जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य आज के आपाधापी भरे, भौतिकता के प्रमाद में ऊभचूभ करते समय में एक ऐसे अकम्पित ज्योति-स्तम्भ हैं, जिनसे जो भी चाहे अपने जीवन में प्रकाश पा सकता है। एक ऐसे स्नेहिल-प्रेमिल संत, जो धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-दर्शन और तत्व चिंतन के अगाध समुद्र हैं और जिनकी शीतल वाणी हृदय के दाह को शांत करके मन के तार को इस तरह झंकृत कर देती है।
जगदगुरु रामनरेशाचार्य हजार वर्षों से चली आ रही रामभक्ति परम्परा की जो पावन मंदाकिनी है, उसके प्रतिनिधि आचार्य हैं और उस तत्वदर्शी संत शिरोमणि आचार्य रामानंद सम्प्रदाय के पीठाधिपति हैं, जिस सम्प्रदाय में ऊंच-नीच का भेद नहीं किया जाता और समाज के सर्वाधिक पिछड़े दलितों को भी बराबरी का सम्मान दिया जाता है। स्वयं जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी जहां भी जाते हैं, वंचितों व दलितों को भी वही स्नेह और मान देते हैं जिसकी अपेक्षा ऊंचे व श्रेष्ठिï वर्ग के लोगों को रहती है। वे कहते भी हैं कि बहुत मोटे-मोटे, धनवान और चिकने-चुपड़े सुंदर लोग ही धर्म के अधिकारी हैं, ऐसी बात नहीं है। जो धर्म ईश्वर का स्वरूप है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ और उपयोगी पक्ष है, वह सबका है। जैसे कि प्राणवायु सबकी है। वे प्रतिप्रश्न करते हुए व्याख्या करते हैं- जल अलग है क्या? आकाश अलग है क्या? आप धनवान हैं तो अपने ऊपर धन लुटा सकते हैं किंतु आपको खुले आकाश में आना पड़ेगा। यदि आपने किसी के लिए आह भी भर दी, यदि कोई पीडि़त है और हम उसकी पीड़ा के निवारक संसाधन दे पाए तो यह करुणा है और यह करुणा धर्म पे्ररित है। सम्बंधों का निर्वाह जितना गरीब आदमी करता है, उतना धनिक व्यक्ति नहीं करता। यह दुनिया में आमचर्चा है। वैसे सम्बंध के निर्वाह में भी धर्म की ही भूमिका है। रविदास को सबने रोका किंतु वे धर्म की श्रेष्ठï माला हो गए। जो भी ध्यान, नियम-संयम और जप-तप करेगा, उसके लिए कोई दिक्कत नहीं है। इसीलिए आचार्य रामानंद ने वर्णाश्रम व्यवस्था की जो दीवारें थीं, उनको तोडऩे के लिए लड़ाई नहीं की, क्योंकि इसमें पड़ते तो उनकी एनर्जी इसी में समाप्त हो जाती। साइड वाली नहर नहीं निकल पाती और जहां पानी की जरूरत थी, वहां लोग सूखे ही रह जाते। इसीलिए 'संस्कृति के चार अध्याय' में दिनकर जी ने कहा है कि आचार्य रामानंद बहुत ही जागरूक और दक्ष महात्मा हैं। आचार्यों की परम्परा ने शूद्रों को वेद पढऩे की अनुमति नहीं दी तो उन्होंने कहा- 'आप राम-राम बोलिए, भज लो साधु सीताराम...हरि को भजै सो हरि का होई।' रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि इसीलिए अस्पृश्यता का प्रश्न हमारे यहां नहीं है और शराब पीकर ब्राह्मण भी आता है तो हमें दिक्कत है, क्योंकि धर्म आचार-विचार और शुद्धता का क्षेत्र है, जिसकी अपेक्षा सभी से है यानी ब्राह्मणों से भी, शूद्रों से भी।
अब आइए, संत-आचरण के दूसरे पहलू पर गौर करते हैं, जो जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी से ही संदर्भित है। आज जबकि हम देखते हैं कि राजनेताओं से मिलने-जुलने और उनके आगे-पीछे घूमने में ही कुछ भगवाधारी गौरव महसूस करते हैं और राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर सत्तारूढ़ दलों के मंच पर सुशोभित होने को उपलब्धि की तरह देखते हैं, ऐसे में एक निस्पृह संत के रूप में धर्म-मर्यादा की सर्वोच्चता का स्वामी रामनरेशाचार्यजी पूरी गरिमा और दृढ़ता से पालन करते हैं। देश के शीर्ष राजनीतिज्ञ मसलन पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चंद्रशेखर और राजीव गांधी समेत ज्ञानी जैल सिंह और वर्तमान में भी अनेकानेक राजनेताओं को रामनरेशाचार्य जी का स्नेहपूर्ण आशीर्वचन मिलता आया है, इसके बावजूद इस मामले में उनके विचार बहुत स्पष्टï और आंखें खोल देने लायक हैं। वे कहते हैं- नि:संदेह मेरे पास देश के शीर्ष राजनीतिक आते-जाते हैं और मुझमें आस्था रखते हैं, मुझे श्रद्धा का केंद्र मानते हैं तो यह तो धर्म के लिए अच्छी बात है कि धर्म आकर्षक है-अपनी ओर खींचता है। जिन राजनयिकों से लोगों की आस्था समाप्त हो रही है, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन सत्ता, कुर्सी बचाने में, धन कमाने में लगा है, जिनके यहां कोई लोकतांत्रिक मूल्य नहीं हो पा रहा है, यदि वे लोग यहां आते हैं तो धर्म की जरूर प्रशंसा होनी चाहिए। यही नहीं, जो आ रहे हैं- कम हैं, सबको आना चाहिए। क्योंकि अच्छे स्थान पर, महात्मा के यहां शीर्षस्थ आदमी भी आ सकता है और भूमिस्थ भी आ सकता है। आखिर नेता समाज के बाहर के लोग नहीं हैं।
लेकिन साथ ही स्वामी जी यह भी कहते हैं कि हां, उस धर्मगुरु की आलोचना की जा सकती है जो अपना स्वरूप तिरोहित करके राजनीतिक मूल्यों को उजागर कर दे और उसे श्रेष्ठता दे दे। चुनाव प्रचार करना, उनकी गलत बातों का समर्थन करना- तब तो महात्मा आलोच्य होना ही चाहिए, वह संदेह के घेरे में है। रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि यह बहुत गलत है कि बड़े नेताओं के आने पर संत उठकर खड़े हो जाएं। इस संदर्भ में वे एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं- 'मैं गुजरात गया था एक बड़े समारोह में। नरेंद्र मोदी आए थे तो वहां जो वरिष्ठï संत बैठे थे, कई तमाम गादीपति, तो वो लोग उठकर खड़े हो गए, जबकि सनातन धर्म में संन्यासी का दर्जा आश्रम की दृष्टि से बड़ा माना गया है। और इतना ही नहीं, उन्होंने उनके साथ इस तरह प्रणाम विधि का सम्पादन किया जैसे आधुनिक समाज में होता है- हाथ पकड़कर फिर हिलाना। जबकि अद्भुत सम्मेलन था वह। तीन लाख लोग पंडाल में, पांच लाख बाहर और सबको भोजन मिलने वाला था। मंच शानदार। मैं सर्वाधिक शीर्ष पर बैठाया गया था, सिर पर छत्र लगा था लेकिन मेरे भीतर सिर्फ एक महात्मा था- न उससे अधिक कुछ, न उससे कम कुछ। मोदी ने झुककर प्रणाम किया और मैंने आशीर्वाद दिया। यदि मैं पूछने लग जाता कि मोदी जी कैसे हो? उनके साथ चित्र खिंचवाने लग जाता, उनकी प्रशंसा में लग जाता तो...? कहने का मतलब यह कि संत अपने मार्ग से विचलित न हो, राजनयिक उनके पास आएं, जो नहीं जुड़े हैं, वो भी मुझसे जुड़ें, यह तो समाज के लिए अच्छा है।'
यहीं पर यह याद कर लेना भी जरूरी है कि जब अयोध्या के विवाद को राजनीतिक बवंडर उठाकर अंधी गुफा में धकेलने की पूरी कोशिश की जा रही थी, तभी उस उथल-पुथल के दौरान स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज ने 'राम भाव प्रसार यात्रा' जैसे विधायी आयोजन के माध्यम से भक्ति और आस्था के प्रकाश का प्रसार किया। अपनी इस यात्रा के बारे में वे कहते हैं- वह मेरे मन की भावना थी। हम रामभक्त हैं तो हमें जाना ही चाहिए अयोध्या दर्शन करने। कष्टï उठाकर अपने आराध्य के पास पहुंचने में यात्राओं का अपना महत्व है। बाकी किसी आंदोलन, व्यक्ति और पार्टी का विरोध अथवा समर्थन करना हमारा लक्ष्य नहीं था। हम सर्वत्र उन मूल्यों की चर्चा करते रहे कि कैसे लोगों में राम भाव आए। वे बताते हैं कि हमें कुछ राज्य सत्ताओं ने राज्य अतिथि का भी दर्जा देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन हमने कहा- नहीं। यदि संत राज्य अतिथि का दर्जा पा जाएगा तो धर्म का कार्य कैसे चलेगा?
सच्चे संत का जीवन स्वयं में ऐसा दर्पण होता है, जिसमें झांककर कोई भी चाहे तो आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी साधना पथ पर कैसे अग्रसर हुए और उनके भीतर एक आध्यात्मिक संत, एक महात्मा, एक जगदगुरु का कैसे प्राकट्ïय हुआ- यह भी जान लेते हैं। दर्शन, व्याकरण और तर्कशास्त्र के निष्णात आचार्य होने के साथ ही अगर उनके भीतर आज रामभक्ति मंदाकिनी की अविरल धारा प्रवाहित है तो इसलिए, क्योंकि आचार्यश्री ने इसके लिए अविचल, ऐकांतिक साधना की है। वे कहते हैं कि ऐसा होने में प्रारब्ध का बहुत बड़ा हाथ है, जीवन-प्रवाह में घटनाएं तो बस निमित्त मात्र होती हैं।
वे बताते हैं- विद्वान बनने की मन में गहरी लालसा थी। इच्छा थी कि शिक्षा के क्षेत्र में यशस्वी जीवन पाऊं। शुरू से पढऩे में दक्ष था और छोटी अवस्था से ही मुझे उसके लिए पहचान, स्नेह और सम्मान मिलने लगा था। किंतु मुझे ऐसा लगा कि वहां (गांव में) मेरी पढ़ाई के अनुकूल वातावरण नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि आदमी अज्ञानता से ही दुखी होता है। मैं देखता था कि लोगों को जीवन जीना नहीं आ रहा है। ग्रामीणों को अनावश्यक रूप से दुखी देख रहा था। एक बच्चा पालने की स्थिति नहीं है और सात बच्चे हैं। जहां झगड़े को टाला जा सकता है, वहां लडऩा, कहासुनी, मुकदमेबाजी और अनावश्यक बतकही। मैंने देखा कि ज्यादातर लोग शादी वाले कारण से दुखी हैं। शादी हुई, बच्चा हो गया, पति-पत्नी का झगड़ा शुरू हो गया। बच्चे नालायक निकल गए, वो तंग कर रहे हैं और मां-बाप हैं कि उन्हीं के लिए मरे जा रहे हैं। सो, बालपन की उसी कच्ची उम्र में आचार्यश्री ने तीन संकल्प लिए- विद्वान होना, विवाह न करना और लौटकर नहीं जाना।
वे बताते हैं- मैं पूरी योजना के साथ घर से कलकत्ता के लिए कहकर काशी चला आया। उस समय साधु होने का उद्देश्य नहीं था और न ही ईश्वर को प्राप्त करने की भावना थी। बस विद्वान होने की ललक। वाराणसी में वे संतों के संसर्ग में आए और तरह-तरह की लोलुपता से बचकर संयमित जीवन के साथ दर्शन शास्त्र का अध्ययन करने लगे। इसी दरम्यान उनके भीतर धीरे-धीरे आस्था का विकास होता चला गया। आचार्यश्री याद करते हैं, जब आठवीं कक्षा में था तो लोग आश्चर्य करते थे कि इस छोटी अवस्था में यह माक्र्स को भी पढ़ता है और टीका भी लगाता है। उस समय को याद करते हुए वे बताते हैं कि मुझे एक तरह से जबरदस्ती दीक्षित कर दिया गया, हालांकि तब भी लक्ष्य विद्वान बनना ही था। मेरे गुरुजी भी बहुत संयमी थे। आमदनी का कोई स्रोत नहीं था, सो कम से कम में निर्वाह होता था। न्यायशास्त्र आदि के अधिकतर ग्रंथों को स्वयं ही पढ़ा। इसी तरह स्वाध्याय के बल पर सांख्य, योग, व्याकरण आदि का अध्ययन-मनन किया। संतश्री बताते हैं, नौकरी भी समय से बहुत प्रतिष्ठिïत मिल रही थी, जब मेरे पढ़ाए हुए लोग विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर हैं तो मेरे लिए यह आसान ही थी। किंतु पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक-आध्यात्मिक आस्था का विकास हुआ और उस आस्था ने बैरागी बना दिया। आचार्यश्री कहते हैं, यह मेरा प्रारब्ध था, जिसने मुझसे घर छुड़वाया।
ज्ञान की गहरी प्यास और आस्था के उत्कट उद्भास के मणिकांचन संयोग से हमारे बीच जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य के रूप में एक ऐसे अनासक्त संत का प्राकट्य हुआ है, जो कहता है कि पीठाधीश्वर वगैरह तो हमारे आगे-पीछे की चीजें हैं- बहुत साधारण-सी बात है। बड़ी से बड़ी गद्दी के लोग मुझे छात्रावस्था में ही वैसा आदर देने लगे थे कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूं। पीठ की कोई आकांक्षा नहीं थी, लेकिन जब श्रीमठ का प्रस्ताव आया तो लगा कि सेवा का यह उपयुक्त स्थल है। मोक्ष नहीं, बल्कि रामभाव की भक्ति और सेवा ही स्वामी रामनरेशाचार्य जी की परम कामना और परम साधना है। हमारा सौभाग्य है कि हमारे बीच एक ऐसा संत है, जिसकी शीतल वाणी और आशीर्वचन से मन की सारी मलिनता और क्लेश धुल जाते हैं।
(जैसा उन्होंने डॉ निशीथ राय जी को बताया )
(डॉ निशीथ राय लखनऊ से प्रकाशित डेली न्यूज एक्टिविस्ट के चेयरमैन और प्रबंध संपादक हैं.)
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