Saturday, 8 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ५
राम हमारी परंपरा के हीरो या महानायक हैं। हमारा कोई दूसरा नेता हीरो नहीं, कोई उद्योगपति नहीं, कोई किसान, कोई क्रिकेटर हीरो नहीं है। संपूर्ण चिंतन परंपरा का, संपूर्ण भारतीय वैदिक संस्कृति का, हमारा जो भी कुछ है, अनुपम है, अनुकरणीय है दुनिया के लिए वह वरदान और अमृत स्वरूप है, उसको कहते हैं राम और कुछ नहीं। जब उस राम के चरित्र का गायन हुआ, तो उसमें सभी की बात आ गई। 
गौतम बुद्ध के बाद यदि कोई समन्वयी उत्पन्न हुआ, तो वह गोस्वामी तुलसीदास हुए, जो राम को लोकनायक के रूप में हमारे सामने लाए। राम परम समन्वयी हैं। कौसल्या और कैकेयी को भी जोड़ देते हैं। उत्तर और दक्षिण को भी जोड़ देते हैं। विश्वामित्र और वशिष्ठ को जोड़ देते हैं। यह समन्वय का काम कोई अमेरिका नहीं करेगा, जब करेगा, तो भारत ही करेगा। 
राम जी ने अयोध्या से एक रुपया नहीं लिया और वही खाया, जो साथ के लोग खा रहे थे। सबके साथ वृक्ष के नीचे सोते थे और दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी को अपनी वानर सेना के साथ मिलकर मार गिराया। यह घटना फिर कहीं नहीं दुहराई जाएगी। यदि दुहराई जाएगी, तो त्रेता में ही दुहराई जाएगी। कलयुग में दुहराई जाएगी, तो भारत में ही दुहराई जाएगी और कहीं नहीं। जब वानर जा रहे थे सीता जी को खोजने के लिए और जब जा रहे थे युद्ध के लिए, तब दोनों बार तुलसीदास लिखते हैं, एक भी सैनिक सहयोगी ऐसा नहीं था, जिसे राम जी ने प्यार से देखा नहीं हो और जिसको पूछा नहीं हो, तुम कैसे हो। यह कितनी बड़ी बात हो गई। अब तो कोई नेता अपने साथी को देखना ही नहीं चाहता। इसीलिए लोकतंत्र की सारी कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। 
राम से सीखिए कि कैसे सेना बनाई जाती है। राम से सब सीखिए। हम जानते हैं कि शिव लिंग की स्थापना भी राम ने की और धनुष बाण से दुश्मन को पराजित भी किया। हम सिर्फ पूजा करना ही नहीं जानते। हम केवल अध्यात्म का व्याख्यान नहीं जानते, हम केवल चरित्रवान और सत्यवादी ही नहीं हैं। हमें यह भी आता है कि कैसे बाण को धनुष पर चढ़ाकर लोगों को राख बना दिया जाता है। हमें ऑपरेशन ब्लू स्टार भी आता है। विश्वामित्र जी कहा करते थे - 
एकत: चतुरो वेदान् 
एकत: सशरं धनु: ।
उभयोर्हि समर्थोस्मि
शास्त्रादपि शरादपि।।
यह रामजी का महत्व है और कितनी मर्यादा है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा था कि मैं राम चरित्र नहीं लिख रहा हूं, जानकी चरित्र लिख रहा हूं। सीता का बड़ा त्याग है। मैं उनसे बड़ा प्रभावित हूं, इसीलिए वाल्मीकि रामायण के लिए कहा उन्होंने - महान चरित्र सीता का मैं लिख रहा हूं। गोस्वामी जी ने एक बड़ी परंपरा को तोड़ दिया। गणेश जी की वंदना से कोई काम शुरू होता है सनातन धर्म में, गोस्वामी जी ने कहा कि यह परंपरा नहीं चलेगी। स्त्री की वंदना से चलेगी - 
मंगलानां च कत्र्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ... भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
यह नई बात हो गई। वंदे वाणीविनायकौ। तमाम परंपराओं को मारा कि राख कर दिया। सनातन धर्म की भी ढेर सारी परंपराओं को। कालिदास को उपमा का कवि कहते हैं। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं इनको उपमा देने नहीं आती है। नहीं तो संस्कृत में परंपरा थी - 
उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थ गौरवं, दण्डिन: पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणा:। 
ये पूरा मंत्र जपते हैं संस्कृत जगत के लोग। उन्होंने कहा कि नहीं गोस्वामी जी को जैसी उपमा आती है, कालिदास को नहीं आती। अपने रघुवंश महाकाव्य में कालिदास ने वंदना की, कहा कि पार्वती जी से युक्त भवानी शंकर की मैं वंदना करता हूं। उन्होंने कहा कि जल और तरंग को जो सम्बंध है, वही सम्बंध भवानी और शंकर का। वही सम्बंध राम और सीता का है, दोनों एक ही हैं, जल और तरंग में कोई भेद नहीं है। 
क्रमश:

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