Sunday, 16 April 2017

सब नर करहीं परस्पर प्रीती

पायो परम बिश्रामु
भाग - ३
संसार में तलवार के बल पर भी कई लोगों ने अपनी बात को स्थापित करने का प्रयास किया। जब वे अपने को सिद्ध मानने लगे, तो मक्का वालों को कहा कि आप लोग मेरी बात मानिए, मुझे ईश्वर दूत, प्रतिनिधि मानिए। वहां के लोगों ने कहा कि हम नहीं मानते कि आप ईश्वर का संदेश लेकर आए हैं, तो वे मदीना चले गए, वहां उन्होंने लोगों को अपने विचारों से सहमत किया। वह उनके मामा का गांव था, वहां से आकर उनके लोगों ने मक्का वालों को कहा कि जो बात मानेगा, वही मक्का में रहेगा। हमारी बात मानो।  
इधर तो राम जी सभा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैंने जो कहा, उसमें जो भी गलत हो, वेद, शास्त्र और नीति विरुद्ध हो, तो आप मेरी बात को नहीं मानिए, कहीं से भी मैं हिंसक होकर, मनमानी करके मैं अपनी बात को आपसे मनवाना नहीं चाहता। 
लंका में भी उन्होंने तभी युद्ध किया, जब सारे अन्य प्रयास विफल हो गए। उनके संपूर्ण प्रयास सकारात्मक थे। आज दुनिया में तमाम तरह के ग्रंथ बनते हैं, लेकिन किसी की समकक्षता गोस्वामी जी के ग्रंथों से नहीं होती। वे केवल ईश्वर प्रेम को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। गोस्वामी जी ने वही किया, जो राम जी ने किया। 
कहा जाता है कि दुनिया में रामचरितमानस फिर बनने वाला नहीं है। कई लोग रामायण लिखकर गोस्वामी तुलसीदास बनना चाहते हैं, लेकिन यह संभव नहीं है। लेकिन लोगों के पास राम जी हों, तब तो ऐसे ग्रंथ की रचना हो। यदि राम जी मिल भी गए, तो तुलसीदास जी का मन कहां से लाएंगे। पूरी दुनिया में इस स्तर के महाकाव्य की रचना नहीं हो पाई। तुलसीदास जी की कोई तुलना नहीं है। उन जैसी प्रतिभा कहां से आएगी? 
इस दुनिया में जितने मांगलिक भाव हैं, उन सबका समुद्र ईश्वर माना जाता है। हमारा ईश्वर समुद्र है, उसके अवतार भी समुद्र हैं। यह केवल परोक्ष ज्ञान में नहीं है, अपरोक्ष ज्ञान में भी है। रावण को भी अपरोक्ष ज्ञान होता, तो वह महापाप नहीं करता। ज्ञान उसके हृदय में कभी नहीं उतरा। उसे केवल ऊपरी ज्ञान था। 
राम जी मनुष्यावतार हैं, वे सबकुछ जानते हैं, लेकिन उन्होंने ज्ञान का संग्रह किया। अपने चरित्र में ज्ञान को उतारा और अपने संपूर्ण अवतारकाल में लोगों को वह ज्ञान दिया, गुणों को प्रसारित किया, तभी रामराज्य की स्थापना हो पाई। सभी लोग उसी तरह से जीवन जीने लगे। रामराज्य में लोग केवल राम जी से ही प्रेम नहीं कर रहे हैं, उनमें परस्पर भी प्रीति है। 
सब नर करहीं परस्पर प्रीती
ईश्वर के लिए समर्पित होकर हम कर्म करें। इससे ऐसे समाज की रचना होती है, जो समाजवाद कभी नहीं कर सकता, लोकतांत्रिक पार्टियां ऐसा नहीं कर सकतीं। ईश्वर को नहीं मानने वाला भी कर्मयोगी कहलाता है, महर्षि अरविंद ने ऐसा उल्लिखित किया। वेदों, पुराणों को नहीं मानने वाला भी बोलता है कि मैं कर्म योगी हूं। वेदों से जो धारा आई थी वाल्मीकि रामायण में, उसमें एक अद्भुत स्थापना हुई, गोस्वामी जी केवल कर्म की शिक्षा नहीं देते, केवल ज्ञान या भक्ति की शिक्षा नहीं देते, ईश्वर को समर्पित होकर, जो विधान शास्त्रों में वर्णित है, उनके अनुरूप स्वयं चलते भी हैं। कहा जाता है कि यहां के ऋषियों ने पूरी दुनिया को ज्ञान दिया। भारत में अभी भी विश्व गुरुत्व है। छोटे उद्देश्यों के लिए जीकर कोई विश्व गुरु नहीं होता। लिखा है मनु ने कहा कि श्रेष्ठ ऋषियों ने ब्राह्मणों ने संपूर्ण संसार को चरित्र की शिक्षा दी। हम पहले स्वयं को चरित्रवान बनाते हैं और उसके बाद ही दूसरों को चरित्रवान बनने के लिए प्रेरित करते हैं। रामराज्य में भी ऐसा ही होता है। रामजी पहले स्वयं चरित्र शिरोमणि हैं, उसके बाद ही उनका व्यापक प्रभाव समाज पर दिखने लगता है। संसार को चरित्र की शिक्षा भारत ने ही दी है। 
गोस्वामी जी ने अपने संपूर्ण जीवन में ज्ञान को प्रकट किया। उसे अपने चरित्र में उतारा, जैसे राम जी ने अपने संपूर्ण काल में चरित्र के माध्यम से संसार को राम राज्य का स्वरूप दिया कि कैसे आदमी को होना चाहिए, उसी दिशा में गोस्वामी जी के प्रयास हैं। वे केवल भक्त नहीं हैं, केवल कवि नहीं हैं। 
आज कई कविता बनाने वाले हैं, जिनका जीवन कहीं भी ज्ञान से नहीं जुड़ा है, जिनका जीवन दुराचारों से जुड़ा है। 
जब तक हमारा ज्ञान चरित्र में नहीं उतरे, तब तक कुछ भी सिद्ध नहीं होगा। आज भी जो लोग राम जी के रास्ते पर चलकर अपना जीवन संवारने में जुटे हैं। जनता की सेवा में जो लगे हैं, उन्हें भी प्रेरित होने की जरूरत है। नौकरी करने वालों को भी गोस्वामी जी के अभियान से जुडऩा चाहिए। हम केवल कर्म के संपादक नहीं बन जाएं, केवल हम तोते जैसे रटंत नहीं बन जाएं। जैसे तोता बोलता है कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, उसमें फंसना नहीं, लेकिन वह स्वयं फंस जाता है, क्योंकि उसे जाल का पूरा ज्ञान नहीं है। क्रमश:

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