़ रहे हैं। छोटा बच्चा जब होता है, तो कल्याणकारी भावों का बीजारोपण करें, किन्तु सयाना हो जाने के बाद इन भावों की मात्रा या अंग्रेजी में कहते हैं डोज बढ़ जाता है। अभी किसी को कहा जाए कि तुम अपने जीवन को जहां से शुरू किए थे, वहां से हट गए। मंदिर जाते थे, अब नहीं जाते। लाल कपड़ा पहनते थे, अब नहीं पहनते, हट गए। प्रेरणा, विचार, भाव में मंदी आ गई। विचार प्रवाह को आगे बढ़ाते हुए यह ध्यान में हमें रखना होगा कि जो प्रारंभिक काल में शिक्षा दी गई थी, जीवन की परम सार्थकता के लिए, वह बंद नहीं होनी है। बड़े होने पर भी उस शिक्षा को नवीन करते रहना है, अपने साथ जोड़े रखना है। भोजन बंद नहीं, स्नान बंद नहीं, तो शिक्षा कैसे बंद हो जाए? श्रेष्ठ कर्म कभी बंद नहीं होने चाहिए। बंद हो जाएंगे, तो आदमी राक्षस ही हो जाएगा। आज इसीलिए समाज बिगड़ रहा है, क्योंकि लोग पढ़ते नहीं हैं, पढ़ते भी हैं, तो वेदों को नहीं पढ़ते। क्रमश:

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