भाग - ११
ईश्वर को हम क्या देंगे, वह सर्वसाधन संपन्न है। वह ऐश्वर्यशाली है। समग्र एैश्वर्य का नाम भग है, संपूर्ण यश का नाम भग, संपूर्ण सुंदरता का नाम भग है, संपूर्ण ज्ञान का नाम भग है, वैराग्य का नाम भग है, सब तो इसी में आ गए और भग जिसके पास हो, उसे भगवान कहते हैं।
सबकुछ जब भगवान के पास है, तो हम भगवान को क्या देंगे। ध्यान दीजिए, पत्ता कोई भी चलेगा, तुलसी का ही नहीं, बेल पत्र ही नहीं, कोई भी पत्ता दीजिए। भगवान का बनाया हुआ है। दीजिए पत्ता। खाली हाथ भगवान के यहां नहीं आएं।
राजा, देवता और गुरु के यहां खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। कुछ लेकर ही जाएं। आज आपको बताना है देने का तरीका। पत्ता भी कल्याण का साधन कैसे बनेगा, मोक्ष का साधन कैसे बनेगा, यह दान नहीं है, धन नहीं है, भोग नहीं है, भगवान ने कहा कि जो भी पत्ता, पुष्प, फल दें, जल दें, उसे आप भक्ति से दें, यानी प्रेम से दीजिए। चेहरे पर प्रसन्नता आनी चाहिए। हृदय लबालब हो भाव से। जैसे मां स्तनपान कराती है बच्चे को, अपना सर्वस्व उड़ेल रही है, उसके संरक्षण और संवद्र्धन के लिए कि मेरा बच्चा सुंदर हो जाए, शक्तिशाली हो जाए, देश का प्रधानमंत्री हो, बड़ा वैज्ञानिक हो जाए, बड़ा उद्योगपति हो जाए। अपना सबकुछ उसे पिला रही है, जीवन पिला रही है, अमृत पिला रही है। पत्ता देने में भी यही भाव आना चाहिए। भक्ति माने प्रेम। यदि आपको प्रेम का ज्ञान नहीं होता, तो मैं और भी समझाता। आपको प्रेम आता है। कभी-कभी तो आप देते ही हो प्रेम से अपने लोगों को, तो भगवान को भी प्रेम से दीजिए। यह भगवान की आज्ञा है। वस्तु कैसी भी चलेगी। पत्ता, फूल, फल, जल कैसा भी चलेगा। गंगा जल भी यमुना जल भी चलेगा, स्वच्छ होना चाहिए, पवित्र होना चाहिए।
एक शर्त भगवान ने और लगा दिया कि अपने मन को समाहित करके, संयत करके दीजिए, निश्चल, एकाग्र, तमाम दुर्भावनाओं से रहित मन करके दीजिए। भगवान सबका नहीं लेते। भगवान को कोई कमी नहीं है।
कबीर की कथा सुनाता हूं। एक छपरा जिला है, छपरा में एक संत थे हलकोरी बाबा, कबीरपंथी महात्मा थे। उन्हें सैंकड़ों जन्म दिखते थे। जो बीत गए और जो आने वाले हैं सब। वे नाम लिखना भी नहीं जानते थे। पढ़े नहीं थे। वहां प्रथा थी कि जन्म होने पर ही कंठी पहना देते थे, गले में बांध देते थे। उनको भी बांध दिया था, सयाने हुए, तो पूछा कि यह धागा क्या है।
लोगों ने कहा कि वहां तुम्हारे गुरु की समाधि है, उनसे पूछो।
वहां जाने पर उन्हें विशिष्ट दृष्टि की प्राप्ति हुई गुुरु के अनुग्रह से। उन्होंने लौटकर घर वालों को कहा, मैं अब कुछ नहीं करूंगा। केवल राम राम जपूंगा। मेरे हिस्से की जमीन के आधार पर आप मुझे रोटी दे देना। वे केवल राम राम करते थे। कबीर लोग सीताराम सीताराम नहीं कहते हैं। केवल राम राम कहते हैं, जैसे राम स्नेही लोग करते हैं। खूब जपा, सारी रिद्धियां-सिद्धियां हो गईं उनको, आप पूछो कि दस जन्म पहले कहां थे, बीस जन्म बाद हम कहां जाएंगे, उन्हें सब दिखता था। वे एक बार लोगों के आग्रह पर तीर्थ यात्रा पर आए, लेकिन काशी में वे भगवान विश्वनाथ के मंदिर में नहीं गए। कबीर लोग निंदा करेंगे, कबीर मूर्ति पूजक नहीं हैं। जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी के शिष्य थे कबीर, जहां मैं रहता हूं, वहीं कबीर जी की दीक्षा हुई थी, काशी में उनका भी आश्रम है। पूरे देश में उनके आश्रम हैं। पूरे देश में कबीर मठ हैं। एक से एक महात्मा हुए कबीर मठों में। साईं बाबा भी कबीर परंपरा से दीक्षित थे। साईं मतलब स्वामी। जो लोग अभी कहने लगे हैं कि वे मुसलमान थे, वे राम नाम नहीं जपते थे। वे मूर्ख हैं, पक्षपाती हैं। साईं बाबा स्वयं कहते थे, वे अपने गुरु आश्रम बताते थे, अपने गुुरुजी का नाम बताते थे, जो गुजरात में है।
वो पुस्तक मेरे पास बारह खंडों में पड़ी हुई है। उसमें मैंने साईं बाबा का इंटरव्यू पढ़ा है। एक लेखक कई वर्षों तक साईं बाबा के पास रहा। लिखते रहता था साईं बाबा की सारी बातें। पहले बांगला में लिखा, बाद में हिन्दी में अनुवाद हुआ। अपने समय के अनेक बड़े सिद्धों का वर्णन किया उस लेखक ने।
तो हलकोरी बाबा तब विश्वनाथ जी के यहां नहीं गए। जब वे लौटने लगे, गाड़ी पकडऩे के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे, तब भगवान विश्वनाथ दिव्य स्वरूप में अनेक तरह की मालाओं से सुसज्जित वहां पहुंचे, त्रिशूल, डमरू, चंद्रमा विभूषित ललाट इत्यादि से सज्जित। हलकोरी बाबा समझ गए कि भगवान हैं, दंडवत किया, क्षमा याचना की। कहा, मैं आपके मंदिर में नहीं आया।
भगवान विश्वनाथ बोले कि यही कहने आया हूं कि आप क्यों नहीं आए, आपको आना चाहिए था।
हलकोरी बाबा ने कहा कि मैं मंदिर जाता, तो कबीर लोग विवाद करते, मुझे सुनाते, निंदा करते, ये कहां चला गया कबीर पंथ की मर्यादा को छोडक़र, इसलिए नहीं आया। क्षमा चाहता हूं।
धीरे से हलकोरी बाबा ने कहा, मैं दरिद्र आदमी हूं, मेरे जल की क्या महत्ता है, आपके यहां जल चढ़ाने वालों की कमी है क्या, करोड़ों-लाखों लोग आते हैं।
विश्वनाथ जी ने कहा, मैं लोगों का जल नहीं पीता हूं, मैंने ही कूप, नदियां, समुद्र बनाए हैं। मैं तो उन लोगों का जल स्वीकार करता हूं, जिनका हृदय आप जैसा होता है, जो मुझे भक्ति से प्यार से देते हैं।
क्रमश:
ईश्वर को हम क्या देंगे, वह सर्वसाधन संपन्न है। वह ऐश्वर्यशाली है। समग्र एैश्वर्य का नाम भग है, संपूर्ण यश का नाम भग, संपूर्ण सुंदरता का नाम भग है, संपूर्ण ज्ञान का नाम भग है, वैराग्य का नाम भग है, सब तो इसी में आ गए और भग जिसके पास हो, उसे भगवान कहते हैं।
सबकुछ जब भगवान के पास है, तो हम भगवान को क्या देंगे। ध्यान दीजिए, पत्ता कोई भी चलेगा, तुलसी का ही नहीं, बेल पत्र ही नहीं, कोई भी पत्ता दीजिए। भगवान का बनाया हुआ है। दीजिए पत्ता। खाली हाथ भगवान के यहां नहीं आएं।
राजा, देवता और गुरु के यहां खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। कुछ लेकर ही जाएं। आज आपको बताना है देने का तरीका। पत्ता भी कल्याण का साधन कैसे बनेगा, मोक्ष का साधन कैसे बनेगा, यह दान नहीं है, धन नहीं है, भोग नहीं है, भगवान ने कहा कि जो भी पत्ता, पुष्प, फल दें, जल दें, उसे आप भक्ति से दें, यानी प्रेम से दीजिए। चेहरे पर प्रसन्नता आनी चाहिए। हृदय लबालब हो भाव से। जैसे मां स्तनपान कराती है बच्चे को, अपना सर्वस्व उड़ेल रही है, उसके संरक्षण और संवद्र्धन के लिए कि मेरा बच्चा सुंदर हो जाए, शक्तिशाली हो जाए, देश का प्रधानमंत्री हो, बड़ा वैज्ञानिक हो जाए, बड़ा उद्योगपति हो जाए। अपना सबकुछ उसे पिला रही है, जीवन पिला रही है, अमृत पिला रही है। पत्ता देने में भी यही भाव आना चाहिए। भक्ति माने प्रेम। यदि आपको प्रेम का ज्ञान नहीं होता, तो मैं और भी समझाता। आपको प्रेम आता है। कभी-कभी तो आप देते ही हो प्रेम से अपने लोगों को, तो भगवान को भी प्रेम से दीजिए। यह भगवान की आज्ञा है। वस्तु कैसी भी चलेगी। पत्ता, फूल, फल, जल कैसा भी चलेगा। गंगा जल भी यमुना जल भी चलेगा, स्वच्छ होना चाहिए, पवित्र होना चाहिए।
एक शर्त भगवान ने और लगा दिया कि अपने मन को समाहित करके, संयत करके दीजिए, निश्चल, एकाग्र, तमाम दुर्भावनाओं से रहित मन करके दीजिए। भगवान सबका नहीं लेते। भगवान को कोई कमी नहीं है।
कबीर की कथा सुनाता हूं। एक छपरा जिला है, छपरा में एक संत थे हलकोरी बाबा, कबीरपंथी महात्मा थे। उन्हें सैंकड़ों जन्म दिखते थे। जो बीत गए और जो आने वाले हैं सब। वे नाम लिखना भी नहीं जानते थे। पढ़े नहीं थे। वहां प्रथा थी कि जन्म होने पर ही कंठी पहना देते थे, गले में बांध देते थे। उनको भी बांध दिया था, सयाने हुए, तो पूछा कि यह धागा क्या है।
लोगों ने कहा कि वहां तुम्हारे गुरु की समाधि है, उनसे पूछो।
वहां जाने पर उन्हें विशिष्ट दृष्टि की प्राप्ति हुई गुुरु के अनुग्रह से। उन्होंने लौटकर घर वालों को कहा, मैं अब कुछ नहीं करूंगा। केवल राम राम जपूंगा। मेरे हिस्से की जमीन के आधार पर आप मुझे रोटी दे देना। वे केवल राम राम करते थे। कबीर लोग सीताराम सीताराम नहीं कहते हैं। केवल राम राम कहते हैं, जैसे राम स्नेही लोग करते हैं। खूब जपा, सारी रिद्धियां-सिद्धियां हो गईं उनको, आप पूछो कि दस जन्म पहले कहां थे, बीस जन्म बाद हम कहां जाएंगे, उन्हें सब दिखता था। वे एक बार लोगों के आग्रह पर तीर्थ यात्रा पर आए, लेकिन काशी में वे भगवान विश्वनाथ के मंदिर में नहीं गए। कबीर लोग निंदा करेंगे, कबीर मूर्ति पूजक नहीं हैं। जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी के शिष्य थे कबीर, जहां मैं रहता हूं, वहीं कबीर जी की दीक्षा हुई थी, काशी में उनका भी आश्रम है। पूरे देश में उनके आश्रम हैं। पूरे देश में कबीर मठ हैं। एक से एक महात्मा हुए कबीर मठों में। साईं बाबा भी कबीर परंपरा से दीक्षित थे। साईं मतलब स्वामी। जो लोग अभी कहने लगे हैं कि वे मुसलमान थे, वे राम नाम नहीं जपते थे। वे मूर्ख हैं, पक्षपाती हैं। साईं बाबा स्वयं कहते थे, वे अपने गुरु आश्रम बताते थे, अपने गुुरुजी का नाम बताते थे, जो गुजरात में है।
वो पुस्तक मेरे पास बारह खंडों में पड़ी हुई है। उसमें मैंने साईं बाबा का इंटरव्यू पढ़ा है। एक लेखक कई वर्षों तक साईं बाबा के पास रहा। लिखते रहता था साईं बाबा की सारी बातें। पहले बांगला में लिखा, बाद में हिन्दी में अनुवाद हुआ। अपने समय के अनेक बड़े सिद्धों का वर्णन किया उस लेखक ने।
तो हलकोरी बाबा तब विश्वनाथ जी के यहां नहीं गए। जब वे लौटने लगे, गाड़ी पकडऩे के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे, तब भगवान विश्वनाथ दिव्य स्वरूप में अनेक तरह की मालाओं से सुसज्जित वहां पहुंचे, त्रिशूल, डमरू, चंद्रमा विभूषित ललाट इत्यादि से सज्जित। हलकोरी बाबा समझ गए कि भगवान हैं, दंडवत किया, क्षमा याचना की। कहा, मैं आपके मंदिर में नहीं आया।
भगवान विश्वनाथ बोले कि यही कहने आया हूं कि आप क्यों नहीं आए, आपको आना चाहिए था।
हलकोरी बाबा ने कहा कि मैं मंदिर जाता, तो कबीर लोग विवाद करते, मुझे सुनाते, निंदा करते, ये कहां चला गया कबीर पंथ की मर्यादा को छोडक़र, इसलिए नहीं आया। क्षमा चाहता हूं।
धीरे से हलकोरी बाबा ने कहा, मैं दरिद्र आदमी हूं, मेरे जल की क्या महत्ता है, आपके यहां जल चढ़ाने वालों की कमी है क्या, करोड़ों-लाखों लोग आते हैं।
विश्वनाथ जी ने कहा, मैं लोगों का जल नहीं पीता हूं, मैंने ही कूप, नदियां, समुद्र बनाए हैं। मैं तो उन लोगों का जल स्वीकार करता हूं, जिनका हृदय आप जैसा होता है, जो मुझे भक्ति से प्यार से देते हैं।
क्रमश:
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