Tuesday 25 December 2018

रावण कैसे भटक गया

भाग - ५
राम जी से भी कितने लोग प्रभावित हैं, कितने लोग उन्हें अपना मानते हैं, किन्तु राम जी ऐसा नहीं करते। उन्हें पता है कि पत्नी माने एकमात्र सीता और संसार की दूसरी स्त्रियां हमारी मां हैं। यदि हम सभी स्त्रियों को पत्नी बनाने लगेंगे, तो महारावण हो जाएंगे। 
हमारे प्रारब्ध से जो बनी है, वो मिलेगी। यदि हमारे प्रारब्ध अच्छे नहीं हैं, पाप ज्यादा है, तो दुख भी मिलेगा। मकान सुख भी देता है और दुख भी देता है। परिवार के लोग सुख भी देते हैं और दुख भी देते हैं। भगवान की दया से जो पदार्थ हमें मिले, वह सही रीति से मिले और उसका उद्देश्य सही हो। हमें पत्नी मिलती है, हम दोनों मिलकर धर्म का संपादन करेंगे। केवल संतान और भोजन नहीं लें, केवल इधर-उधर घुमाते रहें, इससे नहीं चलेगा। जैसे सभी नदियों का एक ही परम गंतव्य है, ठीक उसी तरह से सभी मनुष्यों का एक ही परम गंतव्य है, परम उद्देश्य है कि हम ईश्वर जैसा जीवन प्राप्त करें। जब हमारा ईश्वर जैसा जीवन हो गया, तो परिवार, पड़ोस, संपूर्ण संसार का मानवीय जीवन, संसार का सर्वश्रेष्ठ हमें प्राप्त होगा। विभीषण को प्राप्त हो गया। वह भी अपने राक्षस भाइयों की उसी पंक्ति में था, किन्तु उसने भगवान की भक्ति मांगा, जीवन केवल भोग के लिए नहीं हो। मेरा जीवन बाहर भी और भीतर भी ईश्वर की सेवा के लिए हो। राष्ट्र की सेवा करूं, मानवता की सेवा करूं, लांछित कर्म नहीं करूं। ऐसा ही हुआ, विभीषण लंका में रहकर भी पूर्ण रूप से मनुष्य जीवन को जी रहे हैं। वे उन कामों में नहीं हैं, जिनमें रावण और कुंभकर्ण लगे हैं। उनका लक्ष्य है कि हमें राम जी की सेवा करनी है और राम जी के माध्यम से संपूर्ण मानवता की सेवा करनी है, इसीलिए बिना किसी बंधन के, बिना किसी माध्यम के वे भगवान की सेवा में आ जाते हैं। उनके अंदर है कि मैं भगवान का हूं। 
वस्तुत: संसार के सभी जीव भगवान की सेवा के लिए ही हैं। एक भी ऐसी वस्तु नहीं, एक भी ऐसा जीव नहीं, जो भगवान की सेवा में नहीं है। संपूर्ण सृष्टि भगवान की सेवा में है। यही सिद्धांत है। हनुमान जी, विभीषण जी तो राम जी की सेवा में आ गए। गलत वातावरण के अनुसार जो व्यवहार था उसे छोड़ा। और भगवान की दया से फिर कभी डिगे नहीं। 

दर्शनशास्त्र में संभव प्रमाण पढ़ाया जाता है जैसे कि आपके पास सौ रुपए हैं, माता जी ने कहा कि एक रुपया देना मुझे, तो आपने कहा, वो तो नहीं है मेरे पास, जब तुम्हारे पास सौ रुपये हैं, तो फिर एक रुपया उसी में समाया है, एक भी दो भी तीन भी एक से लेकर ९९ तक उसमें समाया है। वैसे ही भगवान की भक्ति सेवा में जो लग जाएगा, उसकी जो दूसरी सेवाएं हैं, उसके दूसरे जो उद्देश्य हैं, उसके लिए अलग से कुछ नहीं करना पड़ेगा। इसे संभव प्रमाण कहते हैं। सौ रुपये के नोट में जैसे ९९ रुपए शामिल हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर के लिए समर्पित हमारा जीवन हमारे संपूर्ण जीवन, संपूर्ण जिम्मेदारियों को किनारे लगाएगा। ऐसा नहीं है कि आप भगवान की सेवा में आ गए, तो आपके बच्चों का क्या होगा? कहां जाएंगे बच्चे? 
पूर्ण समर्पित जीवन का यही भाव सतयुग-द्वापर का निर्माण करता है। अभी जो भक्त, साधु हैं, लगता है समाज से कटे हुए हैं। संत महात्मा लोग समाज की दृष्टि से लगता है कि अकर्मण्य हैं, पलयानवादी हैं, किन्तु उनका जीवन दूसरों को जीवन देता है। यह ऋषियों का क्रम है, राम जी का क्रम है। वे इतनी ऊर्जा तैयार करते हैं कि जिसका कोई जोड़ नहीं है। कोई यह न माने कि वे लेटे हुए हैं, बेकार हैं, संतों का कोई काम नहीं है। परिपूर्ण जीवन है उनका और संत वो काम करता है, जो दूसरा कोई नहीं करता। इसीलिए संतों की महिमा है। संतों को समझना चाहिए। आप ऐसा न समझो कि हम बैठकर खाने वाले लोग हैं, हम बड़ी कंपनी के लोग हैं। ईश्वर को आवश्यकता होती है, तभी सच्चे संत आते हैं।
रामकाज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकार।।
रामचरितमानस में लिखा है - जामवंत जी ने अपने साथियों को याद दिलाया। राम जी का कार्य है, तभी हम हुए हैं। सीता जी की खोज के लिए समुद्र पार करना था। जामवंत जी ने सबको जगाया। किसी ने कहा कि जाऊंगा, तो लौट के नहीं आ पाऊंगा। किसी ने कहा कि समुद्र पार कैसे करूंगा। कैसे काम होगा। तब जामवंत जी ने हनुमान जी को याद दिलाया, हनुमान जी ने जब अपनी शक्तियों के बारे में सुना, तो उनका शरीर पर्वताकार हो गया   
रामकाज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकार।।
क्रमश:

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