समापन भाग
कभी कभी बोलता था कि मैं पढऩे आया हूं, मुझे विद्वान बनना है। इसलिए बात टलती गई। गुरुजी और लोग इस बात की याद दिलाते रहे, धीरे-धीरे करते-कराते, मुझे साधु बना दिया। मेरे मन में नहीं थी, किन्तु बना दिया। मैंने कभी प्रार्थना नहीं की मुझे दीक्षा लेनी है, मुझे मठाधीश बनना है, मुझे महंत बनना है। मुझे कमरों का नहीं, धन का नहीं, ज्ञान का महंत बनना है।
याद दिला रहा हूं कि जब गुरुजी की चरण सेवा करता था, जो शिष्यों में परंपरा थी, परिवार में भी बहुएं सासू की, बच्चे माता-पिता की, जो पूरी परंपरा थी कि कैसे गुरु सेवा की जाती है। राम जी भी जब वशिष्ठ जी के साथ गए, तो लक्ष्मण जी के साथ उनकी सेवा करते थे। गुरु की भूमिका बहुत बड़ी है। उसके बदले हम कुछ नहीं दे सकते। कम से कम उसकी हरारत दूर करने के लिए हम प्रयास करें।
मैं जब सेवा करता, तब एक ही बात गुरुजी बोलते थे कि साधु को कभी घर नहीं जाना चाहिए। मैं तो पहले ही यह संकल्प करके आया था, किन्तु मेरे गुरुजी इस बात को बार-बार दोहराते थे। कभी विवाह नहीं करना चाहिए, जीवन काफी दुखदायी और संकीर्ण हो जाता है, दो-चार लोगों में ही व्यक्ति सिमट करके रह जाता है। जीवन के उद्देश्य सिमट जाते हैं।
गुरुजी बार-बार बोलते रहते थे, तब समझ में नहीं आता था, किन्तु बाद में मुझे समझ में आया, वे मेरे संस्कारों को दृढ़ बना रहे थे। बार-बार बोलने से ज्ञान परिपक्व होता है। इसी का परिणाम हुआ कि जहां जन्म भूमि का क्षेत्र है, वहां से निकलता हूं, तो कभी देखा भी नहीं कि कौन गांव है। विवाह के लिए कभी मन में नहीं आया।
ऐसे ही श्रेष्ठ मूल्यों को जो जीवन को कल्पवृक्ष जैसा बनाने वाले हैं, उन्हें बार-बार अभ्यास में डालकर चलना होगा। बताना होगा बार-बार कि आपको ऐसा होना है। तभी जीवन परिपक्व होगा। यही सनातन धर्म की परंपरा है और यही सबकी परंपरा होनी चाहिए। केवल कक्षा में पढ़ाई हो गई, पढ़ाने वाले का जीवन कहीं है, पाठ्यक्रम कहीं है, कोई परवाह नहीं है अध्यापकों को कि हमारे विद्यार्थी पर क्या प्रभाव होगा, कैसा इनका जीवन होगा, कैसा जीवन इनका हम बनाना चाहते हैं और हम कैसे हैं, कहां से हमें इनको प्रेरित करना है, हमें कितना इनको आगे बढ़ाना है। और न घर वालों को यह ध्यान में है, न अध्यापकों को ध्यान में है। न शिक्षण संस्थानों को, न नेताओं को यह ध्यान में है। हर आदमी को पड़ी है कि पैसा कैसे, भोग कैसे, इसलिए सबकुछ टूट रहा है। अब तो बेटा और बाप का रिश्ता टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं। जीवन मूल्यों के आधार पर जो जीवन पहले था, उन मूल्यों से जीवन को जोडऩा चाहिए। जागरूक होकर समझदारी से बच्चों को बार-बार बतलाया जाए। मैं कोशिश करता हूं मेरे संपर्क में जो बच्चे हैं, उन्हें समझाकर-बुझाकर, बार-बार याद दिलाकर, उदाहरण देकर, कि आपको क्या बनना है। मनुष्य जीवन की अपूर्वता को अनुभव करो, भारत भूमि की जो विशिष्टता है, उसे अनुभव करो।
सबसे अच्छा अन्न उत्पन्न करने वाली भूमि में कोई बाजरा लगाएगा क्या? जिस लायक है भूमि, उसे लगाएगा, पोषित करेगा। बबूल के बगीचे में कोई श्रेष्ठ आम का बीजारोपण करेगा क्या? ठीक इसी तरह से सनातन धर्म में जीवन की श्रेष्ठता को बतलाइए। और यह बतलाइए कि कौन-सी शिक्षा पानी है। जैसी शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी, घरों में दी जाती थी, उन लोगों को पैदा करती थी, जो संसार को सूर्य के समान प्रकाशित करते थे, स्वर्ग बना देते थे, दिव्य धाम बना देते थे। अपना भी जीवन और पूरे संसार का जीवन उनसे प्रकाशित होता था। वैसे ही हमें छोटी आयु से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। धीरे-धीरे होगा, एक दिन में ऐसा नहीं होगा। फिर देखिए कि श्रेष्ठ जीवन कैसे पुष्पित-पल्लवित होता है।
अभी बार-बार सुनाई पड़ता है, लोगों में राष्ट्रीयता नहीं है, मैं कहता हूं कि पारिवारिकता ही नहीं है। राष्ट्र तो बहुत बड़ा है, लोगों में जातीयता नहीं है। हमें कोई नहीं मिला, जो जातीयता के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हो। केवल अपने बच्चों के लिए लोग काम करते हैं, जीते हैं।
देखिए राम जी को अपने भी फलाहार कर रहे हैं और वानरों को भी कहा कि करो फलाहार। और कह रहे हैं, आप नहीं होते, तो मैं कैसे लड़ता। गुरु वशिष्ठ को भी आदर दे रहे हैं और वानरों को भी दे रहे हैं।
आज कोई किसी को श्रेय नहीं दे रहा है, हमने ही सबकुछ किया। मेरी विद्वता, मेरा सुयश हमने सब कर दिया। समाज कैसे आदर्श बनेगा? इसलिए इन सब बातों की शिक्षा, अनादि मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता है। इसी शिक्षा से ही रामराज्य का निर्माण हुआ था और होगा।
जय सियाराम
कभी कभी बोलता था कि मैं पढऩे आया हूं, मुझे विद्वान बनना है। इसलिए बात टलती गई। गुरुजी और लोग इस बात की याद दिलाते रहे, धीरे-धीरे करते-कराते, मुझे साधु बना दिया। मेरे मन में नहीं थी, किन्तु बना दिया। मैंने कभी प्रार्थना नहीं की मुझे दीक्षा लेनी है, मुझे मठाधीश बनना है, मुझे महंत बनना है। मुझे कमरों का नहीं, धन का नहीं, ज्ञान का महंत बनना है।
याद दिला रहा हूं कि जब गुरुजी की चरण सेवा करता था, जो शिष्यों में परंपरा थी, परिवार में भी बहुएं सासू की, बच्चे माता-पिता की, जो पूरी परंपरा थी कि कैसे गुरु सेवा की जाती है। राम जी भी जब वशिष्ठ जी के साथ गए, तो लक्ष्मण जी के साथ उनकी सेवा करते थे। गुरु की भूमिका बहुत बड़ी है। उसके बदले हम कुछ नहीं दे सकते। कम से कम उसकी हरारत दूर करने के लिए हम प्रयास करें।
मैं जब सेवा करता, तब एक ही बात गुरुजी बोलते थे कि साधु को कभी घर नहीं जाना चाहिए। मैं तो पहले ही यह संकल्प करके आया था, किन्तु मेरे गुरुजी इस बात को बार-बार दोहराते थे। कभी विवाह नहीं करना चाहिए, जीवन काफी दुखदायी और संकीर्ण हो जाता है, दो-चार लोगों में ही व्यक्ति सिमट करके रह जाता है। जीवन के उद्देश्य सिमट जाते हैं।
गुरुजी बार-बार बोलते रहते थे, तब समझ में नहीं आता था, किन्तु बाद में मुझे समझ में आया, वे मेरे संस्कारों को दृढ़ बना रहे थे। बार-बार बोलने से ज्ञान परिपक्व होता है। इसी का परिणाम हुआ कि जहां जन्म भूमि का क्षेत्र है, वहां से निकलता हूं, तो कभी देखा भी नहीं कि कौन गांव है। विवाह के लिए कभी मन में नहीं आया।
ऐसे ही श्रेष्ठ मूल्यों को जो जीवन को कल्पवृक्ष जैसा बनाने वाले हैं, उन्हें बार-बार अभ्यास में डालकर चलना होगा। बताना होगा बार-बार कि आपको ऐसा होना है। तभी जीवन परिपक्व होगा। यही सनातन धर्म की परंपरा है और यही सबकी परंपरा होनी चाहिए। केवल कक्षा में पढ़ाई हो गई, पढ़ाने वाले का जीवन कहीं है, पाठ्यक्रम कहीं है, कोई परवाह नहीं है अध्यापकों को कि हमारे विद्यार्थी पर क्या प्रभाव होगा, कैसा इनका जीवन होगा, कैसा जीवन इनका हम बनाना चाहते हैं और हम कैसे हैं, कहां से हमें इनको प्रेरित करना है, हमें कितना इनको आगे बढ़ाना है। और न घर वालों को यह ध्यान में है, न अध्यापकों को ध्यान में है। न शिक्षण संस्थानों को, न नेताओं को यह ध्यान में है। हर आदमी को पड़ी है कि पैसा कैसे, भोग कैसे, इसलिए सबकुछ टूट रहा है। अब तो बेटा और बाप का रिश्ता टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं। जीवन मूल्यों के आधार पर जो जीवन पहले था, उन मूल्यों से जीवन को जोडऩा चाहिए। जागरूक होकर समझदारी से बच्चों को बार-बार बतलाया जाए। मैं कोशिश करता हूं मेरे संपर्क में जो बच्चे हैं, उन्हें समझाकर-बुझाकर, बार-बार याद दिलाकर, उदाहरण देकर, कि आपको क्या बनना है। मनुष्य जीवन की अपूर्वता को अनुभव करो, भारत भूमि की जो विशिष्टता है, उसे अनुभव करो।
सबसे अच्छा अन्न उत्पन्न करने वाली भूमि में कोई बाजरा लगाएगा क्या? जिस लायक है भूमि, उसे लगाएगा, पोषित करेगा। बबूल के बगीचे में कोई श्रेष्ठ आम का बीजारोपण करेगा क्या? ठीक इसी तरह से सनातन धर्म में जीवन की श्रेष्ठता को बतलाइए। और यह बतलाइए कि कौन-सी शिक्षा पानी है। जैसी शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी, घरों में दी जाती थी, उन लोगों को पैदा करती थी, जो संसार को सूर्य के समान प्रकाशित करते थे, स्वर्ग बना देते थे, दिव्य धाम बना देते थे। अपना भी जीवन और पूरे संसार का जीवन उनसे प्रकाशित होता था। वैसे ही हमें छोटी आयु से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। धीरे-धीरे होगा, एक दिन में ऐसा नहीं होगा। फिर देखिए कि श्रेष्ठ जीवन कैसे पुष्पित-पल्लवित होता है।
अभी बार-बार सुनाई पड़ता है, लोगों में राष्ट्रीयता नहीं है, मैं कहता हूं कि पारिवारिकता ही नहीं है। राष्ट्र तो बहुत बड़ा है, लोगों में जातीयता नहीं है। हमें कोई नहीं मिला, जो जातीयता के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हो। केवल अपने बच्चों के लिए लोग काम करते हैं, जीते हैं।
देखिए राम जी को अपने भी फलाहार कर रहे हैं और वानरों को भी कहा कि करो फलाहार। और कह रहे हैं, आप नहीं होते, तो मैं कैसे लड़ता। गुरु वशिष्ठ को भी आदर दे रहे हैं और वानरों को भी दे रहे हैं।
आज कोई किसी को श्रेय नहीं दे रहा है, हमने ही सबकुछ किया। मेरी विद्वता, मेरा सुयश हमने सब कर दिया। समाज कैसे आदर्श बनेगा? इसलिए इन सब बातों की शिक्षा, अनादि मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता है। इसी शिक्षा से ही रामराज्य का निर्माण हुआ था और होगा।
जय सियाराम