भाग - ८
किसी ने तो पुस्तक को ही गुरु बना लिया, पूजने लगे। सनातन धर्म की ही कुछ बातों को लेकर उसमें अपनी कुछ बातों को जोड़ दिया और चल पड़ा पंथ। हम उस धर्म के अनुयायी हैं, जहां किसी मिलावट की गुंजाइश नहीं है। यह मनुष्य की बनाई पोथी या किसी देवता की बनाई पोथी का धर्म नहीं है, पुस्तक का धर्म नहीं है। अनादि वेदों से प्रवर्तित यह धर्म है, जब हमें कुछ नहीं मालूम था, तब भी वेद थे, इसमें एक मात्रा का भी परिवर्तन संभव नहीं है।
जब एक सृष्टि समाप्त हो जाती है, तो ब्रह्मा जी दूसरी सृष्टि की कल्पना करते हैं और वेदों का अवतरण होता है। तो भगवान ने हमें जीवन दिया है, हम इसे अपने हिसाब से चला रहे हैं। अब हमें सावधान होने की जरूरत है कि हम इसका सबसे अच्छा उपयोग करें। हम अपने आनंद को समुद्र के समान बनाएं। अभी हमारा आनंद बहुत छोटा है, नाशवान है, अभी हमारा आनंद बहुत दुखों से ग्रस्त है। कितना परिश्रम हम करते हैं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए, चोरी चकारी, झूठ-सच और न जाने क्या-क्या।
किसानों को आप देखिए, कितना परिश्रम, पानी नहीं हुआ, तो फसल सूख जाए और ज्यादा हो गया, तो फसल पीली हो जाए। एक आदमी कल ही कह रहा था कि भगवान से प्रार्थना कीजिए कि अब वर्षा नहीं हो, कुछ दिनों तक और वर्षा होगी, तो फसलें बर्बाद हो जाएंगी। तब भगवान राजस्थान में एक सप्ताह बरसते रहे थे। इतना पानी नहीं चाहिए यहां लोगों को। यदि साग मिल गया, तो समझो भगवान मिल गए। भगवान की दया से बहुत सारी योनियां निकल गईं, ८४ लाख योनियों में हम घूमते रहे। वैसे ही किशोर अवस्था, वृद्धा अवस्था को प्राप्त कर गए, मृत्यु सागर में समा गए।
मृत्यु से युक्त ये संसार कैसा है, अत्यंत गहरा है, भयावह है, उसमें जो उतरेगा, वह फिर संभलने वाला नहीं है, उसे डूबना ही डूबना है।
बार-बार जन्म लेना, मरण को प्राप्त करना, जीवन में जो छोटे-मोटे रास्ते हैं, उनका परिपालन करना, यह चक्र है। इसी चक्र में हम आज तक घूमते रहे। आपसे कोई पूछे कि बतलाइए कि आपने पिछले जन्म में क्या किया, तब कितना धन कमाया, उस धन का अब आपसे कोई सम्बंध है? उसका आपके जीवन में कोई योगदान है? पूर्व जन्म का कोई परिवार नहीं, जो यहां वाला परिवार है, वही नहीं मान रहा, तो पीछे वाला कौन मानेगा? धन्य हैं हम लोग जो पितरों का तर्पण करते हैं।
करोड़ों लोग पितरों का, जिनका रक्त हमारे शरीर में प्रवाहित हो रहा है, उनकी पूजा करते हैं। पितरों का सबसे बड़ा तीर्थ गया में है, करोड़ों लोग वहां आते हैं। कोई मतलब नहीं, हाथ क्या लगा, यह बतलाइए? कहां जीवन में यह भाव आ पाया कि जो करना था कर लिया, जो पाना था पा लिया, संपूर्णता का भाव तो नहीं आया। जिसको मिलो, वही बोलता है, मैं अधूरा हूं, विवश हूं, मैंने इतना जीवन बिताया, लेकिन कहीं शांति नहीं, कहीं विश्राम नहीं, नहीं लगता कि हमने कहीं सही काम किया, कुछ पाकर यह नहीं लगता कि यही तो इस जीवन से प्राप्त करना है। तभी विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास ने इन सभी भावों को संकलित करते हुए महा संकल्प लिया -
अबलौं नसानी, अब न नसैंहौं।
पहले के संपूर्ण जीवन नष्ट हो गए, न हम धनी हो पाए, न भोगी हो पाए। अगर हो जाते, तो ये हमें विश्राम देने वाले नहीं थे, मोक्ष की तो बात ही नहीं है। नष्ट हो गए सारे जीवन, लेकिन अब यह अवसर है संकल्प लेने का कि जो हमें जीवन मिला है, उसमें धर्म का भी यथा संभव संपादन करें। जो सुख मिलता है, वह धर्म से मिलता है। बाद में ज्ञान से मिलेगा, भक्ति से मिलेगा।
कोल-भील्ल सीधे मोक्ष में ही लग गए। वे पहले तो केवल अपराध करते थे। कोई वेद अनुरूप व्यवहार नहीं, मर्यादा नहीं, लेकिन ऐसे कोल-भील्ल सीधे मोक्ष मार्ग में लग गए। अब तो रामजी को कंद-मूल दे रहे हैं। संपूर्ण शक्ति की सेवा में लग गए, यह धर्म नहीं है, यह तो मोक्ष मार्ग है।
क्रमश:
किसी ने तो पुस्तक को ही गुरु बना लिया, पूजने लगे। सनातन धर्म की ही कुछ बातों को लेकर उसमें अपनी कुछ बातों को जोड़ दिया और चल पड़ा पंथ। हम उस धर्म के अनुयायी हैं, जहां किसी मिलावट की गुंजाइश नहीं है। यह मनुष्य की बनाई पोथी या किसी देवता की बनाई पोथी का धर्म नहीं है, पुस्तक का धर्म नहीं है। अनादि वेदों से प्रवर्तित यह धर्म है, जब हमें कुछ नहीं मालूम था, तब भी वेद थे, इसमें एक मात्रा का भी परिवर्तन संभव नहीं है।
जब एक सृष्टि समाप्त हो जाती है, तो ब्रह्मा जी दूसरी सृष्टि की कल्पना करते हैं और वेदों का अवतरण होता है। तो भगवान ने हमें जीवन दिया है, हम इसे अपने हिसाब से चला रहे हैं। अब हमें सावधान होने की जरूरत है कि हम इसका सबसे अच्छा उपयोग करें। हम अपने आनंद को समुद्र के समान बनाएं। अभी हमारा आनंद बहुत छोटा है, नाशवान है, अभी हमारा आनंद बहुत दुखों से ग्रस्त है। कितना परिश्रम हम करते हैं रोटी, कपड़ा और मकान के लिए, चोरी चकारी, झूठ-सच और न जाने क्या-क्या।
किसानों को आप देखिए, कितना परिश्रम, पानी नहीं हुआ, तो फसल सूख जाए और ज्यादा हो गया, तो फसल पीली हो जाए। एक आदमी कल ही कह रहा था कि भगवान से प्रार्थना कीजिए कि अब वर्षा नहीं हो, कुछ दिनों तक और वर्षा होगी, तो फसलें बर्बाद हो जाएंगी। तब भगवान राजस्थान में एक सप्ताह बरसते रहे थे। इतना पानी नहीं चाहिए यहां लोगों को। यदि साग मिल गया, तो समझो भगवान मिल गए। भगवान की दया से बहुत सारी योनियां निकल गईं, ८४ लाख योनियों में हम घूमते रहे। वैसे ही किशोर अवस्था, वृद्धा अवस्था को प्राप्त कर गए, मृत्यु सागर में समा गए।
मृत्यु से युक्त ये संसार कैसा है, अत्यंत गहरा है, भयावह है, उसमें जो उतरेगा, वह फिर संभलने वाला नहीं है, उसे डूबना ही डूबना है।
बार-बार जन्म लेना, मरण को प्राप्त करना, जीवन में जो छोटे-मोटे रास्ते हैं, उनका परिपालन करना, यह चक्र है। इसी चक्र में हम आज तक घूमते रहे। आपसे कोई पूछे कि बतलाइए कि आपने पिछले जन्म में क्या किया, तब कितना धन कमाया, उस धन का अब आपसे कोई सम्बंध है? उसका आपके जीवन में कोई योगदान है? पूर्व जन्म का कोई परिवार नहीं, जो यहां वाला परिवार है, वही नहीं मान रहा, तो पीछे वाला कौन मानेगा? धन्य हैं हम लोग जो पितरों का तर्पण करते हैं।
करोड़ों लोग पितरों का, जिनका रक्त हमारे शरीर में प्रवाहित हो रहा है, उनकी पूजा करते हैं। पितरों का सबसे बड़ा तीर्थ गया में है, करोड़ों लोग वहां आते हैं। कोई मतलब नहीं, हाथ क्या लगा, यह बतलाइए? कहां जीवन में यह भाव आ पाया कि जो करना था कर लिया, जो पाना था पा लिया, संपूर्णता का भाव तो नहीं आया। जिसको मिलो, वही बोलता है, मैं अधूरा हूं, विवश हूं, मैंने इतना जीवन बिताया, लेकिन कहीं शांति नहीं, कहीं विश्राम नहीं, नहीं लगता कि हमने कहीं सही काम किया, कुछ पाकर यह नहीं लगता कि यही तो इस जीवन से प्राप्त करना है। तभी विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास ने इन सभी भावों को संकलित करते हुए महा संकल्प लिया -
अबलौं नसानी, अब न नसैंहौं।
पहले के संपूर्ण जीवन नष्ट हो गए, न हम धनी हो पाए, न भोगी हो पाए। अगर हो जाते, तो ये हमें विश्राम देने वाले नहीं थे, मोक्ष की तो बात ही नहीं है। नष्ट हो गए सारे जीवन, लेकिन अब यह अवसर है संकल्प लेने का कि जो हमें जीवन मिला है, उसमें धर्म का भी यथा संभव संपादन करें। जो सुख मिलता है, वह धर्म से मिलता है। बाद में ज्ञान से मिलेगा, भक्ति से मिलेगा।
कोल-भील्ल सीधे मोक्ष में ही लग गए। वे पहले तो केवल अपराध करते थे। कोई वेद अनुरूप व्यवहार नहीं, मर्यादा नहीं, लेकिन ऐसे कोल-भील्ल सीधे मोक्ष मार्ग में लग गए। अब तो रामजी को कंद-मूल दे रहे हैं। संपूर्ण शक्ति की सेवा में लग गए, यह धर्म नहीं है, यह तो मोक्ष मार्ग है।
क्रमश:
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