भाग - १४
हमारा जूता सीना भी कल्याण के लिए है। क्यों? जूता सीऊंगा, दो पैसे आएंगे, तो राम जी की माला लाऊंगा, भोग लगाऊंगा, जो संत आएंगे, उनकी सेवा करूंगा। और मैं भी उसका बचा हुआ खाऊंगा। यह धर्म का बहुत बड़ा स्वरूप है। स्वयं अर्जित करना और उसके आधार पर जीवन जीकर भक्ति करना। हम लोगों का कमजोर वाला जीवन है, मांग करके दूसरों के संसाधन के ऊपर अवलंबित होकर भक्ति करना।
स्वजीवी, परोपजीवी, यह दो विभाग हैं। जूता सीना भी भक्ति है। एक बार रविदास जी की महिमा फैली, तो वहां के राजा आए और कहा कि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। रविदास जी ने कहा कि हमें जरूरत होगी तो बताऊंगा। बहुत-बहुत आपको आशीर्वाद, आप खूब भक्ति करें, गरीबों की सेवा करें, आप आए हमारे यहां, मैं धन्य हुआ, आप पर भी राम जी की कृपा बरसे।
राजा ने कहा कि आप मांगिए, आप मुझसे सेवा लीजिए।
धनवान लोग ऐसे ही कहते हैं। हमें भी एक धनी ब्राह्मण कह रहे थे कि चातुर्मास में हमारा भी भंडारा हो जाए, मैंने कहा, जब जरूरत होगी, तो हम आपके यहां कटोरा लेकर आएंगे। कोई फलोदी का था मनचला ब्राह्मण, नहीं माना, तो मैंने कहा, आप जाओ, जब आपका भंडार नहीं हुआ था, तब भी मैं प्रसाद पा रहा था और आगे भी पाऊंगा।
रविदास जी ने भी कहा था कि चलो महाराजा, आपकी जरूरत होगी, तो कटोरा लेकर आपके द्वार आऊंगा।
मैंने भी वैसा ही कहा। उनको अनुमान था कि वो ही पैसा देंगेे, तो ही चातुर्मास होगा।
बताते हैं, वह राजा जाते-जाते संत रविदास को पारसमणि दे गया और कहा, इससे जो भी आप चाहें, बना लीजिए। किसी से कुछ मांगने की कोई जरूरत नहीं, जूता बनाने की जरूरत नहीं।
रविदास जी ने कहा, रहने दीजिए, हम संतुष्ट हैं अपने जूता सीने से।
भक्त विनम्र होता है, इससे कौन लड़ेगा? राजा नहीं माना, तो अंत में रविदास जी ने कहा, आप इसे झोंपड़ी में कहीं रखवा दीजिए। राजा को बुरा लग रहा था, ये तो ले भी नहीं रहे हैं। उसने अपने मंत्री से कहा कि जहां कह रहा है, वहां रख दो। उसके बाद राजा एक साल तक पता करता रहा कि रविदास जी ने पारसमणि से सोना बनाया या नहीं बनाया। रिपोर्ट आती रही कि वैसे ही जूता सी रहे हैं, संत व भगवत सेवा वैसे ही हो रही है।
अंत में राजा एक साल के बाद आ गए, राजा ने कहा, मैंने जो पारसमणि दिया था आपने उसका उपयोग नहीं किया।
संत शिरोमणि ने कहा कि कोई जरूरत नहीं पड़ी, नहीं तो मैं जरूर करता। आपके राज्य में रहता हूं, आपका ही दिया हुआ खाता हूं, मैं क्यों नहीं करता? लेकिन मुझे लगा कि इसकी जरूरत नहीं है।
राजा ने पूछा, कहीं आपने किसी को दे तो नहीं दी, बेच तो नहीं दी?
रविदास जी ने कहा, मैं क्षमा चाहता हूं कि मैंने तो देखा ही नहीं कि कहां रखा है, जहां आपने रखवाया होगा, वहीं होगी पारसमणि।
मंत्री ने निकाला, उसी जगह पारसमणि टिकी हुई थी। एक साल बाद राजा अपनी पारसमणि ले गए।
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
जब हमें भगवान उम्मेद भवन पैलेस देंगे, जब भगवान हमें सबसे महंगी गाड़ी देंगे, सबसे सुंदर पत्नी देंगे, सबसे सुंदर बेटा-बेटी देंगे। पोता, पोती देंगे, खूब पैसा देंगे, संपत्ति देंगे, सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा देंगे, क्या तभी हम भगवान को कहेंगे कि ओम जय जगदीश हरे...
तब तो कभी कल्याण होने वाला नहीं है। अभी जो संसाधन मिला हुआ है, जो जीवन मिला है, टेढ़ा-मेढ़ा, जैसा भी मिला है, जाति, माता-पिता, जो भाषा मिली, जो स्वभाव मिला, जो भी भोजन मिला, संस्कृति, सभ्यता, मर्यादा मिली, उसी में हमें भगवान की शरण में जाकर उनकी सेवा में लग जाना है। आप आए हो यहां, कितनी अच्छी बात है। आप मेरे लिए आए हो, केवल ऐसा ही नहीं है, हम भी अपने कल्याण के लिए आपके यहां आए हैं। हमारा भी कल्याण हो, आपका भी कल्याण हो, ऐसी भगवान से प्रार्थना है। आप भी अपने लिए आए हैं, मैं भी अपने लिया आया हूं। हम दोनों - श्रोता, वक्ता मिलकर एक ही सिद्धी के लिए तत्पर और समर्पित हैं। हमारा मन भगवान में लगे, समर्पित हो।
क्रमश:
हमारा जूता सीना भी कल्याण के लिए है। क्यों? जूता सीऊंगा, दो पैसे आएंगे, तो राम जी की माला लाऊंगा, भोग लगाऊंगा, जो संत आएंगे, उनकी सेवा करूंगा। और मैं भी उसका बचा हुआ खाऊंगा। यह धर्म का बहुत बड़ा स्वरूप है। स्वयं अर्जित करना और उसके आधार पर जीवन जीकर भक्ति करना। हम लोगों का कमजोर वाला जीवन है, मांग करके दूसरों के संसाधन के ऊपर अवलंबित होकर भक्ति करना।
स्वजीवी, परोपजीवी, यह दो विभाग हैं। जूता सीना भी भक्ति है। एक बार रविदास जी की महिमा फैली, तो वहां के राजा आए और कहा कि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। रविदास जी ने कहा कि हमें जरूरत होगी तो बताऊंगा। बहुत-बहुत आपको आशीर्वाद, आप खूब भक्ति करें, गरीबों की सेवा करें, आप आए हमारे यहां, मैं धन्य हुआ, आप पर भी राम जी की कृपा बरसे।
राजा ने कहा कि आप मांगिए, आप मुझसे सेवा लीजिए।
धनवान लोग ऐसे ही कहते हैं। हमें भी एक धनी ब्राह्मण कह रहे थे कि चातुर्मास में हमारा भी भंडारा हो जाए, मैंने कहा, जब जरूरत होगी, तो हम आपके यहां कटोरा लेकर आएंगे। कोई फलोदी का था मनचला ब्राह्मण, नहीं माना, तो मैंने कहा, आप जाओ, जब आपका भंडार नहीं हुआ था, तब भी मैं प्रसाद पा रहा था और आगे भी पाऊंगा।
रविदास जी ने भी कहा था कि चलो महाराजा, आपकी जरूरत होगी, तो कटोरा लेकर आपके द्वार आऊंगा।
मैंने भी वैसा ही कहा। उनको अनुमान था कि वो ही पैसा देंगेे, तो ही चातुर्मास होगा।
बताते हैं, वह राजा जाते-जाते संत रविदास को पारसमणि दे गया और कहा, इससे जो भी आप चाहें, बना लीजिए। किसी से कुछ मांगने की कोई जरूरत नहीं, जूता बनाने की जरूरत नहीं।
रविदास जी ने कहा, रहने दीजिए, हम संतुष्ट हैं अपने जूता सीने से।
भक्त विनम्र होता है, इससे कौन लड़ेगा? राजा नहीं माना, तो अंत में रविदास जी ने कहा, आप इसे झोंपड़ी में कहीं रखवा दीजिए। राजा को बुरा लग रहा था, ये तो ले भी नहीं रहे हैं। उसने अपने मंत्री से कहा कि जहां कह रहा है, वहां रख दो। उसके बाद राजा एक साल तक पता करता रहा कि रविदास जी ने पारसमणि से सोना बनाया या नहीं बनाया। रिपोर्ट आती रही कि वैसे ही जूता सी रहे हैं, संत व भगवत सेवा वैसे ही हो रही है।
अंत में राजा एक साल के बाद आ गए, राजा ने कहा, मैंने जो पारसमणि दिया था आपने उसका उपयोग नहीं किया।
संत शिरोमणि ने कहा कि कोई जरूरत नहीं पड़ी, नहीं तो मैं जरूर करता। आपके राज्य में रहता हूं, आपका ही दिया हुआ खाता हूं, मैं क्यों नहीं करता? लेकिन मुझे लगा कि इसकी जरूरत नहीं है।
राजा ने पूछा, कहीं आपने किसी को दे तो नहीं दी, बेच तो नहीं दी?
रविदास जी ने कहा, मैं क्षमा चाहता हूं कि मैंने तो देखा ही नहीं कि कहां रखा है, जहां आपने रखवाया होगा, वहीं होगी पारसमणि।
मंत्री ने निकाला, उसी जगह पारसमणि टिकी हुई थी। एक साल बाद राजा अपनी पारसमणि ले गए।
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
जब हमें भगवान उम्मेद भवन पैलेस देंगे, जब भगवान हमें सबसे महंगी गाड़ी देंगे, सबसे सुंदर पत्नी देंगे, सबसे सुंदर बेटा-बेटी देंगे। पोता, पोती देंगे, खूब पैसा देंगे, संपत्ति देंगे, सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा देंगे, क्या तभी हम भगवान को कहेंगे कि ओम जय जगदीश हरे...
तब तो कभी कल्याण होने वाला नहीं है। अभी जो संसाधन मिला हुआ है, जो जीवन मिला है, टेढ़ा-मेढ़ा, जैसा भी मिला है, जाति, माता-पिता, जो भाषा मिली, जो स्वभाव मिला, जो भी भोजन मिला, संस्कृति, सभ्यता, मर्यादा मिली, उसी में हमें भगवान की शरण में जाकर उनकी सेवा में लग जाना है। आप आए हो यहां, कितनी अच्छी बात है। आप मेरे लिए आए हो, केवल ऐसा ही नहीं है, हम भी अपने कल्याण के लिए आपके यहां आए हैं। हमारा भी कल्याण हो, आपका भी कल्याण हो, ऐसी भगवान से प्रार्थना है। आप भी अपने लिए आए हैं, मैं भी अपने लिया आया हूं। हम दोनों - श्रोता, वक्ता मिलकर एक ही सिद्धी के लिए तत्पर और समर्पित हैं। हमारा मन भगवान में लगे, समर्पित हो।
क्रमश:
No comments:
Post a Comment