भाग - १०
आप बुलाना जोधपुर महाराजा को चाय के लिए वो आएंगे क्या, वो बोलेंगे, आप ही आना। या हो सकता है, आपको कोई उत्तर ही न दें। राजा बड़ा आदमी होता है। मैं राजा की निंदा नहीं कर रहा हूं, लेकिन व्यावहारिकता की बात है, किसी आम आदमी के बुलाने से वह चाय पीने आएगा क्या?
एक बार फलोदी में यज्ञ हो रहा था, महाराजा भी दर्शन के लिए आए। वर्ष १९९२ में वहां विशाल यज्ञ का आयोजन था। लोगों ने कहा, महाराज आने वाले हैं आप रुकिए, मिलकर जाइए।
मैंने कहा, पहले से सूचना नहीं है। मैं चलता हूं।
यज्ञ परिसर में महाराज की गाड़ी घुस रही थी, मेरी निकल रही थी। जहां मैं ठहरा था, मैं वहां चला गया। घटना दोपहर १२ बजे की थी। वहां लोगों ने कहा कि महाराजा आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, अभी मैं स्नान करके भंडार बनाने जा रहा हूं, भोग लगाऊंगा, प्रसाद पाऊंगा, थोड़ी देर विश्राम करूंगा, उसके बाद पांच बजे मिलूंगा।
लोगों ने कहा, महाराज हैं, आप मिल लेते।
मैंने कहा, उनके पास उम्मेद भवन पैलेस है, मैं भिखमंगा महाराजा हूं, आज पता चल जाए कि कौन महाराज है। अपनी परंपरा में इस राष्ट्र में संत को भी महाराज ही बोलते हैं। जिसके पास राम हैं, वो महाराजा या भवन वाला महाराजा?
मैंने कहा कि मिलना हो, तो शाम पांच बजे मिलते हैं।
महाराज भी रुके, वो शाम को आए, पत्नी और बुआ साथ थीं। लोगों ने कहा कि महाराजा के पैरों में तकलीफ है, इन्हें कुरसी पर बैठने दिया जाए। आज्ञा दीजिए।
मैंने कहा, जरूर-जरूर।
सनातन धर्म में रोगी, वृद्ध और बालक के लिए बैठने की छूट है। चटाई बिछी हुई थी मेरे कमरे में, मैं चौकी पर बैठता था, लेकिन तब महाराजा ने कहा कि इन्हीं कुरसियों पर बैठकर तो पैर खराब हो गए, आज तो यहां नीचे चरणों में ही बैठना है।
जो कुरसी लेकर आगे-पीछे कर रहे थे, उनका मुंह छोटा हो गया। जो असली घटना आपको बतानी है, वह सुनिए। मेरे पास बतासा रखा था बड़ा-बड़ा, वही मैं देता था सबको। महाराज को भी वही देना था, लेकिन मेरे जजमान के घर वाले काजू कतली, बादाम की चक्की ले आए, चांदी का ढक्कन, प्लेट, लेकर आए। मुझे देने लगे।
मैंने पूछा, ये क्या है जी?
उन्होंने कहा, महाराजा को प्रसाद दीजिए।
मैंने कहा, मैं एक ही प्रसाद सबको देता हूं, प्रसाद है बतासा का। एक ही प्रसाद देता हूं रिक्शा चलाने वालों को भी और राज भवन चलाने वाले को भी। यह भेद नहीं होगा। यह मेरा कमरा है, जहां मैं रहता हूं। मेरे कमरे में मेरा नियम चलेगा। भगवान के दिव्य धाम में एक ही प्रसाद भोग सभी लोग लेते हैं, ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। जब हम भगवान राम के यहां जाएंगेे, कृष्ण के यहां जाएंगे, तो वहां दो तरह का भोजन नहीं बनता, जो भगवान ग्रहण करते हैं, वहीं वहां गए हुए धन्य जीवन के लोग भी ग्रहण करते हैं। वहां भी सभी एक ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। भोग में साम्य है। मैंने कहा, एक बतासा दूंगा।
मैंने जजमान से विनोद में कहा, जब आपने हमें ही काजू कतली नहीं खिलाया, तो इनको दूंगा क्या?
यह बात महाराजा के सामने ही हो रही थी। जिनके यहां रुके थे, वो लड़े, लेकिन मैं नहीं माना। यह नहीं डरा कि जिनके घर में ठहरा हूं, वो फिर ठहराएंगे या नहीं, मैंने कहा, ले जाओ, बाहर जब महाराजा निकलेंगे, तो इनको काजू कतली खिलाना।
महाराजा ने कहा कि बतासा ही चाहिए, काजू कतली तो खाते ही हैं, आपके यहां से बतासा भी अमृत से भी श्रेष्ठ है, मोक्ष देने वाला है।
क्या बात है, धन्य है यह मरुभूमि। जहां वैभव के साथ जीने वाले राजा को भी पता है, यह बतासा नहीं है, यह अमृत से भी श्रेष्ठ है। वो असली वाला अमृत तो स्वर्ग में जाने पर मिलेगा, यज्ञ करने पर मिलेगा, लेकिन संतों के यहां से जो मिलेगा प्रसाद, उसको खाने के बाद लौटना नहीं पड़ता। दिव्य धाम की यात्रा हो जाती है। मैंने बतासा दिया और महाराजा के मुंह में फंस गया। मैंने महाराजा को कहा, दांत है या नहीं, आज भले किसी को काटा-दबाया नहीं हो, आज बतासा को काटो, दबाओ तो।
क्रमश:
आप बुलाना जोधपुर महाराजा को चाय के लिए वो आएंगे क्या, वो बोलेंगे, आप ही आना। या हो सकता है, आपको कोई उत्तर ही न दें। राजा बड़ा आदमी होता है। मैं राजा की निंदा नहीं कर रहा हूं, लेकिन व्यावहारिकता की बात है, किसी आम आदमी के बुलाने से वह चाय पीने आएगा क्या?
एक बार फलोदी में यज्ञ हो रहा था, महाराजा भी दर्शन के लिए आए। वर्ष १९९२ में वहां विशाल यज्ञ का आयोजन था। लोगों ने कहा, महाराज आने वाले हैं आप रुकिए, मिलकर जाइए।
मैंने कहा, पहले से सूचना नहीं है। मैं चलता हूं।
यज्ञ परिसर में महाराज की गाड़ी घुस रही थी, मेरी निकल रही थी। जहां मैं ठहरा था, मैं वहां चला गया। घटना दोपहर १२ बजे की थी। वहां लोगों ने कहा कि महाराजा आपसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, अभी मैं स्नान करके भंडार बनाने जा रहा हूं, भोग लगाऊंगा, प्रसाद पाऊंगा, थोड़ी देर विश्राम करूंगा, उसके बाद पांच बजे मिलूंगा।
लोगों ने कहा, महाराज हैं, आप मिल लेते।
मैंने कहा, उनके पास उम्मेद भवन पैलेस है, मैं भिखमंगा महाराजा हूं, आज पता चल जाए कि कौन महाराज है। अपनी परंपरा में इस राष्ट्र में संत को भी महाराज ही बोलते हैं। जिसके पास राम हैं, वो महाराजा या भवन वाला महाराजा?
मैंने कहा कि मिलना हो, तो शाम पांच बजे मिलते हैं।
महाराज भी रुके, वो शाम को आए, पत्नी और बुआ साथ थीं। लोगों ने कहा कि महाराजा के पैरों में तकलीफ है, इन्हें कुरसी पर बैठने दिया जाए। आज्ञा दीजिए।
मैंने कहा, जरूर-जरूर।
सनातन धर्म में रोगी, वृद्ध और बालक के लिए बैठने की छूट है। चटाई बिछी हुई थी मेरे कमरे में, मैं चौकी पर बैठता था, लेकिन तब महाराजा ने कहा कि इन्हीं कुरसियों पर बैठकर तो पैर खराब हो गए, आज तो यहां नीचे चरणों में ही बैठना है।
जो कुरसी लेकर आगे-पीछे कर रहे थे, उनका मुंह छोटा हो गया। जो असली घटना आपको बतानी है, वह सुनिए। मेरे पास बतासा रखा था बड़ा-बड़ा, वही मैं देता था सबको। महाराज को भी वही देना था, लेकिन मेरे जजमान के घर वाले काजू कतली, बादाम की चक्की ले आए, चांदी का ढक्कन, प्लेट, लेकर आए। मुझे देने लगे।
मैंने पूछा, ये क्या है जी?
उन्होंने कहा, महाराजा को प्रसाद दीजिए।
मैंने कहा, मैं एक ही प्रसाद सबको देता हूं, प्रसाद है बतासा का। एक ही प्रसाद देता हूं रिक्शा चलाने वालों को भी और राज भवन चलाने वाले को भी। यह भेद नहीं होगा। यह मेरा कमरा है, जहां मैं रहता हूं। मेरे कमरे में मेरा नियम चलेगा। भगवान के दिव्य धाम में एक ही प्रसाद भोग सभी लोग लेते हैं, ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। जब हम भगवान राम के यहां जाएंगेे, कृष्ण के यहां जाएंगे, तो वहां दो तरह का भोजन नहीं बनता, जो भगवान ग्रहण करते हैं, वहीं वहां गए हुए धन्य जीवन के लोग भी ग्रहण करते हैं। वहां भी सभी एक ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। भोग में साम्य है। मैंने कहा, एक बतासा दूंगा।
मैंने जजमान से विनोद में कहा, जब आपने हमें ही काजू कतली नहीं खिलाया, तो इनको दूंगा क्या?
यह बात महाराजा के सामने ही हो रही थी। जिनके यहां रुके थे, वो लड़े, लेकिन मैं नहीं माना। यह नहीं डरा कि जिनके घर में ठहरा हूं, वो फिर ठहराएंगे या नहीं, मैंने कहा, ले जाओ, बाहर जब महाराजा निकलेंगे, तो इनको काजू कतली खिलाना।
महाराजा ने कहा कि बतासा ही चाहिए, काजू कतली तो खाते ही हैं, आपके यहां से बतासा भी अमृत से भी श्रेष्ठ है, मोक्ष देने वाला है।
क्या बात है, धन्य है यह मरुभूमि। जहां वैभव के साथ जीने वाले राजा को भी पता है, यह बतासा नहीं है, यह अमृत से भी श्रेष्ठ है। वो असली वाला अमृत तो स्वर्ग में जाने पर मिलेगा, यज्ञ करने पर मिलेगा, लेकिन संतों के यहां से जो मिलेगा प्रसाद, उसको खाने के बाद लौटना नहीं पड़ता। दिव्य धाम की यात्रा हो जाती है। मैंने बतासा दिया और महाराजा के मुंह में फंस गया। मैंने महाराजा को कहा, दांत है या नहीं, आज भले किसी को काटा-दबाया नहीं हो, आज बतासा को काटो, दबाओ तो।
क्रमश:
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