Saturday 24 September 2016

मरा मरा से राम राम तक

समापन भाग 
भारत कोई विश्व गुरु ऐसे ही नहीं हो गया था। विश्व गुरुत्व का परम पद हम केवल डॉक्टर, इंजीनियर पैदा करके नहीं पा सकेंगे, जब तक ऋषियों से सम्बंधित भावनाएं जीवन में नहीं अवतरित होंगी, तब तक जीवन कमाऊ और खाऊ ही बना रहेगा।  
राम जी और जानकी जी ने अपने बच्चों को जैसे पाला, वह आदर्श है। महर्षि वाल्मीकि मेरुदंड के समान उपयोगी और प्रामाणिक स्तंभ हैं। सारा जीवन उन्होंने राम जी के साथ मिलकर उनके भावों को उनके विचारों को मूर्त रूप देने में उनकी स्थापनाओं को मजबूती और संबल देने में लगाया। ऐसे ऋषियों की जरूरत है। 
वैसे आजकल कई गुरुकुल खुल रहे हैं, लेकिन उनमें प्रतिष्ठा की इच्छा ज्यादा है। धन अर्जन की इच्छा ज्यादा है। अभी ऐसे ही एक गुरुकुल में मुझे जाने का अवसर मिला, मैंने देखा, गुरुकुल गौण हो गया है और ऐश्वर्य महत्वपूर्ण हो गया है। मैं कुरुक्षेत्र में गया था एक आश्रम में, सर्दी काल में बच्चों के शरीर पर पूरे वस्त्र नहीं थे, दरिद्रों के बच्चों की तरह, जब वस्त्र ही नहीं मिल रहा था, तो खाने को क्या मिल रहा होगा, जब भोजन ही नहीं मिलेगा, तो संस्कार क्या मिलेगा और विद्या क्या मिलेगी? गुरुकुल का लक्षण ऊपर से दिखता है, लेकिन गहराई में जाइए, तो पता चलता है कि गुरुकुल आज सही नहीं हैं। आज ज्यादातर गुरुकुल पैसा कमाने के लिए ही बनते हैं। सैंकड़ों गुरुकुल चल रहे हैं, लेकिन एक भी बड़ा विद्वान और संत पैदा नहीं कर रहे हैं, यह तो डकैती वाला काम हो रहा है। आज के गुरुकुल अच्छे संस्कार कहां दे रहे हैं। वाल्मीकि के गुरुकुल से अगर तुलना करें, तो पता चलेगा कि हम कितना पीछे हैं। पूरी मानव जाति के लिए वे समर्पित हैं, उनका रोम-रोम पुकार रहा है कि तुम ज्ञान पाओ और जीवन को धन्य बनाओ। ऐसे गुरुकुलों का प्रचलन करना चाहिए, उनसे लाभ उठाने की प्रेरणा भी बढऩी चाहिए। घर से बाहर रहकर बच्चा ऋषि भी बनेगा और साथ-साथ में एमबीएस डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि भी बनेगा। उसकी मनुष्यता पूर्णता को प्राप्त करेगी। ऐसे प्रयत्न सरकार के माध्यम से भी होने चाहिए। सरकार बहुत पैसे खर्च करती है विश्वविद्यालयों, स्कूलों में, लेकिन ऐसे बच्चे तैयार हो रहे हैं, जो केवल कमाएंगे और खाएंगे। जो आंतरिक विकास है अध्याम का, वह नहीं हो रहा है, इसके बिना भारत कभी विश्व गुरु नहीं बनेगा, कभी पूर्ण मानव जीवन नहीं बनेगा। 
वाल्मीकि जी बड़े ज्ञाता ऋषि थे, वे राम जी को जानते थे। रामचरितमानस में लिखा है कि राम जी को चित्रकूट में रहने की सलाह वाल्मीकि जी ने ही दी थी। राम जी ने उनसे बहुत श्रद्धा पूर्वक पूछा था, तुलसीदास जी ने लिखा है - 
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ।।
ऐसा हृदय में समझकर, वह स्थान बतलाइए, जहां मैं सीता और लक्ष्मण सहित जाऊं।
वाल्मीकि जी भी भगवान राम को जान रहे थे, उन्होंने आगे उत्तर दिया - 
पँूछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाऊँ।
जहँ न होहु तहँ कहि तुम्हहि देखावौं ठाऊँ।।
अर्थात आप मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं कहा रहूं। यहां मैं आपसे यह पूछते हुए सकुचा रहा हूं कि जहां आप न हों, वह जगह मुझे बता दीजिए, ताकि मैं आपके रहने के लिए जगह दिखा दूं। 
उसके बाद राम जी के विराजने के लिए जो-जो स्थान भक्ति भाव से वाल्मीकि जी ने गिनाए, वो उनकी राम भक्ति का अनुपम प्रमाण हैं और अंत में व्यावहारिक रूप से उन्होंने राम जी को चित्रकूट में विराजने की सलाह दी।
मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हम लोग भी राम भाव में योगदान करें, इस वातावरण में हमारी भी आहूति हो। 
जय श्री राम। 

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