Monday, 29 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

समापन भाग

कभी कभी बोलता था कि मैं पढऩे आया हूं, मुझे विद्वान बनना है। इसलिए बात टलती गई। गुरुजी और लोग इस बात की याद दिलाते रहे, धीरे-धीरे करते-कराते, मुझे साधु बना दिया। मेरे मन में नहीं थी, किन्तु बना दिया। मैंने कभी प्रार्थना नहीं की मुझे दीक्षा लेनी है, मुझे मठाधीश बनना है, मुझे महंत बनना है। मुझे कमरों का नहीं, धन का नहीं, ज्ञान का महंत बनना है। 
याद दिला रहा हूं कि जब गुरुजी की चरण सेवा करता था, जो शिष्यों में परंपरा थी, परिवार में भी बहुएं सासू की, बच्चे माता-पिता की, जो पूरी परंपरा थी कि कैसे गुरु सेवा की जाती है। राम जी भी जब वशिष्ठ जी के साथ गए, तो लक्ष्मण जी के साथ उनकी सेवा करते थे। गुरु की भूमिका बहुत बड़ी है। उसके बदले हम कुछ नहीं दे सकते। कम से कम उसकी हरारत दूर करने के लिए हम प्रयास करें। 
मैं जब सेवा करता, तब एक ही बात गुरुजी बोलते थे कि साधु को कभी घर नहीं जाना चाहिए। मैं तो पहले ही यह संकल्प करके आया था, किन्तु मेरे गुरुजी इस बात को बार-बार दोहराते थे। कभी विवाह नहीं करना चाहिए, जीवन काफी दुखदायी और संकीर्ण हो जाता है, दो-चार लोगों में ही व्यक्ति सिमट करके रह जाता है। जीवन के उद्देश्य सिमट जाते हैं। 
गुरुजी बार-बार बोलते रहते थे, तब समझ में नहीं आता था, किन्तु बाद में मुझे समझ में आया, वे मेरे संस्कारों को दृढ़ बना रहे थे। बार-बार बोलने से ज्ञान परिपक्व होता है। इसी का परिणाम हुआ कि जहां जन्म भूमि का क्षेत्र है, वहां से निकलता हूं, तो कभी देखा भी नहीं कि कौन गांव है। विवाह के लिए कभी मन में नहीं आया।
ऐसे ही श्रेष्ठ मूल्यों को जो जीवन को कल्पवृक्ष जैसा बनाने वाले हैं, उन्हें बार-बार अभ्यास में डालकर चलना होगा। बताना होगा बार-बार कि आपको ऐसा होना है। तभी जीवन परिपक्व होगा। यही सनातन धर्म की परंपरा है और यही सबकी परंपरा होनी चाहिए। केवल कक्षा में पढ़ाई हो गई, पढ़ाने वाले का जीवन कहीं है, पाठ्यक्रम कहीं है, कोई परवाह नहीं है अध्यापकों को कि हमारे विद्यार्थी पर क्या प्रभाव होगा, कैसा इनका जीवन होगा, कैसा जीवन इनका हम बनाना चाहते हैं और हम कैसे हैं, कहां से हमें इनको प्रेरित करना है, हमें कितना इनको आगे बढ़ाना है। और न घर वालों को यह ध्यान में है, न अध्यापकों को ध्यान में है। न शिक्षण संस्थानों को, न नेताओं को यह ध्यान में है। हर आदमी को पड़ी है कि पैसा कैसे, भोग कैसे, इसलिए सबकुछ टूट रहा है। अब तो बेटा और बाप का रिश्ता टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं। जीवन मूल्यों के आधार पर जो जीवन पहले था, उन मूल्यों से जीवन को जोडऩा चाहिए। जागरूक होकर समझदारी से बच्चों को बार-बार बतलाया जाए। मैं कोशिश करता हूं मेरे संपर्क में जो बच्चे हैं, उन्हें समझाकर-बुझाकर, बार-बार याद दिलाकर, उदाहरण देकर, कि आपको क्या बनना है। मनुष्य जीवन की अपूर्वता को अनुभव करो, भारत भूमि की जो विशिष्टता है, उसे अनुभव करो। 
सबसे अच्छा अन्न उत्पन्न करने वाली भूमि में कोई बाजरा लगाएगा क्या? जिस लायक है भूमि, उसे लगाएगा, पोषित करेगा। बबूल के बगीचे में कोई श्रेष्ठ आम का बीजारोपण करेगा क्या? ठीक इसी तरह से सनातन धर्म में जीवन की श्रेष्ठता को बतलाइए। और यह बतलाइए कि कौन-सी शिक्षा पानी है। जैसी शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी, घरों में दी जाती थी, उन लोगों को पैदा करती थी, जो संसार को सूर्य के समान प्रकाशित करते थे, स्वर्ग बना देते थे, दिव्य धाम बना देते थे। अपना भी जीवन और पूरे संसार का जीवन उनसे प्रकाशित होता था। वैसे ही हमें छोटी आयु से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। धीरे-धीरे होगा, एक दिन में ऐसा नहीं होगा। फिर देखिए कि श्रेष्ठ जीवन कैसे पुष्पित-पल्लवित होता है। 
अभी बार-बार सुनाई पड़ता है, लोगों में राष्ट्रीयता नहीं है, मैं कहता हूं कि पारिवारिकता ही नहीं है। राष्ट्र तो बहुत बड़ा है, लोगों में जातीयता नहीं है। हमें कोई नहीं मिला, जो जातीयता के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हो। केवल अपने बच्चों के लिए लोग काम करते हैं, जीते हैं। 
देखिए राम जी को अपने भी फलाहार कर रहे हैं और वानरों को भी कहा कि करो फलाहार। और कह रहे हैं, आप नहीं होते, तो मैं कैसे लड़ता। गुरु वशिष्ठ को भी आदर दे रहे हैं और वानरों को भी दे रहे हैं। 
आज कोई किसी को श्रेय नहीं दे रहा है, हमने ही सबकुछ किया। मेरी विद्वता, मेरा सुयश हमने सब कर दिया। समाज कैसे आदर्श बनेगा? इसलिए इन सब बातों की शिक्षा, अनादि मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता है। इसी शिक्षा से ही रामराज्य का निर्माण हुआ था और होगा।
जय सियाराम

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - १२
एक और उदाहरण मुझे स्मरण हो रहा है, जो मैं बताना चाहूंगा। एक बार दुनिया के सभी बड़े राष्ट्राध्यक्ष कहीं एकत्रित थे और अपने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उपस्थित थे, तो सब लोग बैठ रहे थे। अमरीका के राष्ट्रपति और अन्य, किन्तु रूस के राष्ट्रपति नहीं बैठे, वो खड़े थे, सभी लोगों ने पूछा, आप क्यों खड़े हैं, बैठिए, कुर्सी खाली है। छोटे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी बैठ गए, रूस का राष्ट्रपति नहीं बैठा, उन्होंने कहा कि अटल जी नहीं आए। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश के अटल जी की बराबरी का कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं है। इतना लोकतांत्रिक अनुभव, साथ ही बेदाग जीवन और अद्भुत वक्ता। जब अटल जी को देखता हूं, सुनता हूं, बातचीत करता हूं, तो ऐसा लगता है कि ये लोकतंत्र के सबसे बड़े सांचे में ढाला हुआ जीवन है। और उनके लिए खड़ा हूं। उनका सम्मान निश्चित रूप से लोकतांत्रिक जीवन को प्रकाशित करेगा प्रेरणा मिलेगी।’ 
आज समाज में मूल्यांकन की जरूरत है कि किसके लिए बैठना और किसके लिए खड़ा होना। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। अब तो बड़े-बड़े धर्माचार्य आते हैं, तो एक दूसरे को हाथ उठाने में भी संकोच नहीं होता है। अब नमस्ते कहते हैं, संप्रदाय की प्रक्रिया के अनुसार प्रणाम करने में भी उन्हें संकोच होता है। एक बार तीनों शंकराचार्यों के साथ मैं था, लोग मिले, तो एक दूसरे को प्रणाम नहीं किया। मैं साक्षी था। श्रंृगेरी मठ, ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी और मैं, हम तीनों मिल रहे थे, उन लोगों ने हाथ जोडक़र नम्रता के साथ प्रणाम नहीं किया। वे क्या दूसरों को शिक्षा देंगे। मैं बड़ा, तो मैं बड़ा। जबकि उनके सिद्धांत में सभी ब्रह्म हैं, तो कम से कम ब्रह्म तो ब्रह्म को प्रणाम करे। 
लिखा है कि ज्ञानी होने के बाद आवश्यकता नहीं है, तो भी वह लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रणाम करता है, काम करता है। भगवान ने गीता में कहा, मैं इसलिए कर्म करता हूं कि सारे लोग कर्म करें। कर्म नहीं करूंगा, तो सारे लोग कर्म छोड़ देंगे, तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा, पालन कैसे होगा, उत्पादन कैसे होगा, सारी व्यवस्था ही रुक जाएगी। इसलिए मैं कर्म करता हूं। ज्ञानी भी कर्म करता है। शंकराचार्य होकर भी हाथ नहीं जोड़ें, यह कौन-सी बात हो गई। वो भी शंकराचार्य को नहीं जोड़ें। मैंने दोनों लोगों को हाथ जोडक़र सिर झुकाकर अत्यंत आदर के साथ प्रणाम किया और साथ में बैठ गया। यह पद्धति सभी बच्चों को शुरू से ही देने की आवश्यकता है। 
जब ज्ञान धारा की शुरुआत हो रही है, जब नए जीवन का उद्गम हो रहा है, जब जीवन का प्रारंभिक उत्स है कि कैसे विकसित होंगे। सभी को इन बातों को सीखना चाहिए कि कैसे राम जी संपूर्ण संसार को अपने चरित्र के अद्भुत स्वरूप से, जो पूर्ण वैदिक था, पूर्ण ऐतिहासिक था, पूर्ण पौराणिक था, कैसे शिक्षित किया। हमारे यहां शिक्षा का क्रम कल्पित नहीं है। वह अनादि है। उसमें हमें मांस अच्छा लगेगा, तो मांस नहीं खाएंगे। शादी हमें करनी है, तो ऐसे ही नहीं कर लेंगे। जो हमारे संपर्क में जो बच्चे हैं, जो बच्चियां हैं, उन्हें कहता हूं कि मनमानी शादी नहीं कर लेना। किसी लडक़े को हैप्पी वेलनटाइन डे नहीं कह देना। जो भी सुंदर लग जाए, उसे लेकर आने का संकल्प नहीं करना। शादी अवश्य चाहिए। स्त्री बहुत बड़ी सहयोगिनी है पुरुष की। पुरुष को मिली है ऊर्जा, जिसके लिए स्त्री की आवश्यकता, और स्त्री को पुरुष की। वे पूरक हैं एक दूसरे के। 
इसलिए वेदों में लिखा है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता। तभी उन्होंने स्त्री पुरुष का रूप धारण करके अपने मन को रंजित किया। तो शादी हो, किन्तु कैसे हो, छोटी आयु से शिक्षा दीजिए कि आपको भी दुल्हन मिलेगी, किन्तु दुल्हन ऐसी, जो अपने बड़ों द्वारा आपको प्राप्त होगी, गुरु के द्वारा होगी। परिवार के माता-पिता दादा-दादी सब जो लाएंगे, वो आपको मिलेगी। ऐसा नहीं कि जो भी मिलेगी, उसे ले आएंगे। 
जैसे राम जी को मिली पत्नी, किन्तु विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन में मिली। बक्सर पहुंचे, जनकपुर गए और वहां जो विधि थी सीता जी की प्राप्ति की। उस विधि का परिपालन किया। जनक जी के संकल्प के अनुसार ही जानकी जी मिलीं। जनक ने ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त कर लिया था। राजा होने के बाद भी जिन्होंने खूब जप किया, ऐसे परम तेजस्वी और सभी दृष्टि से परिपूर्ण जीवन के ब्रह्मर्षि के माध्यम से पत्नी प्राप्त हुई। 
इन बातों की शिक्षा, जिन मूल्यों को जीवन में विकसित करना है, जिन ज्ञानों को जिन स्वभावों, व्यवहारों, संकल्पों को, जिन निश्चयों को जिन अहंकारों को हमें जीवन में विकसित करना है। एवरेस्ट पर पहुंचाना है, अपने लिए और संपूर्ण मानवता के लिए वरदान बनाना है, उसकी शिक्षा शुरू से दी जाए। हमारे यहां तमाम इतिहास वर्णित हैं, तमाम तरह की घटनाएं हैं, खूब-खूब उदाहरण हैं, उनके अनुसार चलें, सिखाएं। 
मेरे गुरुजी, जब मैं घर से भाग करके आया, तो मैं साधु बनने के लिए नहीं आया था। मैं इसलिए नहीं घर छोड़ा था। घर छोड़ा था, तो तीन संकल्प लिए थे। एक - इस गांव में जहां जन्म हुआ, वहां कभी नहीं आऊंगा। दूसरा संकल्प लिया कि विवाह नहीं करूंगा। तीसरा संकल्प लिया कि खूब विद्वान बनूंगा। तो ठीक है। उस संकल्प के साथ गुरुजी के साथ लग गया। लोग आते थे सलाह देते थे, आप साधु हो जाइए, तो आपको पढऩे में सुविधा हो जाएगी। गुरुजी भी बोलते थे और जो लोग आते थे, वो भी बोलते थे। मैं साधु जीवन से उतना प्रभावित नहीं था, किन्तु कुछ बोलता नहीं था। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ११
शिक्षा का ये जो घरेलू महाविद्यालय है, हमें पारंपरिक विद्यालय से पहले वाले जीवन का जो शिक्षा देने वाला विद्यालय है, उस विद्यालय में इन सभी तथ्यों को जीवन में वृक्ष का रूप देना है। बड़ी-बड़ी डालियां, टहनियां धड़ और जड़ देना है, उसमें आवश्यक है कि हम इन सभी बातों को सीखें। बातचीत की शुरुआत कहां से करनी है सीखें। हम सीखें कोई आया है, तो उसे मान कैसे देना है, हम सीखें कि कोई आया है, तो हम उसकी कैसी प्रशंसा करें, हम उसे क्या देकर भेजें, हम कैसे उसके लिए अपने को बिछावें, पलक पांवड़े बिछावें। यह पुरानी परंपरा है, कोई आया है, तो उसे हम दरवाजे तक छोडक़र आएं। और कहें कि आप आए आपका आभार।
ये जो शिक्षा घर में दी जाएगी, तो बच्चा ऋषि के रूप में सर्वश्रेष्ठ मानव के रूप में वरदान के रूप में समाज और मानवता के भूषण के रूप में प्रकाशित रूप में प्रकट होगा। ये सारी शिक्षाएं अभी नष्ट-भ्रष्ट हो रही हैं। केवल भारत वर्ष ही नहीं, केवल एक जाति के लोगों के लिए नहीं, संपूर्ण मानवता के लोगों, शरीरधारियों के लिए यह उपयोगी बात है। 
आप अपने बच्चे को बड़ा बनाना चाहते हैं, इसमें संदेह नहीं, किन्तु कैसे बड़ा बनाएंगे। आप अपने पिताजी का सम्मान नहीं करेंगे, तो आपका बच्चा कैसे करेगा? आप यदि संयम-नियम से जीवन नहीं बिताएंगे, तो सबकुछ अस्त-व्यस्त रहेगा, तो आपका बेटा कैसे संयमी होगा? कैसे चरित्रवान होगा, कैसे वह चोर नहीं होगा? कैसे वह पक्षपाती नहीं होगा? कैसे वो उद्दंड नहीं होगा? तो यह सारी शिक्षाएं छोटी आयु में जो लकीर पड़ जाती है मन में, वह बुढ़ापे तक चलती है। 
एक आरंभिक काल में अध्ययन किया था - पंचतंत्र हितोपदेश। बहुत उपयोगी है, समय मिले, तो सबको पढऩा चाहिए। उसमें लिखा था कि जो बच्चों का दिमाग होता है, वह कच्चे घड़े के समान होता है। कच्चे घड़े पर जो लकीर खिंच जाती है, वो जीवन भर बनी रहती है। घड़ा पक गया और अब लकीर बनी रहेगी। पक्के घड़े पर यदि लकीर खींची जाए, लकड़ी से, उंगली से, तो टिकती नहीं है, किन्तु कच्चे घड़े पर खींची जाए, तो सदा बनी रहती है। 
जैसे कच्चे घड़े पर कोई चिन्ह बना दिया जाए, तो पकने के बाद इधर-उधर नहीं होती, अमिट हो जाता है, किन्तु यदि आपने चिन्ह पक्के हुए घड़े पर लगा दिया, तब तो मिट जाएगा, आजीवन नहीं रहेगा। फूटने पर्यंत नहीं रहेगा। इसी तरह से हम अपने बच्चों को जो अबोध हैं, जिनके पास भाषा नहीं है, जिनके पास सिद्धांत ज्ञान नहीं है, जिनके पास व्यवहार का बहुत ज्ञान नहीं है, सबकुछ अभी अधूरा-अधूरा है। अपने बच्चे को कोई कह ही नहीं रहा है कि मैं खड़ा हूं, तू क्यों बैठ गया। 
एक बार दिल्ली जा रहा था, तो लखनऊ में हवाई अड्डे पर वीआईपी कक्ष में बैठा था। वहां अधिकारियों ने कहा हमारे प्रबंधकों को कि महामहीम राज्यपाल मोतीलाल वोरा आ रहे हैं। राज्य में राष्ट्रपति शासन है। महाराज को दूसरी जगह बैठा देते हैं। ये जगह खाली कर दें, तो हमारे प्रबंधकों ने कहा कि खाली कर देते हैं। हम दूसरे कमरे में चले गए, बैठे। किसी पुलिस के बड़े अधिकारी ने कहा मोतीलाल वोरा जी को कि रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य जी भी अभी हवाई अड्डे पर ही हैं। तो वोरा जी ने कहा, हमें मिलवाओ, उन्हें प्रणाम करना है। 
तो आ गए, प्रणाम किया। समाचार मैंने पूछा, कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। ये पूछकर जो व्यावहारिक क्रम है, बहुत प्रेम से मिला। काफी दिनों बाद भेंट हुई थी। वोरा जी मेरे पुराने शुभचिंतक और प्रेमी, अच्छे भाव रखने वाले, किन्तु मिलने की खुशी में मैं यह कहना भूल गया कि वोरा जी बैठेंगे क्या। बातचीत के क्रम की शुरुआत प्रवाह में भूल गया, तो मोतीलाल वोरा जी जब २०-२५ मिनट बीत गया, वो खड़े थे। तब मैंने कहा, ‘वोरा जी आप बैठेंगे क्या?’ 
उन्होंने उत्तर दिया, ‘इतनी बड़ी आयु का हूं, आप बोल ही नहीं रहे थे, तो मैं कैसे बैठता।’ 
सनातन धर्म में शिक्षा दी जाती है, जब तक बड़े की आज्ञा नहीं है, छोटे को बैठना नहीं है। मैंने कहा, धन्य सनातन धर्म और धन्य वो संस्कार देने वाले, जातियां, परिवार, संस्थान। इतना बड़ा आदमी राज्यपाल है, राष्ट्रपति शासन है, देश का सबसे बड़ा प्रांत है उत्तर प्रदेश। पूरा अधिकार राज्यपाल के पास, मुख्यमंत्री रहा हुआ नेता। एक भिक्षु की आज्ञा के बिना बैठा ही नहीं। कहा कि आपकी आज्ञा नहीं हुई। 
तो मैंने कहा, ‘मैं समझता था कि आप जल्दी जाएंगे, क्योंकि विमान को जाना है। अंधेरा हो जाएगा।’ 
तो वोरा जी ने कहा, ‘छोड़ देता विमान, नहीं जाता, वहां कौन मेरे बाल बच्चे रो रहे हैं। आप मिल गए हो, तो मेरी यात्रा की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी? आपको हम लोग बहुत-बहुत महत्व देते हैं। प्रेरणा लेते हैं।’ 
तो यह शिक्षा का प्रभाव है कि इतने बड़े प्रांत का राज्यपाल, राष्ट्रपति शासन से जुड़ा हुआ राज्यपाल मेरी आज्ञा के बिना बैठा नहीं। अब तो कोई भी बैठ जाता है, कितना भी वरिष्ठ आदमी हो। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - १०
छोटी आयु में मैं एक परिवार में गया था, बिहार में। उस परिवार में कोई बच्चा बड़ों के सामने बैठता नहीं था। खटिया नहीं बिछती थी दिन में, चौकियां बिछती थीं, दिन में बच्चे बड़ों के सामने खड़े ही रहते थे और रात में भी। बैठने के लिए जहां एकांत है, वहां जाते थे, जहां बड़ों की दृष्टि नहीं जा रही हो। और ये ऐसे बच्चे थे, जो कॉलेज, विश्वविद्यालय में टॉपर थे, भगवान ने उन्हें सबकुछ दे रखा था। जब भगवान की आरती होती थी, तो महिलाएं पर्दा के पीछे से, और सभी लोग आरती में हाथ जोडक़र खड़े रहते थे। अभी तो भगवान की आरती में भी लोग हाथ जोडक़र खड़े नहीं रहते हैं। ऐसे खड़े रहते हैं, मानो सडक़ पर खड़े हों। पता नहीं चलता कि उन्हें ईश्वर की कोई चेतना है भी या नहीं। तो मैं उस परिवार के बच्चों को देखकर हैरान था। मेरे पास तब साधन नहीं था, ज्ञान का प्रभाव भी ज्यादा नहीं था, किन्तु वो बच्चे मेरे सामने भी नहीं बैठते थे। जिस परिवार में हमारा जन्म हुआ, उस परिवार से कई गुना बड़ा वह परिवार था। जहां हर पुरुष को एक नौकर, हर महिला को एक नौकरानी, पूरे साधन, वाहन, वैभव था उस परिवार में, किन्तु संस्कार ऐसे कि परिवार के बच्चे बड़ों के सामने नहीं बैठते थे।
अब तो पिता खड़े रहते हैं और बच्चा उनके सामने ही धम्म से बैठ जाता है। आज बहुएं भी दीवार से पीठ लगाकर बैठ जाती हैं, और बूढ़ी मां, सासू मां आईं, तो न बैठने को बोलती हैं और न दीवार छोडक़र खड़ी होती हैं, जबकि बुढ़ापे में दीवार का सहारा उपयोगी है, सुकून देने वाला है। 
हमें लोगों को शिक्षित करना ही होगा। हमें संपूर्ण मूल्यों को बाल्यावस्था में अत्यंत दृढ़ता से समझाना है। परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान और चरित्र में उतारना। इसके लिए आवश्यक है कि हम जीवन के अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष, ये चार जो हमारी इच्छाओं के मुख्य विषय हैं उनको समझें। हमारी जितनी इच्छाएं होती हैं, उन्हें चार भाग में बांटा जाता है। पहले मैं बतला चुका हूं, इसी को पुरुषार्थ कहते हैं। जिसे पुरुष चाहता है। हम धन चाहते हैं, हम भोग चाहते हैं, काम को भोग कहते हैं, हम धर्म चाहते हैं और हम मोक्ष चाहते हैं। हम बच्चों को बताएं कि हमें कैसे धन लेना है, ऐसा नहीं कि किसी की जेब से निकाल लिया। पिताजी से मांग करके लेना है, चुराकर कभी नहीं लेना है। 
दान में अभी बड़ी विडंबना है, धन का अर्जन धर्म की प्रक्रिया से नहीं हो रहा है। धन न्याय से अर्जित नहीं हो रहा है। शास्त्रीय प्रक्रिया से जो धन अर्जित किया जा रहा है, उसे जब हम दूसरों को दें, तो यह दान कहलाता है। 
कोई चुरा कर दान दे, तो वह दान लेने वाले को भी मारेगा और देने वाले को भी मारेगा। ऐसे ही इधर-उधर से चुरा करके, लूटपाट करके, अमानवीय व्यवहार करके धन कमाकर दान देने से धर्म की हानि हो रही है। गलत दान लेने वाले ऋषियों, संतों की हानि हो रही है। ऐसे ही परिवार की भी हानि हो रही है। कई लोग ऐसा बोलते हैं कि व्यापारी को तो झूठ बोलना ही पड़ेगा, बड़ा आदमी झूठ बोले बगैर आगे बढ़ेगा ही नहीं, किन्तु इसीलिए तो परिवार नष्ट हो रहे हैं। धन आ गया, किन्तु चला गया। करोड़ों-करोड़ों रुपए लोगों के पास आ जाते हैं, किन्तु एक मिनट में चले भी जाते हैं। ऐसा धन इसलिए चला जाता है, क्योंकि वह धन शास्त्रीय प्रक्रिया से अर्जित नहीं किया गया है। 
जब मैं छोटा था, तब एक बहुत बड़े परिवार में मैं गुरुजी के साथ गया। उस परिवापर के बारे में मैं पहले बता चुका हूं। तो गुरुजी ने मुझे पुकारा, ‘रामनरेशदास जी...,’ 
मेरे गुरुजी मुझे ‘जी’ लगा कर कहते थे, मेरी छोटी आयु से ही। मैं उन्हें बोलता था कि मैं शिष्य हूं, कुछ भी ज्ञान नहीं है, तो आप ‘जी’ क्यों बोलते हैं? रामनरेशदास क्यों नहीं बोलते? 
गुरुजी बोलते थे, ‘आपको बड़ा संत बनाना है, इसलिए मैं आपको अभी से आदर के साथ बुलाता हूं। मेरी बड़ी शुभकामना है।’ 
बड़ा जिसे बनाना है, उसे बड़ी बात सिखलाइए, बड़ा परिवेश दीजिए, बड़ा व्यवहार दीजिए, तो उन्होंने पुकारा, ‘रामनरेशदास जी।’
मैंने कहा, ‘हां... हां।’ 
तो बड़े परिवार के जो वरिष्ठ व्यक्ति थे, उन्होंने मुझसे तत्काल पूछा, ‘आपका कहां घर है?’ 
मैंने बतला दिया कि इस गांव में, तब उन्होंने कहा, ‘तब आपका उत्तर ठीक है, हां, क्योंकि आपके गांव का संस्कार बहुत उन्नत नहीं है।’ 
मुझे उन्होंने दबोचा। मैं पहले ही बतला चुका हूं कि वह परिवार कितना संस्कारवान था। जहां लोग कैसे जीवन जीते हैं। कोई बच्चा बैठता नहीं था बड़ों के सामने। मालिक जब भोजन करते थे, तब सबको पूछकर भोजन करते थे। सबने भोजन कर लिया क्या, ये मैंने आंखों से देखा, कानों से सुना। जब उनको कहा जाता कि सबने भोजन कर लिया, तब भोजन करते थे। वे अपने अंत समय में काशी आए, तो छोटे पोते-पोतियां, भतीजों और अंत में अपने नौकर को भी पूछते थे कि तुमने भोजन कर लिया दरभंगा। नौकर का नाम दरभंगा था। वह छोटी आयु से उनका सेवक था। तो दरभंगा बोलता था, ‘सरकार आपने नहीं किया, तो मैं कैसे कर सकता हूं। मैं तो आपका धूल कण हूं।’ 
कितनी बड़ी बात है। कितना बड़ा आदमी और पूछ करके नौकर से और भोजन कर रहा है अंत में। अभी ये जो सारी परिपाटियां हैं, सबकुछ अकेले-अकेले करने की। छिपाकर करने की और सबको विकृत रूप से प्रस्तुत करने की, तो इसीलिए परिवार टूट रहे हैं। लांछित हो रहे हैं। सबकुछ बंटाधार हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई हमें मान दे रहा है, तो हम उस मान को उपहार के रूप में, उसकी शुभकामना के रूप में ग्रहण करें, तो हम भी उसे मान दें। तो हमने जब कहा, ‘हां,’ तो उन्होंने सिखाया, ‘ऐसे नहीं बोलना चाहिए। गुरुजी ने पुकारा, तो जी कहना चाहिए।’ 
वह बात मुझे अभी तक याद रहती है। गुरुजी बोल रहे हैं ‘रामनरेशदास जी।’ और आप बोल रहे हैं ‘हां’। ये क्या है? 
इसका अभिप्राय यह कि ये ही नहीं बोलने आ रहा है, पिता जी पुकारें, तो जी बोलने में क्या दिक्कत है। अफसरों को तो बोलना पड़ता है सर, कोर्ट में बोलना पड़ता है सर। ऐसे ही जिससे दो रुपए लेने हैं, उसे भी कहना पड़ेगा। वरिष्ठों के लिए सर कहना पड़ेगा, किन्तु अब इसका प्रशिक्षण नहीं हो रहा है। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ९
चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि यदि किसी को भक्त बनना है, भगवान का भजन करना है, तो मान की इच्छा छोड़ो और मान देने की इच्छा से जुड़ो। हमें दूसरों को मान देना है। हमें मान चाहिए, हम चाहते हैं कि सब लोग हमारी जयजयकार करें। ऐसे महान भाव के चैतन्य महाप्रभु प्रचारक हैं। मान देने की परंपरा, मर्यादा निभाने की परंपरा बच्चों को शुरू से ही बतलानी चाहिए। जब पिता जी आएं, तो आप खड़े हो जाओ, उन्हें प्रणाम करो, ये शुरू से सिखाना होगा। पिता जी बड़े हैं, उनका मान-सम्मान करें। इससे समाज जुड़ेगा, मानवता का विकास होगा। सार्थकता बढ़ेगी। इसलिए भगवान राम जी जब उठते हैं, तो सबसे पहले भगवान को प्रणाम करके, जो कुलदेवता हैं, माता-पिता को, ब्राह्मणों को, जितने भी बड़े लोग हैं, सबको प्रणाम करते हैं। 
प्रणाम बहुत-बहुत बड़ी साधना है। प्रणाम समाज का बहुत बड़ा जोडऩे वाला द्रव है। सम्मान ही आदमी को चाहिए। सारे लोग भोजन ही नहीं मांगते, कपड़ा ही नहीं मांगते, किन्तु सम्मान सबको अच्छा लगता है। आज भी लोग हाथ जुड़वाते हैं, जो हाथ जुड़वाने, प्रणाम करवाने का उपक्रम चल रहा है, किन्तु अधिकांश परिवारों में अब बंद हो रहा है। बच्चों को नहीं सिखलाते और स्वयं भी नहीं करते हैं। अब तो लोग घुटने में ही हाथ लगा देते हैं। यह कोई बात हुई क्या? कुछ दिनों में पेट में लगा देंगे, उसके बाद छाती में लगा देंगे, गला में लगा देंगे, सिर में लगा देंगे, ये कोई प्रणाम की पद्धति हुई क्या? वरिष्ठ खड़ा है और छोटा ही बैठ गया। ये मर्यादा की बात हुई क्या? 
पूरी दुनिया का मूल तंत्र है प्रणाम, हमें किसी को पिघलाना है, हमें किसी को अपना बनाना है, तो उसको हम प्रणाम करें और सब बातें तो गौण हैं। ये शिक्षा देनी ही चाहिए कि जब तक बड़े खड़े हैं, तब तक छोटों को बैठना नहीं है। कैसे हाथ जोडऩा है, कैसे चरण स्पर्श करना है। किस तरह से उन्हें बोलना है कि जी प्रणाम, हाथ जोडक़र। ये सिखाना घर के विद्यालय का कार्य है। 
अभी तो आधुनिक शिक्षा पद्धति में बच्चे बैठे रहते हैं और अध्यापक खड़े रहकर पढ़ाते हैं। बतलाइए, अब क्या शिक्षा होगी। अब कक्षा में हाथ नहीं जोडऩा है, बस अपनी जगह खड़े हो जाइए और फिर बैठ जाइए, बेचारा अध्यापक खड़ा रहेगा। उसे देर तक खड़ा रहना है। ऐसा सेना में होगा क्या? ऐसा तो नहीं होगा। जितनी बार बड़ा अधिकारी जाता है, उतनी बार छोटा अधिकारी सैल्यूट मारता है। 
सभी लोगों को बच्चों को सैनिक बनाना है। जो सेना में प्रोटोकॉल है, केवल वही नहीं, जो संतों में प्रोटोकॉल है, वो भी बताना है। जो मार्यादाएं सेना में हैं, जो मर्यादाएं दूसरे संस्थानों में हैं, उसके साथ ही हमें संतत्व की शिक्षा भी देनी चाहिए। जो हमें आदर देता है, मर्यादा के साथ सारे व्यवहार करता है, वही तो संत है। शुरू से ही शिक्षा हो और शिक्षा की जो विवेचना है, वो ऐसे दी जाए कि अपरोक्ष ज्ञान हो जाए। अपनों के साथ दूसरों को भी प्रेरित करने की भी शिक्षा देनी है। भगवान की दया से जो बड़ी प्रसिद्ध है कि राम जी जब उठते थे, तब सभी बड़ों को प्रणाम करते थे। 
गुरु माने बड़ा होता है। व्याकरण में एक सूत्र है - दीर्घं च - जो बड़ा है अपने से, वो अपना गुरु है। जो आयु में बड़ा है, वो भी गुरु है। धन में जो बड़ा है, वो गुरु है। जो अपने से रूप में बड़ा है, बल में बड़ा है, प्रभाव में बड़ा है, तो उसको प्रणाम कीजिए। जिसको बड़प्पन प्राप्त है, वो गुरु है। 
अभी तो लोगों को यही समझ नहीं आ रहा है कि गुरुओं को कैसे प्रणाम किया जाए।  ये वो देश है, जहां प्रणाम करके लोग पत्थर को भी पिघला देते हैं। द्वारिकाधीश तो सुदामा को प्रणाम करते हैं। द्वारिकाधीश को समग्र ऐश्वर्य प्राप्त है, जो समृद्धशाली हैं, वो भी अपने गरीब ब्राह्मण संत साथी को प्रणाम करते हैं। इस तरह की प्रेम की वर्षा और मर्यादा की संस्थापना अनुकरणीय है, अद्भुत है और दूसरा इसका कोई उदाहरण नहीं है। भगवान की दया से जीवन के इन महत्वपूर्ण तथ्यों को बच्चों को विद्यालय जाने से पहले और बाद में भी बार-बार बतला देना चाहिए। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ८
सनातन धर्म में दूसरों को यश देना आवश्यक है। दूसरों को यश नहीं देने से बिखराव होता है। जो दूसरों को यश दे, उसे ही यशोदा कहते हैं। संत जन कहते हैं और शास्त्रों में भी वर्णित है कि सबको यश, प्रशंसा मिलती है किसी कार्य की सफलता के बाद, यही यश है। उसे आदमी निगलना चाहता है कि हमने ही किया। समुदाय को सहयोगियों में यश का बंटवारा करने की प्रवृत्ति सिकुड़ती जा रही है, जबकि राम जी सबको ही यश देते हैं। 
आज हम देखते हैं कि जो बड़े नेता हैं, जो राष्ट्राध्यक्ष हैं, जो बड़े अधिकारी हैं, जो भी जहां बड़प्पन या बड़े पद से जुड़े हैं, वो इस मामले में कंजूसी कर देते हैं। अच्छे संसाधन व अच्छी शिक्षा देने में कभी कंजूसी न करें। आपको जो यश मिला है, उसका बंटवारा करें। इसी को यशोदा कहते हैं। 
संत शिरोमणि डोंगरे जी कहते थे, जब कोई आता था नंद जी के घर बधाई देने के लिए, तब यशोदा जी कहती थीं कि आपके ही आशीर्वाद से लल्ला कितना सुंदर, कितना संस्कारी, कितना मनमोहक हुआ है, जो वैभव इसके रोम-रोम में आया है, आपके  आशीर्वाद से ही है। आपने मंगल कामना की, आपने भगवान से कामना की, आपने संयम-नियम किया, आपने उपासना की, इस बच्चे को आने के लिए। नहीं तो मेरी पात्रता नहीं दिख रही थी कि ये मेरे यहां आते। वो सबको यश देती थीं, इसलिए उनका नाम रख दिया यशोदा। जो धन देता है, उसे धनद बोलते हैं। जो कंबल देता है, उसे कंबलदा कहते हैं, ऐसे ही जो यश दे, उसे यशोदा कहते हैं। तो शुरू से बच्चों को ये शिक्षा दी जाए, जीवन के विकास के लिए यह ज्ञान का बीजारोपण है। जीवन के महान विकसित महल की यह बहुत मजबूत प्रशंसनीय नींव है कि हम बच्चों को शुरू से ही ये सिखलाएं कि कैसे यश को बांटना, धन को बांटना, ज्ञान को बांटना, भोजन को बांटना, अपने सबकुछ को बांटना है, जो उपलब्धियां हैं, उनको बांटना है। फिर आदमी राम राज्य का रक्षक, सिपाही होता है। इसी सूत्र को लेकर भरत जी ने राम जी की चरण पादुका को सिंहासन पर स्थापित किया। 
अभी जो दृश्य हैं, बहुत-बहुत विकृतियां हैं। कोई दूसरों को कुछ भी देना नहीं चाहता। दूसरों को कोई महत्व देना नहीं चाहता। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उनको बचपन से यह शिक्षा नहीं दी गई। हमारा इतिहास इसका उज्ज्वल उदाहरण है, अनुपम प्रकाशक है। जब लोगों को उचित शिक्षा दी जाती थी, तभी सम्मिलित या संयुक्त परिवार चलते थे। सम्मिलित परिवार और तमाम संगठनों के टूटने का एकमात्र यही कारण है। मिलकर रहने की शिक्षा शास्त्रों के आधार पर दी जाती थी, उदाहरण बतलाए जाते थे कि देखिए लोगों ने दूसरों को कैसे यश दिया। अयोध्या लौटने के बाद राम जी ने वानरों को बहुत महत्व दिया। गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये नहीं होते, तो हम कुछ नहीं कर पाते। इन्होंने ही हमारा जो युद्ध स्वरूप जहाज था, उसमें बेड़ा का काम किया। थामे रखने का, भटकने नहीं देने का, बहने नहीं देने का काम इन्होंने किया, ये हमारे मित्र हैं। 
क्या बात है, कहां राम और कहां ये उनके मित्र वानर, भालू इत्यादि। कहीं से कोई तुलना नहीं है, कहीं से कोई बराबरी नहीं है। बराबरी में मित्रता होती है। धन की बराबरी, रूप की बराबरी, प्रभाव की बराबरी, यश की बराबरी। कहीं से भी इन वानरों की भगवान राम जी से बराबरी नहीं है, किन्तु भगवान ने कहा, ये मेरे मित्र हैं। 
राम जी ने कहा - 
ए सब सखा सुनहू मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
ये कैसी मित्रता है, कैसी समानता है? भगवान संकेत दे रहे हैं कि यदि इनको हम महत्व नहीं देंगे, तो संपूर्ण संस्कृति विद्रूप हो जाएगी। मानवता ही लज्जित हो जाएगी, क्योंकि इन्होंने मेरे लिए अपने प्राणों को हथेली पर रखकर प्रयास किया, तो हमको कहना है कि हमने जो विजय प्राप्त किया, हमने जो ये सारा सुयश प्राप्त किया, आप उसमें बड़े सहयोगी हैं, सबसे बड़े भागीदार हैं। 
मैं इन आख्यानों के माध्यम से कहना चाह रहा हूं कि हमें अपने बच्चों को बुढ़ापे और जवानी में नहीं, बाल्यावस्था से ही संपूर्ण उपलब्धियों को परस्पर बांट करके संपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा देनी चाहिए। इसका अभाव हो गया है। अभी तो दुनिया का सबसे बड़ा सिद्धांत हो गया है, बांटो और राज करो। दूसरों को निगल जाओ और अपने अस्तित्व को बरकरार रखो। हमें मतलब नहीं है कि आपका क्या होगा। हमें मतलब इसी से है, हम सबसे बड़े हैं, हम सबसे सुंदर हैं, सबसे धनवान हैं, संपूर्ण संसार में हमारा दबदबा है, आपका क्या हो रहा है, इससे हमें क्या मतलब? इसलिए अपने देश में इस पद्धति का जीवन, जो ये वैदिक जीवन पद्धति है, जो पौराणिक, ऐतिहासिक हमारी जीवन पद्धति है, जिसका प्रचलन अनादि काल से हमारे परिवार और संस्कृति में था। कहां कृष्ण और कहां सुदामा? कहां ये राजाधिराजा और कहां वो संत, गरीब ब्राह्मण, जिसके पैरों में कुछ नहीं होता था। उसके सामने लोग नतमस्तक होते थे। मालूम है, जैसे कि हम राज्य साम्राज्य के विस्तार में तत्पर हैं, ठीक वैसे ही ब्राह्मण भी तत्पर हैं। वैसे ही हमारे गुरु भी, संत भी तत्पर हैं, हम सब एक हैं, कोई भेद नहीं। ये हमारा बहुत बड़ा पक्ष है, जिसको इसी तरह से बड़े परिवारों में संस्कारी परिवारों में शुरू से ये बात बताई जाती है कि कैसे हमारा जीवन हो। सम्मान देने का भाव बच्चों में शुरू से डालना चाहिए। इसे ही अंग्रेजी में प्रोटोकाल कहते हैं - क्या किसकी मर्यादा है। आज मैं देखता हूं - पिता जी खड़े रहते हैं और बेटा बैठ जाता है। बतलाइए, कहीं ऐसा होता है क्या कि पुलिस का बड़ा अधिकारी खड़ा है और छोटा अधिकारी बैठ जाए। ऐसा तो नहीं होता, ऐसा कोर्ट में भी नहीं होता। सेना में नहीं होता, बड़े संगठन में ऐसा होगा क्या? बड़ा अधिकारी महाप्रबंधक खड़ा हो और द्वारपाल बैठ जाए, ऐसा तो नहीं होता है। कहीं भी नहीं होता। बड़ा जब तक खड़ा है, तब तक छोटा भी खड़ा रहेगा। बड़ा यदि बैठा है, तो छोटा भी बैठ सकता है, किन्तु पूछ कर बैठेगा। आज सम्मान देने का भाव बहुत ही कम हो रहा है, प्रोटोकॉल लोग समझ ही नहीं रहे हैं। 
अमानिना मानदेय: कीर्तनीय: सदा हरि:।
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ७ 
ये जीवन की, सनातन धर्म की परंपरा है, जो वेदों से प्रेरित होती है। ईश्वर भी ऐसा ही करता है - बांटकर शक्ति का वितरण करता है। वायु देव करते हैं, वरुण देव करते हैं। पृथ्वी कभी नहीं बोलती किसी गरीब को, किसी छोटी जाति के आदमी को, किसी मूर्ख को, किसी कुरूप को कि यहां तो ऋषि बैठते हैं, तो तू यहां क्यों बैठा है, यहां तो कोई धनवान बैठता है, तू क्यों बैठा है। वैसे ही वायु देव, वरुण देव पक्षपात की दृष्टि से देखने लग जाएं, विषम दृष्टि से शक्ति देने लग जाएं, तो संसार का सत्यानाश हो जाएगा। 
केवल भोजन ही नहीं, जो हमें ज्ञान प्राप्त हुआ है, जो हमें यश प्राप्त हुआ है और संसार के जो दूसरे संसाधन और बल प्राप्त हुए हैं, उनको भी हमें बांटना चाहिए। सनातन धर्म में प्रकिया रही है कि गुरु से पढक़र आपस में बड़े व समझदार लोग अपने साथियों के साथ मिलकर ज्ञान का वितरण करते हैं। मैंने भी पढ़ते समय अपने साथ पढऩे वालों को उन बातों को समझाया-बतलाया-पढ़ाया, जो मैंने अपने गुरुओं से सीखा। यह ज्ञान बांटने की प्रशस्त प्रक्रिया है।
गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी भी यही करते थे। वे अपने साथियों के साथ, अपने भाइयों के साथ, अपने परिजन के साथ बैठकर अपने ज्ञान का वितरण करते हैं। चर्चा होती है कि हमने ऐसा समझा, आपने कैसा समझा। आपको वह समझ में आ गया क्या, जो गुरुजी ने समझाया, यदि नहीं आया, तो मैं जो कह रहा हूं, आप प्रयास करें, ग्रहण करें। ज्ञान का वितरण राम जी अपने सभी भाइयों के साथ करते थे। गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी अपने साथियों, अपने भाइयों के साथ बैठकर उस ज्ञान का बंटवारा करते थे। बैठकर बोलते थे कि हम ऐसा समझे हैं, आप भी समझिए और आप समझ गए हों, तो हमें भी सुनाइए। राम जी ऐसा नहीं मानते कि मुझे समझ में आ गया, मुझे इससे क्या मतलब कि दूसरों की समझ में आए या न आए। 
आज के आधुनिक संस्थानों में भी यह प्रक्रिया प्रचलित की जा रही है कि बच्चों के अध्ययन समूह बना दिए जाते हैं। बच्चे मिलकर चर्चा करें और मिलकर पढ़ें, मिलकर समझें। एक छात्र ने समझ लिया, तो वह दूसरों को भी समझा दे। जिसने जो समझा, वो बताए। अपनी समझ का वितरण करे। महामानव होने के लिए, जीवन में सफल होने के लिए तथ्यों को मिलकर संग्रहित करना है। उद्देश्य केवल भोजन ही नहीं, कपड़ा ही नहीं, ज्ञान भी है। ज्ञान को भी आपको बांटना है। याद करके उस ज्ञान को अपने साथियों में बांटिए। भगवान की दया से उन्हें भी उस ज्ञान से जोडि़ए, जिस ज्ञान को आपने प्राप्त कर लिया है। जब हम संस्कृत पढ़ते थे, तो बोलते थे कि हम लगा रहे हैं पाठ। जो पढ़ा है, उसे दूसरों से पूछना, दूसरों को सुनाना और अपनी समझ को परिपक्व बनाते थे। 
आज अनेक लोग अपनी नोट बुक दूसरों को नहीं देते हैं। कोशिश करते हैं कि केवल हमें समझ में आए, दूसरों को नहीं आए, तो कब राष्ट्र का विकास होगा, कब मानवता का विकास होगा? हर कोई यही सिद्ध करने में लगा है कि हमने ही सबकुछ किया, हमारे ही प्रयास से देश में हमारी पार्टी जीती है। हमारे ही प्रयास से यह प्रांत चला और हमने खूब पैसा कमाया, हमारे ही प्रयास से इस परिवार को सुयश प्राप्त हुआ। हर आदमी जीवन के जो लाभ हैं, उन्हें अपने कृतित्व और अपने संकल्प और अपनी चेष्टा के साथ जोडक़र अपने वर्तमान जीवन को, अपने भविष्य को कुंठित कर देता है। 
शुरू से ही शिक्षा दी जाए कि आपने ही सबकुछ नहीं किया, दूसरों ने भी किया है। सीखना चाहिए - रघुवंश के विकास से। रघुवंश के उत्कर्ष का, उसकी अत्यंत विशिष्टता का यही कारण था कि रघुवंशियों का कोई जोड़ नहीं था। राम जी जब वन विहार के लिए भी जाते थे, तो सभी मित्रों को यशस्वी बनाते हैं कि मैंने ही नहीं मारा, सभी लोगों ने मिलकर मारा है। सभी लोगों की सहायता से ही ऐसा हो पाया, आप सभी नहीं होते, तो ऐसा नहीं हो पाता। 
क्रमश:

Friday, 19 October 2018


श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ६ 
अब यह बहुत बड़ा प्रदूषण हो गया है, शुरू से ही चोरी से खाकर, चोरी से देखकर चोरी से जाकर, दूसरों को छोडक़र संपूर्ण जीवन को जीने की प्रक्रिया बनती जा रही है, जिसके कारण समाज टूट रहा है। समाज गंदा हो रहा है, उसके उपयोगी संगठन टूटे रहे हैं। इस बात की शिक्षा जैसे राम जी ने पिता दशरथ जी को दी, ठीक उसी तरह से भाई भरत जी को भी दी। अयोध्यावासियों और संसार को संदेश दिया कि बांटकर खाओ।
एक दिन हमारे एक भक्त ने बतलाया, जो पुलिस की सेवा में हैं, कि मैं एक दिन रसगुल्ले लाया और पत्नी से कहा, ‘सबको दीजिए एक-एक रसगुल्ला।’ सभी लोग हैं परिवार में, बड़ा परिवार है। तीन भाइयों का परिवार है, किन्तु उनकी पत्नी ने अपने बेटे को दो रसगुल्ले दे दिए और बाकी सबको एक-एक दिया। पति का इतना पवित्र जीवन है कि लोग चर्चा करते हैं। अब वे पुलिस सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं, अद्भुत प्रेरक है उनका जीवन। उनका नाम है देवेन्द्र राय। देवेन्द्र राय ने पत्नी को बुलाया और पूछा, ‘आपको अपने बेटे को महामानव बनाना है या राक्षस बनाना है?’ 
पत्नी ने पूछा, ‘आप ये क्या पूछ रहे हैं? ये क्या बात हुई?’
देवेन्द्र राय ने कहा, ‘जब मै खरीद कर लाया हूं और मैंने ही कहा कि सभी को एक-एक रसगुल्ला दिया जाए, तो आपने अपने बेटे को दो रसगुल्ला देकर उसे क्या बनाया?’ 
उसकी मां ही चोरी कर रही है, पक्षपात कर रही है, तो फिर क्या होगा? एक अतिरिक्त रसगुल्ला ज्ञान बढ़ा देगा क्या, उसके पुण्य को बढ़ा देगा क्या, बेटे को पहलवान बना देगा क्या, उसका भाग्य बना देगा क्या? एक अतिरिक्त रसगुल्ला जीवन को कौन-सी विशिष्ट विधा में पारंगत बना देगा। आपकी यह पक्षतापी बुद्धि, आपकी यह चोरी की बुद्धि, आपकी यह धृतराष्ट्र वाली बुद्धि आपको भी राक्षस बना देगी और आपके बेटे को भी बना देगी। 
ऐसे उन्होंने अपनी पत्नी को झंकझोरा कि दुबारा वो पक्षपात नहीं कर सकीं। आज उनके दोनों बेटे जीवन में सबके लिए काम कर रहे हैं, वो अनुकरणीय हैं। निश्चित रूप से पिता की शिक्षा का प्रभाव है। 
परिपालन की राम जी की पद्धति है, उसके माध्यम से मैं बताना चाहता हूं कि प्रारंभ से ही बहुत बड़ी दृष्टि वाला होकर, जीवन के उपयोग को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के बड़प्पन को साबित करने का संकल्प लेना चाहिए कि सदैव बांटकर खाना है। मुंह के समान बांटकर खाना है। 
जबकि आज शिक्षा ये हो रही कि कैसे छिपाकर अपने बेटे को बहुत-बहुत दे दें। मोक्ष की जो अवस्था है, उसमें कहा जाता है कि भोगे साम्यम्। भगवान सबकुछ अपने बराबर कर देते हैं। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा नौकरों को खिलाएगा। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा सबको पहनाएगा? 
एक हमारे भक्त हैं, बहुत अच्छा जीवन है उनका हीरे की दुनिया में। लगभग ६००० कर्मचारी उनकी फेक्ट्री में काम करते हैं। मेरे संपर्क में पूरे विश्व में उनके जैसा कोई नहीं है - गोविंदभाई ढोलकिया। उनका नियम है कि वो अपने व्यापार में कोई गलत काम नहीं करते हैं। पांच से छह लाख रुपये रोज सफेद धन दान करते हैं। ये उनकी विशेषता है कि उनके यहां ६००० लोगों का भोजन साथ बनता है। वे और उनके सभी पार्टनर भी भोजन साथ करते हैं, एक ही भोजन सभी करते हैं और अलग से किसी को विशेष कुछ नहीं मिलता। एक हरी मिर्च भी किसी को अलग से विशेष रूप से नहीं मिलती है। ऐसे-ऐसे लोग काम करते हैं उनके यहां, जिनकी लाखों रुपए तनख्वाह है। खूब प्रतिष्ठा है, किन्तु सभी एक समान भोजन करते हैं। 
अभी तो कई लोग इसीलिए कमा रहे हैं कि अलग से खाएं, दूसरों से अलग पहनें, दूसरों से अलग घूमें, दूसरों से अलग आनंद करें, दूसरों से अलग जीवन जीएं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कैसे वो वस्त्र पहनेंगे, जो गरीब पहनते हैं। लोग लगे हैं कि हमारा सबकुछ अलग हो, खाना-पीना, रहना, आभूषण अलग हो, तभी तो हमारे कमाने की सार्थकता है, जबकि वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी होगी, जब हम बांटकर खाएंगे। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ५ 
बच्चों को बांटकर खाने की आदत हो। उसका व्याख्यान, उसका प्रयोग और उसका हर दृष्टि से विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि हम बांट करके खाएं। इसलिए जो मोक्ष का बड़ा स्वरूप है, उसका यही अर्थ है कि भोग में साम्यता होती है। अपने प्रयास से जब जीव मुक्त हो जाता है, तो वह भगवान के बराबर हो जाता है, उसका रूप और उसकी आवाज, इत्यादि सब भगवान स्वरूप हो जाता है। इतना ही नहीं, उसका भोग भी भगवान जैसा हो जाता है। भगवान अपने धाम में जो ग्रहण करते हैं, वही सभी मुक्त जीवों को भी मिलता है। तो भोजन की जो समानता है, भोग की जो समानता, वो बच्चों को शुरू से ही देना चाहिए, जबकि परिवारों में अब बड़ी विकृति आ रही है कि जो ज्यादा कमाने वाले सदस्य हैं, वो अपने बच्चों को ज्यादा खिला देते हैं, कपड़ा भी अलग से, उनकी देख-रेख भी अलग से करते हैं। जो घर में काम या सेवा करने वाले सेवक हैं, उनका भी भोजन अलग कर देते हैं। कई परिवारों में भोजन भी अलग-अलग पकने लगता है। ये जो पद्धति है, नहीं बांटकर खाने वाली, भोजन की समानता से दूर रहने वाली और छिपाकर-छिपकर खाने वाली, ये हमारे जीवन को कभी सार्वभौम स्वरूप नहीं दे पाती। वो उस स्वरूप को नहीं देती, जिसको देखकर मानवता गदगद हो जाए, शरीर तृप्त हो जाए और उसका सौंदर्य भी बढ़ जाए, उसकी व्यापकता बढ़ जाए। 
हमारे बच्चों के प्रशिक्षण की बड़ी अद्भुत बात है। हम सब लोगों को ये ध्यान रखना चाहिए कि जब हम बच्चों को खुशी दें, भोजन, कपड़ा, सम्मान, स्नेह दें, शिक्षा दें, तो उसमें ध्यान रखा जाए कि उसके साथ समानता का व्यवहार हो, उससे उसे उचित संदेश मिले। उसे कहा भी जाए कि बांट करके खाना चाहिए और बांटकर जो खाता है, वही बड़ा मनुष्य होता है। अकेले में नहीं खाना चाहिए। 
इसी अभिप्राय में दान की भी महिमा है, आप कमाए हैं, तो दीजिए दूसरों को। महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है कि जब भरत जी गए राम जी को मनाने के लिए तब राम जी से कहा कि भरत ये तो बतलाओ आपका चेहरा म्लान क्यों है, मुरझाया हुआ है, चेहरा क्यों दिव्य नहीं है, उसकी रशमियां क्यों ओझल हो रही हैं, ये क्या मामला है? राम जी ने कई तरह के प्रश्न किए। ये वाल्मीकि रामायण में है। राम जी ने भरत जी से पूछा, कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपके यहां गायों की सेवा बंद हो गई हो। ऐसा तो नहीं कि आपके यहां वेद ध्वनि नहीं हो रही हो, यज्ञ नहीं हो रहे हों? ऐसा तो नहीं है कि आप भगवान और माता-पिता का आदर नहीं कर रहे, ब्राह्मण का आदर नहीं कर रहे, गायों का नहीं कर रहे? अनेक ऐसे प्रश्न वाल्मीकि रामायण में वर्णित हैं, जो राम जी ने भरत जी की म्लानता को लेकर शंका की थी, उन्होंने अंत में यह भी पूछा था कि ऐसा तो नहीं है कि तुम कहीं अकेले ही तो नहीं खाते हो। 
बांटकर नहीं खाने से भी चेहरा म्लान होता है। बांटकर के खाना चाहिए, नहीं तो कभी भी मनुष्यता विकसित नहीं होती, वरदान नहीं बन पाती, प्रेरक नहीं बन पाती। 
वाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग को तुलसीदास जी ने तुरंत ले लिया और बड़े ही मनोरम ढंग से प्रस्तुत किया। राम जी चरण पादुका देकर भरत जी को विदा कर रहे हैं। तुलसीदास जी ने लिखा है कि भरत जी सोच रहे थे, चरण पादुका तो मिल गई, किन्तु वे चिंतित थे कि चरण पादुका को राजा बनाकर १४ वर्षों तक कैसे रहूंगा। भगवान ने चरण पादुका तो दे दिया, लेकिन चरण पादुका रखने से ही राज्य की सेवा कैसे की जाएगी। १४ वर्षों तक चरण पादुका जी को राजा मानकर, उन्हीं से आज्ञा लेकर भरत जी ने राम राज्य की नींव रखी। राम राज्य की सेवा की और खूब-खूब यशस्वी और कारगर राज्य विकसित किया। भरत जी इस बात के लिए सूत्र चाहते थे। भरत जी चरण पदुका को अत्यंत आदर के साथ सिर पर धारण करके राम जी के चरणों में ध्यान लगाए हुए थे कि अब भइया, हमें बतलाएंगे कि वो क्या सूत्र है। राम राज्य का सूत्र केवल सेना नहीं, बड़े-बड़े हथियार और तमाम तरह की गाडिय़ां नहीं, और तमाम तरह के जीतने के, सुयश के जो संसाधन होते हैं, वो नहीं हैं। रामराज्य तभी स्थापित होगा, जब हम बांटकर खाएंगे। हम भोजन में समानता का परिचय देंगे, तो वहां तुलसीदास जी ने एक चौपाई लिख दिया कि मुखिया को कैसा होना चाहिए, मुखिया जो परिवार का बड़ा है, अपने संस्थान का बड़ा है। तो उसके लिए वाल्मीकि रामायण से प्रेरित चौपाई है। रामजी ने सूत्र दिया कि यदि तुम्हें रामराज्य स्थापित करना है, यदि तुम्हें यशस्वी राजा बनना है, तो चरण पादुका के माध्यम से, सेवा के माध्यम से, तो इसको ध्यान में रखो - 
मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुं एक।
पालइ-पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।
मुखिया को मुख के समान होना चाहिए। जैसे मुख खाता है, जिससे पोषक सामग्री शरीर के भीतर जाती है और उससे जो ऊर्जा मिलती है, रक्त बनता है, तमाम तरह के पोषक तत्व बनते हैं, तो सारे पोषक तत्व मुंह में नहीं आ जाते। जिस अंग को जितनी जरूरत है, बिना भेदभाव किए, बिना विषमता किए, सभी अंगों को आवश्यकता अनुरूप शक्ति-पोषकता प्राप्त होती है। सारा पोषक तत्व केवल मुंह ही रखने लगे, तो मुंह इतना बड़ा हो जाएगा, राक्षस जैसा दिखने लगेगा, भयावह हो जाएगा। हमें यह उपदेश बार-बार देना चाहिए कि बच्चे बांटकर खाना खाएं, सभी तो अपने भाई हैं, सभी तो अपने परिवार के लोग हैं, सबके साथ खेलते हो, तो खाओ बांटकर, तो हमारा जीवन वरदान हो जाएगा - अपने लिए, अपने परिवार के लिए, अपनी जाति के लिए और अपने राष्ट्र के लिए, संपूर्ण मानवता के लिए। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ४ 
हमें भोग के रूप में उसे नहीं लेना है। केवल शरीर बढ़ाना है, सुंदरता बढ़ाना है, इसके लिए नहीं लेना है। हमें भोजन भगवान के जूठे के रूप में लेना है। इससे संपूर्ण जीवन धीरे-धीरे यज्ञ से जुड़ जाएगा, वह कभी भोगी नहीं होगा। वह भगवान का जूठा ग्रहण करके परममानव ही रहेगा, उसकी तमाम बुरी आदतें समाप्त हो जाएंगी।
तो पिता राम जी को बुला रहे हैं, रामचरितमानस में लिखा है तुलसीदास जी ने - भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा। 
भोजन के लिए दशरथ जी बुला रहे हैं, किन्तु अपने साथियों को छोडक़र राम जी आ नहीं रहे हैं। बाल मित्रों के साथ मिलकर अपने आनंद को बढ़ा रहे हैं, उनके साथ मिलकर वे अपने शरीर की, स्वास्थ्य की तमाम गतिविधियों को मजबूत बना रहे हैं। साथियों को छोडक़र नहीं आ रहे हैं। जो राम मर्यादा के, संस्कारों के आदर्श हैं, वे देवता के तुल्य पिता की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं। ये तो बहुत गलत है, ऐसा कैसे कर रहे हैं, यहां तक कि कौशल्या जी को कहा कि बुलाकर लाइए। कौशल्या जी जब जाती हैं, तो राम जी कभी भाग जाते हैं, कभी ओझल हो जाते हैं। तो इस बात को देखा राम जी ने बहुत देर तक कि पिता जी बुला रहे हैं, तो फिर आ गए। शरीर पर धूली लगी हुई है। सारा बाहर-भीतर ऊपर-नीचे धूल कण लिपटे हुए हैं।
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, हर आदमी को धूल में लेटने का अभ्यास करना चाहिए, तब उसे लगेगा कि स्वाभाविक जीवन क्या है, पृथ्वी से जुड़ा हुआ जीवन क्या है। अभी हर आदमी हवाई जहाज वाली यात्रा करके बड़ा होना चाहता है। पृथ्वी से ही सभी अन्न निकलते हैं, तमाम औषधियां निकलती हैं। जीवन निर्वाह के सभी साधन निकलते हैं, किन्तु धूल-मिट्टी से ही हम जुड़े रहना नहीं चाहते हैं।  मुख पर पाउडर तो हम लगाना चाहते हैं, इत्र हम लगाना चाहते हैं, जबकि हमारे शरीर में पृथ्वी तत्व की प्रधानता है। पृथ्वी से हमें सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।
लिखा तुलसीदास जी ने - 
धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।
राजकीय वैभव होने के बावजूद भगवान का शरीर धूल से सना हुआ है और ऐसे ही रूप में राम जी अपने पिता दशरथ जी की गोद में बैठ जाते हैं। दशरथ जी ने भी परहेज नहीं किया कि उनके कपड़े गंदे हैं, हाथ गंदे हैं और बैठाकर खाना खिलाने लगे। किन्तु राम जी का मन वहीं अपने साथियों में लगा हुआ है। वे बार-बार अपने साथियों को देखते हैं और ये समझने की बात है कि भले ही वे अत्यंत समृद्ध और यशस्वी वंश के भूपति दशरथ जी के गोद में बैठकर भोजन कर रहे हैं, ऐसे दशरथ जी, जिन्हें आगे बढक़र इंद्र भी सम्मान देते थे, स्थान देते थे। वैसे पिता राजा की गोद में बैठकर भी राम जी का चित्त साथियों और खेल में लगा हुआ है और वे राजा की गोद से भाग जाते हैं। राम जी भोजन करते हुए दौडक़र चले जाते हैं, दूध-दही मुंह में लगा हुआ है। 
इस शिक्षा का एक बड़ा संकेत है, जो हमें बच्चों को सिखाना चाहिए, जो संपूर्ण संसार के बच्चों के लिए मनुष्यों को माता-पिता को, संरक्षकों-अभिभावकों को कि राम जी का संकेत है कि जो आदमी अकेले खाता है समुदाय को छोडक़र, अपनों को छोडक़र, वह कभी भी बड़ा मनुष्य नहीं हो पाता, वह कभी भी ऋषित्व, संतत्व, कभी देवत्व को, कभी इस संसार के लिए प्रेरक स्थान को प्राप्त नहीं कर सकेगा। मनुष्य जीवन का चरम है - कभी अकेले नहीं खाना, जब खाना बांटकर खाना। 
आज बहुत बड़ी विडंबना है। आज समाज टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं, परिवार टूट रहे हैं, पार्टियां टूट रही हैं, देश विखंडित हो रहे हैं, तो इसका मूल कारण है अकेले भोग की भावना। अकेले सुसज्जित होने की भावना, अकेले सम्मानित होने की भावना। इसलिए संतों ने, अपने शास्त्रों ने कहा कि बांट करके खाइए। राम जी यही संकेत कर रहे हैं कि पिता जी आप बहुत अच्छे हैं, रघुवंश के शिरोमणि हैं। आपको खूब-खूब पुण्य प्राप्त है, तभी तो मैं आपके घर आया और पिता-माता के रूप में आपको स्वीकार किया, किन्तु इसमें यह अभी जोडऩे की बात है कि केवल राम को खिलाकर आपको ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होगा, वह तो सबको खिलाकर ही होगा। राम बनने के लिए आपको आवश्यक है आप भी भोजन में समदर्शिता और सर्वव्यापकता अर्जित करें, तो अच्छा होगा। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ३ 
हम सभी लोगों को सत्य बोलना चाहिए। वेद वाक्य है सत्यम् वद। यह ज्ञान ज्ञात है कि सत्य बोलना चाहिए, किन्तु हम असत्य ही बोलते हैं। हम डरते नहीं कि झूठ गलत है, झूठ विकास नहीं होने देगा, झूठ हमें ऋषि नहीं बनाएगा, महामानव नहीं बनाएगा, देवता नहीं बनाएगा। झूठ जीवन में कभी भी संपूर्णता नहीं आने देगा। यह हम ध्यान नहीं रखते। तो मेरा अपनी परंपरा व अपने सनातन धर्म के अनुसार यह कहना है कि परंपरा से प्राप्त जो मानव जीवन की सार्थकता के जो विशिष्ट साधन हैं, हम उन बातों को कहें बच्चों को, जो सच हैं और बार-बार कहें। आप उन बातों पर ध्यान दें, जो आपको सर्वश्रेष्ठ जीवन प्राप्त होगा। अभी आपको और विकास करना है, धीरे-धीरे ऋषित्व को प्राप्त करना है, देवत्व को प्राप्त करना है। यह पहला ज्ञान होगा।
फिर बार-बार उसको कहा जाए, तो बच्चे का ज्ञान परिपक्व होगा। बार-बार कहा जाएगा, तभी बच्चे को यह लगेगा कि मम्मी-पापा, परिवार के सभी लोग कह रहे हैं कि तुम्हें बड़ा मनुष्य बनना है, तुम्हें अपने समाज के लिए, संपूर्ण संसार के लिए, स्वयं अपने लिए बड़ा मनुष्य बनना है, सबसे विशिष्ट बनना है। बच्चा जब ये जान लेगा, तब उसका ज्ञान दूसरी अवस्था में आएगा। बार-बार पकाने से ज्ञान हमारे चरित्र में उतरेगा। फिर उसको बतलाया जाए कि आपको ये बात दूसरों को भी बतलानी है। जो अच्छा सीख लिया, वह दूसरों को भी सिखाओ। 
ये शिक्षाएं लोग शुरू से देते हैं। लोग कहते हैं कि बेटा झूठ नहीं बोलना चाहिए, बड़ों का आदर करना चाहिए, किन्तु इसके लिए जितना अभ्यास करवाना चाहिए, उसमें कमी हो जाती है। कैसे विचारों को परिपक्व बनाना है। अभ्यास आवश्यक है, पहले स्वयं में उसे परिपक्व बनाना और उसके बाद दूसरों को चरित्रवान बनाना। ये जो प्रकिया है, उससे बच्चों को अनेक माता-पिता, संत-महात्मा भी नहीं जोड़ते हैं। बच्चों को केवल सुना दिया जाता है, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, हिंसा नहीं करना, बड़ों का अपमान नहीं करना, अनावश्यक अपनी शक्ति को समाप्त नहीं करना। तमाम जो विषमताएं हैं - जैसे अधिक खाना, अधिक सोना, कहीं भी घूमना, कहीं भी देखना - ये समाप्त नहीं हो पाती हैं। सुधार के लिए, सच्ची शिक्षा के लिए ज्ञान को परिपक्व बनाना होगा, चरित्र में उतारना होगा। बच्चा जब यह जान जाएगा, तो वह स्वयं करने लगेगा। इसके बाद दूसरों को बताने लगेगा। बच्चों को कहिए कि आप अपने छोटे भाई-बहन को बताओ, बड़ों को बताओ, औरों को भी बताओ। 
इस क्रम में अपनी परंपरा में अनेक आदर्श उदाहरण हैं। तमाम चरित्रों का वर्णन है। चाहे ऋषियों का हो, संतों का हो, राजाओं का हो, आचार्यों का हो या ईश्वर का हो, इसमें सर्वश्रेष्ठ रूप से राम चरित्र को महत्व दिया जाता है। राम चरित्र निर्विवाद चरित्र है, सबसे बड़ा चरित्र है। और भगवान की दया से लोगों के लिए अनुकरणीय चरित्र है। आदर्श रूप है। उस चरित्र की कल्पना, उस तरह के चरित्र का वर्णन और उसका जो सारा स्वरूप है, वह कहीं भी दूसरी जगह प्राप्त नहीं है। राम जी का जो काल है, ११ हजार वर्षों का है, कहीं जिक्र मिलता है कि ३३ हजार वर्ष का है। राम जी संपूर्ण सृष्टि के लोगों के लिए प्रेरक हैं। उनका चरित्र, चिंतन, व्यवहार कैसे तैयार हुआ, इससे अच्छा उदाहरण किसी और चरित्र में कैसे मिलेगा। तो राम जी को एक उदाहरण के लिए लिया जा सकता है कि राम जी के जन्म के बाद उनके गुरु वशिष्ठ, जो अद्भुत ज्ञानशाली, उस वंश के परम संरक्षक, ऋषित्व से परिपूर्ण थे, रघुकुल के शुभचिंतक थे, वे राम जी के समस्त संस्कारों को पूर्ण करवाते हैं। राम जी के सभी भाइयों का संस्कार साथ होता है। 
एक उदाहरण है, जब भगवान अपने साथियों के साथ खेलने में लगे हुए हैं। छोटी आयु में खेलने का बड़ा महत्व रहता है। मनोरंजन भी हो रहा है, शरीर का व्यायाम भी हो रहा है। शरीर के शौष्ठव संपादन की व्यवस्था हो रही है, यह बड़ी प्रेरक, आनंददायक और जीवन को आनंदित करने वाली बेला है। और तब पिता राजा दशरथ जी राम जी को बुला रहे हैं कि आइए भोजन कीजिए। 
रामायण के निर्माताओं ने यहां यह नहीं लिखा कि दशरथ जी सभी साथियों को बुला रहे हैं। कहा गया कि राजा दशरथ भोजन कर रहे हैं, तो भोजन के अपने अवसर पर राम जी को बुलाया। आओ राघव भोजन करो हमारे साथ। आध्यात्मिक परंपरा में जो भूख मिटाने की जो प्रक्रिया है, उसमें यह नहीं कहते कि आइए भोजन करना है। कहते हैं, आइए भगवान का प्रसाद ले लें। इसका भी हमें अभ्यास करना चाहिए, यह सुन-सुनकर जब बच्चा बड़ा होगा, तो उसे लगेगा कि संसार में सबकुछ ईश्वर का बनाया हुआ है। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - २ 
हमें बच्चे को केवल आयु नहीं देना है, केवल उसे बड़ा ही नहीं करना है। उसे उन सभी संस्कारों को देना है, जिनके आधार पर वह अपने लिए और अपने परिवार के लिए और संपूर्ण संसार, मानवता के लिए सहयोगी बने। बलवान हो, विद्वान हो और सार्थकता-सुंदरता बढ़ाने में कारगर हो, इसलिए मनमानी नहीं करके हमें परंपरागत प्राप्त जो संस्कार हैं, जो शिक्षा के स्वरूप हैं, जो ज्ञान के स्वरूप हैं, जो प्रामाणिक हैं और जो हमें दिव्य दृष्टियों से सम्पन्न ऋषियों, आचार्यों, गुरुओं से प्राप्त हैं और उनका मूल वेद, शास्त्र हों, जिनका कोई जोड़ नहीं है और जो वस्तुत: सभी दृष्टि से निर्विवाद, प्रामाणिक और कारगर हैं। इसकी बड़ी आवश्यकता है कि हम उससे शिक्षित हों। हम उदाहरणों, इतिहासों, विचारों से बच्चे को शिक्षा दें, चाहे वो शब्द ज्ञान की शिक्षा हो, वाक्य ज्ञान की शिक्षा हो। बोलने-बैठने की शिक्षा हो, वो सब प्रामाणिक रूप से होनी चाहिए और उसमें कहीं से भी दिखावटी-मिलावटी काम नहीं हो। ऐसा नहीं हो कि केवल कल्पनाओं के आधार पर शिक्षित किया जाए। ऐसा नहीं हो कि जहां-तहां से अनुकरण कर ली गई शिक्षा हो। शिक्षा का ऐसा आधार होना चाहिए, जो बहुत-बहुत वर्षों से चला आ रहा है। वह शिक्षा दी जाए, जो बहुत-बहुत वर्षों से शिष्ट-श्रेष्ठ जीवन तैयार करने में प्रामाणिक हो चुकी है, मान्य हो चुकी है। इसके लिए आवश्यक है कि हम जो बतलाएं, वो प्रामाणिक हो, मनमानी नहीं हो। आज की बड़ी विडंबना है कि पूरे संसार में अधिकांश लोग मनमानी संस्कारों के आधार पर बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं, सयाना कर रहे हैं। जो बच्चों को मनुष्य नहीं बनाकर, महामानव नहीं बनाकर, ऋषित्व नहीं देकर, देवत्व नहीं देकर, सृष्टि के लिए वरदान नहीं बनाकर उन्हें पाश्विक जीवन, राक्षसी जीवन, आतंकवादी जीवन, भोगी जीवन दे देते हैं। 
हमें एक तो सबसे पहले बच्चों को ये बताना जरूरी है कि ये जो जीवन आपको मिला है, वो बहुत ही महत्वपूर्ण जीवन है। लोग अपने बच्चों से कहते हैं कि आपको प्रधानमंत्री बनना है, आपको राजा बनना है, सबसे बड़ा एक्टर बनना है, सबसे बड़ा क्रिकेटर बनना है, आपको सबसे ज्यादा धनवान बनना है। लोग ये बातें बच्चों को सिखलाते हैं, जैसे जीवन का सब कुछ वहीं है। जब हम प्राचीन परंपरा को ध्यान में रखकर बात करते हैं, तो जो बात निकलती है, वह है - आपको सर्वश्रेष्ठ मनुष्य बनना है। मनुष्य जीवन सबसे सर्वश्रेष्ठ जीवन है। उसके अनुकूल हमें स्वयं का विकास करके मनुष्य का जीवन प्राप्त हो। जैसे लंका में बोलते हैं कि उस राक्षस की आकृति मनुष्यों की तरह थी। वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि राम जी की सेना में मात्र सात मनुष्य थे। राम जी, लक्ष्मण जी, विभीषण जी, और विभीषण जी के साथ आए हुए चार अन्य सहयोगी-अनुयायी, जो उनके मंत्री थे। तो आकृति हमारी मनुष्य की हो और हमारा संपूर्ण ज्ञान और क्रिया अनियंत्रित हो, अमर्यादित हो, मनमानी हो, तो हमें वो राक्षस बना देती है, जैसे लंका के लोगों को बना दिया। इसलिए आज भी व्यवहार देखकर किसी को कहा जाता है कि ये दिखता तो मनुष्य है, किन्तु प्रवृत्तियां तो राक्षस जैसी हैं, इसमें कहीं से भी मनुष्यता नहीं है।
अत: बच्चों को पहली शिक्षा यही दी जाए कि मनुष्य जीवन की जो अपूर्वता है, मनुष्य जीवन की जो विशेषता है, अन्य जीवनों से बड़ा जो इसका स्वरूप है, यह सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है। अतुलनीय स्वरूप है, इस बात को बतलाकर हमें आगे बढऩा है। हमें ये नहीं कहना है कि आपको ये या वो करना है, आपको वस्तुत: मनुष्य बनना है। आपको मनुष्य का सही स्वरूप प्राप्त करना है। तब हम मनुष्य से धीरे-धीरे श्रेष्ठ होते हुए ऋषित्व को प्राप्त करेंगे। मनुष्य से देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं। उस पद या अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं, जैसे इतिहास में वर्णित संत जन, ऋषि जन, राजा जन और तमाम समाज के लिए वरदान समाज उद्धारक लोग हुए हैं। वैसे ही बच्चों को मनुष्य जीवन की महिमा और उसकी विशेषता, श्रेष्ठता, मनुष्यता को बढ़ाने वाले संस्कारों को देने की आवश्यकता है। इस देश के ऋषियों ने पूरे संसार को चरित्र की शिक्षा दी है, ऐसा मनु ने लिखा है, जिनकी वाणी को ईश्वर की समकक्षता प्राप्त है। मनु ने कहा है कि हमारे लोग केवल ज्ञान-विज्ञान को याद करके धन्य नहीं होते थे। ऐसा नहीं कि किसी बात को हमने कहीं से सीखा-सुना और बोलने लग गए। ज्ञान जब प्राप्त होता है, तो उसकी पहली अवस्था बचपना की अवस्था होती है। अपरिपक्व अवस्था, कच्ची व्यवस्था होती है। ज्ञान पका हुआ नहीं होता, इसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं। फिर ज्ञान पकता है, उसको अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं। फिर वो हमारे चरित्र में उतरता है। फिर हम दूसरों को भी उस ज्ञान से और उसके दोनों स्वरूपों से जोड़ते हैं और अपने चरित्र, व्यवहार से प्रेरित करते हैं। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

(श्रीराम का बचपन और मानव होने का व्यावहारिक प्रशिक्षण)
(जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्य जी के प्रवचन से)
संसार के सभी मनुष्य भगवान की विशेष कृपा और अपने जन्मजन्मांतरों के पुण्यों के फलस्वरूप ही मनुष्य जीवन को प्राप्त करते हैं, यही अपना वैदिक सिद्धांत है। मनुष्य जीवन से बड़ा उत्पादन, बड़ा सृजन इस सृष्टि में ईश्वर का और कुछ नहीं है। जो संपूर्ण संसार है, मनुष्य के लिए ही है, चाहे वो पृथ्वी हो, जल हो, थल हो, तो हमें इतना अच्छा जीवन मिला है, इस जीवन का अधिक से अधिक उत्तम से उत्मोत्तम उपयोग हो। मनुष्य केवल अपने लिए भी सुखदायी, अपने लिए ही स्थायी और अपने लिए ही सुंदर, मजबूत और हर दृष्टि से संपन्न न हो, वो दूसरों के लिए भी काम का हो, दूसरों के लिए भी समृद्धि व ऐश्वर्य जीवन में बढ़ाने वाला हो, इसके लिए बाल्यावस्था से ही बच्चों को कैसे तैयार किया जाए। यह मुख्य विषय है।
यह केवल भारतवर्ष में ही नहीं, संपूर्ण संसार के मनुष्यों के जो शिशु हैं, उनके जात हैं और उनके जो वंश के दीपक हैं, वंशवद्र्धक हैं, वंश-रक्षक हैं, तो उनको कैसे तैयार किया जाए, जिससे वो परिपूर्ण जीवन को प्राप्त करें, जिसे वो सुंदर जीवन को, संतुष्ट जीवन को, वरदान जीवन को प्राप्त करें। इसकी चर्चा को हम और आगे बढ़ाते हुए विस्तार देंगे। 
असल में ज्ञान भी जीव का स्वरूप ही है। जैसे ईश्वर ज्ञान की राशि है, ज्ञान का सागर है, ज्ञान उससे ज्यादा हो ही नहीं सकता, इसलिए उसको सर्वज्ञ कहते हैं। वह पूरे संसार को सामान्य रूप से भी जानता है और विशेष रूप से भी जानता है। तो जीव भी ज्ञान स्वरूप है। चैतन्य स्वरूप है, जीव भी ज्ञान का अंग है, किन्तु हमारा ज्ञान छोटा है। बच्चे जो उत्पन्न होते हैं मनुष्य परिवार में, तो मनुष्य माता-पिता की गोद में, आंगन में, तो उनका ज्ञान बहुत छोटा होता है। सभी तरह का ज्ञान छोटा होता है। अब ये अलग बात है कि पिछले जन्म का बहुत बड़ा संस्कार हो, साथ आ रहा हो, तो कुछ विशेष लोगों का जन्म लेते ही ज्ञान बहुत बड़ा हो जाता है, किन्तु सामान्य लोगों को ज्ञान को बढ़ाना पड़ता है। ज्ञान के संवर्धन की जो पद्धति है, ज्ञान के विकास का जो क्रम है, वो कैसे ऐसा किया जाए कि जिससे ज्ञान आदमी को हो। ज्ञान सभी व्यवहारों का कारण है। कोई भी व्यवहार ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। चाहे वो बैठने का हो, चाहे वो खाने का हो, कमाने का हो, चाहे वो शरीर के विकास का हो, चाहे वो धन के विकास का हो, चाहे वो सम्मान के विकास का हो, कोई भी व्यवहार होगा, तो ज्ञान उसका मूल सहयोगी होगा। मूल उत्पादक होगा, इसलिए दर्शनशास्त्र में पढ़ाया जाता है कि जो सभी व्यवहारों का कारण हो और गुण भी हो, उसी को ज्ञान कहते हैं। 
जब हम ज्ञान अर्जित करने के लिए विद्यालय में बच्चों को भेजते हैं। पहले तो बच्चे ५ से ६ वर्षों के हो जाते थे, तो विद्यालय में जाते थे। अब आयु सीमा में कमी आई, अब ३ वर्ष के बाद बच्चे विद्यालय जाने लगते हैं। ३ वर्षों का जो प्रारंभिक काल है, उसका बहुत महत्व है। प्राथमिक विद्यालय से पहले का जो सर्वप्रथम नींव रखने वाला विद्यालय है, वो परिवार का विद्यालय है। माता-पिता, दादा-दादी और जो परिजन हैं, उनका जो सान्निध्य है, उनका जो संरक्षण है, उनका जो अत्यंत ममत्व है परिपालन में, हर्ष विकास में, वो बहुत बड़ा विषय है। अत: पहला विद्यालय वह है, जहां हमने जन्म प्राप्त किया, जहां हमने जीवन प्राप्त किया, तो उस विद्यालय की बड़ी भूमिका है, जीवन को सफल बनाने वाली शिक्षा के क्रम में। उस शिक्षा से जुडक़र माता-पिता, परिवार के जो अन्य लोग हैं, उनको बच्चों को शिक्षित करना चाहिए।
क्रमश: