Sunday, 16 April 2017

पायो परम बिश्रामु

भाग - २
यह गोस्वामी जी ने कैसे कह दिया कि मैं स्व सुख के लिए ग्रंथ रच रहा हूं। स्व का जो अर्थ है, आत्मा केवल हमारी आत्मा नहीं, भगवान की आत्मा। 
संपूर्ण पृथ्वी भगवान का शरीर है। जैसे जल शरीर है। वैसे ही हमारी आत्मा भी है। आत्मा की भी आत्मा भगवान हैं। अपने भगवान राम की खुशी के लिए गोस्वामी जी ने रामायण की रचना की, इसी में उनका जीवन धन्य हुआ और यह काम दूसरों के लिए लाभप्रद हुआ। 
गोस्वामी जी अपने संपूर्णजीवन में जिन कर्मों, जिन मान्यताओं को, जिन विधाओं, परिपाटियों, जीवन जीने के क्रमों को वेदानुकूल स्मृतियों, पुराणों, इतिहासों ने बताया था, उन सभी क्रमों, नीतियों, सिद्धांतों को लोगों को बतलाने का प्रयास किया और यह काम उन्होंने अपने ग्रं्रंथों के माध्यम से किया। इस संसार में 126 साल तक वे रहे। इतनी ही उनकी आयु मानी जाती है। विक्रम संवत 1680 में अस्सी घाट पर उन्होंने देह का त्याग किया। 
कई लोग यह भ्रम पाल लेते हैं, यह गलत है। तुलसीदास जी ने पारिवारिक जीवन के लिए अपने जीवन के लिए राष्ट्र के जीवन के लिए मौलिक अवदान दिया। यह अवदान औरों से उन्हें अलग करता है, उस पर मैं दृष्टि डाल रहा हूं। गीता ने यह नहीं कहा कि देश के लिए लडऩा चाहिए, गीता कर्म का विधान करती है, युद्ध के लिए प्रेरित करती है, अर्जुन को प्रेरित कर रही है कि संन्यासी नहीं बनना है, युद्ध करना है। सत्य और राष्ट्र के लिए युद्ध करना है, इसी से कल्याण होगा। केवल युद्ध से कोई कर्मयोगी नहीं बनता। केवल कर्म से व्यक्ति उसके बंधन में आ जाता है। उसमें दोष आ जाता है। 
गोस्वामी जी ने शास्त्रों में प्रतिपादित सिद्धांतों को ईश्वर भक्ति की चासनी में डुबोकर रचना की। गोस्वामी जी को अपूर्वता प्राप्त है, जो वाल्मीकि रामायण से प्रवाहित हो रही है, पुराणों से प्रवाहित हो रही है, उसके लिए गोस्वामी जी ने कहा कि यदि माता-पिता की आप सेवा करें, तो उस सेवा का स्वरूप वैसा ही होना चाहिए। भक्ति से हमें कुछ लेना नहीं है। माता-पिता की सेवा उनकी खुशहाली के लिए है। अपने कत्र्तव्य के अनुपालन के लिए है। हम परिवार की सेवा करें, जो हमारे माध्यम से संसार में आए हैं, उनकी सेवा करें। हम गायों की सेवा करें, अतिथियों की सेवा करें, किसी भी तरह से हम अपनी शक्ति को कहीं लगाएं। कर्मयोग का परिमापक यंत्र है। मनमानी कर्म से जीवन नष्ट हो जाता है। जैसे लंका वाले नष्ट हो गए। तुलसीदास जी ने कहा कि हम धर्म द्वारा नियंत्रित कर्म करें, लेकिन यह ध्यान रहे कि हम सभी कर्म ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए करें। वही उत्स है, वही आत्मा है, ईश्वर समर्पण के भाव से अपने स्वार्थों को नियंत्रित करके जब हम कर्म करेंगे, तो हमारा पारिवारिक जीवन भी अच्छा हो जाएगा। समाज, राष्ट्र, संसार का जीवन सुधर जाएगा। 
कुछ लोग इसे केवल भक्ति का ग्र्रंथ मानकर चलते हैं, यह भी पूरा सही नहीं है। यह सामाजिक ग्रंंथ भी है, पारिवारिक ग्रं्रथ भी है। राम जी के प्रभाव में कोल-भील्लों में भी सुधार आ गया। रामजी को देखकर उनके जीवन, संस्कार, कर्म देखकर संपूर्ण समाज राम जी की प्रसन्नता के लिए जीने लगे। कोल-भील्लों ने भी राम जी से कुछ नहीं मांगा, कोई लौकिक लाभ सिद्ध नहीं किया। इस तरह के भाव को तैयार करते हैं गोस्वामी जी। 
डॉक्टर, किसान, वकील इत्यादि सभी को गोस्वामी जी प्रेरित करते हैं, उनका एक ही लक्ष्य है कि हर परिवार में रामराज्य आए। जैसे राम जी ने अपने पिता के वचन की पालन के लिए घर छोड़ दिया, उन्होंने स्थापित किया कि मां देव है, पिता देव हैं, इनकी सेवा करेंगे, इन्हें प्रसन्न करेंगे, तभी रामराज्य आएगा। अयोध्या में अर्थ काम के लिए युद्ध नहीं होते। वहां से राम जी संसार को प्रभावित करते हैं। राम जी के पास सद्भाव है, वाणी है, मन है, ज्ञान है, वे सभी को खुश करते चलते हैं। वह आश्रमों में स्वयं जाकर ऋषियों को सुख देते हैं। जैसे राम जी ने बिना फल की आकांक्षा के जीवन जीया, संपूर्ण संसार के प्राणियों को धन्य जीवन दिया, परिपूर्ण जीवन दिया। उन्होंने अपने सभी कत्र्तव्यों की पालना की।  
गोस्वामी जी ने अपने सभी ग्रंंथों में इन्हीं स्थापनाओं को बल दिया। उन्होंने यह नहीं सिखाया कि कैसे भी पैसा कमा लो। उन्होंने उच्च जीवन के साथ धन कमाना सिखाया है। 
गीता संत सैनिक बनाती है। उसमें संतत्व भी होता है और सैन्य भाव भी होते हैं। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस व अपने अन्य ग्रंथों के माध्यम से प्रकाश पूंज तैयार किया। यह महत्वपूर्ण है कि हमें जीवन के इन सभी सकारात्मक क्षेत्रों में प्रेरित होने की जरूरत है। हमें यह ध्यान रहे कि हम केवल अपना स्वार्थ नहीं चाहें। ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अपने जीवन को समर्पित करें। तुलसीदास जी के हर वाक्य की प्रेरणा चिंतन की अनादि परंपरा से जुड़ी हुई है। क्रमश:

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