Saturday 24 September 2016

मरा मरा से राम राम तक

भाग - २
कथा है, देवर्षि नारद को देखकर रत्नाकर टूट पड़े। देवर्षि नारद का जीवन दिव्य जीवन है, रोम-रोम से अद्भुत आभा प्रस्फुटित हो रही है। पूर्णत: निर्लिप्त जीवन है। डाकू रत्नाकर ने सोचा कि आज काफी कमाई होगी, ‘रुको जो भी है, दे दो, नहीं तो मार दूंगा।’
नारद जी ने कहा, ‘मेरे पास कुछ नहीं है, वीणा है और तन पर वस्त्र है, मेरे पास और क्या संपत्ति है?’ 
वाल्मीकि ने पूछा, ‘वीणा का क्या करते हो?’ 
देवर्षि ने उत्तर दिया, ‘वीणा बजाता हूं, ब्रह्मा जी ने प्रदान किया है, इस पर हरि कीर्तन करता हूं।’
‘हमें भी बजाकर सुनाओ।’
देवर्षि नारद से अच्छा वीणा कौन बजाएगा? वे तो ईश्वर को सुनाते हैं, सच्चे हृदय से बजाते हैं। संगीत भक्ति की ऊंचाइयों को प्राप्त होता है। वीणा की ध्वनि अनेक हृदयों को प्रभावित करती है। रत्नाकर को भी वीणा की ध्वनि ने प्रभावित किया, नरमी आई, रौद्र रूप में धीमापन आया। अच्छा लगा। उन्हें लगा कि विचित्र परिवर्तन आ रहा है। यही तो सत्संग है। फिर भी लंबे समय का पापी जीवन था, सहज परिवर्तन संभव नहीं था। 
उन्होंने कहा, ‘आपकी वीणा अच्छी है, मुझे भी अच्छी लगी। अब आपके साथ क्या व्यवहार किया जाए?’ 
देवर्षि ने कहा, ‘जो मेरे पास है, मैं दे दूंगा, लेकिन मेरा कुछ प्रश्न है, जिसका आप समाधान करें, तो बहुत ही अच्छा होगा।’ 
संत मिलते हैं, तो सत्संग होता है। संत मिलता है, तो ईश्वर की चर्चा करता है, परमार्थ की चर्चा, गुणों की चर्चा। जिनका जीवन ऊंचाई को प्राप्त होता है, उनकी चर्चा करता है। जीवन को सुंदर बनाने वाले तत्वों की चर्चा करता है। 
देवर्षि ने कहा, ‘आप जो काम करते हैं, यह तो बहुत बुरा है, यह तो महान पाप का जनक है। गलत कर्म जीवन, शरीर, मन को लांछित कर देता है, क्रूर बना देता है। आप जो दूसरों के लिए या दूसरों के साथ कर रहे हैं, उससे उत्पन्न होने वाले पापों के कारण आपकी उतने ही वर्षों तक दुर्गति होगी।’ 
रत्नाकर ने कहा, ‘मेरा बड़ा परिवार है, उसके पास दूसरा कोई साधन नहीं है जीवन जीने का, खेती नहीं है, नौकरी नहीं है, दूसरा कोई स्रोत नहीं है। जहां से दो रुपए आएं, पोषण हो। परिवार का विकास हो। स्वास्थ बने। ऐसा कोई भी संसाधन नहीं है। मेरी चेष्टा से ही हुई कमाई से ही मेरा परिवार चलता है।’ 
देवर्षि ने कहा, ‘ अपने परिजनों से पूछो कि तुम्हारे साथ में वे पाप के भागी बनेंगे या नहीं? तुम्हारी पाप की कमाई खाते हैं, तुम्हारा पाप अपने माथे लेंगे या नहीं।’
वाल्मीकि जी को लगा कि ये साधु भागना चाहता है, मुझे घर भेजकर, चालाकी कर रहा है। 
यह जानकर देवर्षि ने कहा, ‘यदि मुझ पर विश्वास नहीं है, तो मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जब तक आप आओगेे नहीं, मैं जाऊंगा नहीं, विश्वास नहीं है, तो मेरे हाथ-पैर बांध दो।’ 
जैसे पाप से वे भोग कर रहे हैं, उससे होने वाले अधर्म में वे भागीदार बनेंगे या नहीं? यह बात रत्नाकर डाकू को भी ठीक प्रतीत हुई। उसने कहा, ‘ठीक है, मैं आपको बांध देता हूं।’
हाथ-पैर को बांध दिया और तब घर गया। घर जाकर पूछा, ‘मैं जो कमा करके लाता हूं, गलत काम करके, उसके कारण जो पाप उत्पन्न होते हैं, उस पाप में आपकी भागीदारी होगी या नहीं? पाप की कमाई से जो भोजन आता है, उसमें आप सब भागीदारी बनेंगे या नहीं?’
परिजनों ने कहा, ‘पाप में हमारी भागीदारी नहीं है। आप परिवार के मुखिया हैं, आप कहीं से भी संपत्ति लाएं और हमारा पालन-पोषण करें, आपके पाप में हमारी कोई भागीदारी नहीं है, यह बात आप समझ लीजिए।’ 
यह बात सुनकर रत्नाकर को बड़ा आघात लगा कि अरे, हत्या, लूटपाट से अर्जित धन में ये लोग भोगी हैं, लेकिन जो पाप उत्पन्न हो रहा है, उसमें भागीदार नहीं हैं, तो ये तो बहुत स्वार्थी लोग हो गए। ऐसे लोगों के साथ जीवन नहीं जीना चाहिए। कितना बड़ा पाप हो रहा है और ये लोग बंटवारा करना नहीं चाहते हैं, केवल लाभ लेना चाहते हैं। ये परिवार के लोग नहीं हैं, मेरे सगे नहीं हैं, ये तो दूसरे लोग हैं, मेरे अपने नहीं हैं। 
जो दुर्भावना थी, वह उनकी समझ में आ गई। यहां ऐसे ही लोग रहते हैं। हर आदमी को अपनी चिंता है, स्वार्थ की चिंता है। यह बात सर्वत्र व्याप्त है। 
वह आकर देवर्षि नारद के चरणों में गिर पड़े। बार-बार आग्रह किया, ‘हमें पाप कर्मों से बाहर निकालें। कैसे हम किए गए पापों की सजा पाएंगे? कैसे हम नवजीवन को प्राप्त करेंगे? कैसे हम सत्कर्म के जीवन का प्राप्त करेंगे, ऐसे जीवन को प्राप्त करेंगे, जो ईश्वर भक्ति से जुड़ा होगा। कैसे हमारा जीवन सुधरेगा। आप ही मार्ग बताइए।’ 
देवर्षि नारद ने कहा, ‘अपने सनातन धर्म में एक से एक संत महंत हैं, जिनके द्वारा कैसा भी जीव संत जीवन को प्राप्त कर लेता है, आप केवल मन बनाओ कि आपको अच्छा बनना है, आपको बुरे कर्मों से जुड़े नहीं रहना है। यह सबकुछ छोडऩा होगा, न लूट होगी, न हत्या होगी, न झूठ होगा, न फरेब होगा, न ऐसे लोगों की जिम्मेदारी होगी, जिनको केवल फल चाहिए। पूर्ण समर्पित होकर भगवान राम का जो नाम है उसे जपिए, उससे आपका उद्धार होगा। नाम में अद्भुत शक्ति है, यह नाम सबकुछ कर सकता है। आप नाम जपिए। राम, राम, राम, राम, राम करिए आप। यही मंत्र आपको मैं दे रहा हूं, इससे आपके जीवन में पूर्ण परिवर्तन आएगा, पूर्ण सुंदरता आएगी। संपूर्ण जीवन आपका जो अभी लांछित हो गया है, अनेक तरह से अवगुणों से दूषित हो गया है, सब ठीक हो जाएगा। 
रत्नाकर ने प्रयास किया, फिर कहा, ‘मेरे मुंह में यह शब्द आ ही नहीं रहा है। राम, राम कह ही नहीं सकता। मेरा शरीर दूषित है, दिव्य शब्द राम मेरे मुंह से उच्चरित नहीं हो सकता। श्रवण और कथन के लिए जो वातावरण चाहिए, जैसी शक्ति चाहिए, वह मेरे पास नहीं है, मैं राम, राम नहीं जप सकता।’ 
देवर्षि ने कोशिश की, लेकिन रत्नाकर के मुंह से राम शब्द नहीं निकल पाया।  
देवर्षि ने कहा, ‘ठीक है, आप राम राम नहीं जप सकते हैं, तो आप मरा, मरा ही जपिए।’ 
यह रत्नाकर को ठीक लगा, वे जिस गलत व्यवसाय में थे, उसमें मारो, मारो बोलते ही रहते थे, मारो, पीटो, लूटो, काटो। राम, राम तो नहीं जप पाए, पाप की अधिकता के कारण, लेकिन मरा मरा उन्होंने जपना शुरू किया। 
क्रमश:

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