भाग - १३
सिद्धों की बातों को सिद्ध लोग ही समझते हैं। मैं असिद्धों की भाषा बोलता हूं। एक मेरे गुरु थे, जिनसे मैं मीमांसा दर्शन पढ़ता था, जिनको मूल ग्रंथ और व्याख्या शब्दश: याद थी। अद्भुत विद्वान थे सुब्रह्मण्यम शास्त्री, दक्षिण भारत के थे। मदन मोहन मालवीय उनको अपना बेटा मानते थे। मैं जब उनका स्मरण करता हूं, तो मेरा शरीर पिघलने लगता है। अभी भी पिघल गया, क्योंकि उनका बहुत स्नेह था मेरे साथ। उन्होंने दो अक्षर जो मुझे दिया, वो बहुत दिया। वह कहते थे, क्या ऐसा योग न हो जाए कि कहीं हम फिर इक_े हो जाएं। आपको देखकर बहुत खुशी होती है, काशी नहीं छोडऩा।
लेकिन मैं काशी छोडक़र हरिद्वार आ गया।
वे कहते थे, वह वक्ता ही जड़ है, जिसकी बात को श्रोता समझ नहीं सके।
अरे खिचड़ी में घी पडऩा चाहिए, लेकिन इतना न पड़ जाए कि बाढ़ आ जाए थाली में, तो गड़बड़ा जाए। बहुत ज्यादा भी घी न हो कि पेट खराब हो जाए। धीरे-धीरे बात होनी चाहिए। यह आचार्यों की शैली है। धीरे-धीरे अपनी बात को कहना। अपनी बात का भी व्याख्यान करना। जब तक लगे कि श्रोता पूरा समझ नहीं गया, तब तक कहते रहना। तो बात आगे बढ़ेगी। तो भगवान की दया से आप सभी को अब शंकराचार्य जी के वचन की ओर ले चलता हूं। जहां शंकराचार्य जी ने कहा कि हे भगवान, मैं ऐसा नहीं कि कभी आपकी पूजा करता हूं और कभी रोटी-दाल के लिए करता हूं, यह तो छोटा वाला काम हुआ, बारह घंटा रोटी के लिए और पांच मिनट अगरबत्ती के लिए, फूल के लिए, इसमें कल्याण होगा क्या? यहां बैठे हुए लोगों से मैं पूछता हूं कि आज तक आपने जो जीवन जीया है, उसमें से कितना धन के लिए जिया, कितना आपने भोग के लिए जिया, कितना आपने धर्म के लिए जिया और कितना आपने मोक्ष के लिए जिया। जीवन तो इतना ही है कि बहुत मुश्किल से मिला है। आपको बतलाना चाहिए, सोचना चाहिए, मन में आप निर्धारण करें, अरे कमाने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी गरीबी नहीं गई। नहाने में और सजने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी सुंदरता नहीं आई। जमाने में ही सारी शक्ति लग गई, फिर भी मोहल्ले में भी प्रतिष्ठा नहीं हुई। घर के ही दो लोग नहीं मान रहे हैं कि आप भले आदमी हैं। सारा जीवन निकल गया, लेकिन दो कमरे अभी अधूरे ही हैं, पूरे नहीं हुए हैं। दरवाजा लग गया, तो खिडक़ी नहीं है, खिडक़ी लग गई, तो मच्छर वाली जाली नहीं है। मार्बल लग गया, तो घिसाई नहीं और घिसाई हो गई, तो भंडार में ग्रेनाइट नहीं, सब अधूरा ही अधूरा है। आपको बतलाया था कि दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा पैदा करने वाले लक्ष्मीनिवास मित्तल का मकान बिक गया २५० करोड़ रुपए का। आपके राजस्थान में नहीं, पूरे देश में ऐसा आदमी नहीं, जो दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा उत्पन्न करता है, उसने बहुत शौक से लिया होगा मकान, वह बिक गया। इसको बोलते हैं अर्थ, भोग। धर्म के लिए कितना किया? धर्म के लिए कितना जीवन? कितनी चेष्टाएं, कितने श्वांस, कितने कदम, कितनी रक्त की बूंदें, बतलाएं कि आपने धर्म के लिए कितना किया? मोक्ष के लिए तो खाता ही खाली है। जगद्गुरु शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि आप यह नहीं मानना कि मैं थोड़ी के लिए आराधना करता हूं और थोड़ी देर के लिए कमाता हूं, थोड़ी देर के लिए खाता हूं, थोड़ी देर के लिए सोता हूं। वह जमाना गया, जब चार पुरुषार्थों में जीवन की शक्ति को उड़लते हैं, अब मैं उस अवस्था में पहुंच गया हूं, जो मैं करता हूं, वह आपकी आराधना में ही करता हूं और कुछ नहीं करता।
जो-जो कर्म करता हूं, वह सब संपूर्ण हे शम्भू आपकी आराधना ही है, मैं और कोई काम नहीं करता। यह जीवन हमें चाहिए। जूता सीने वाले रविदास से भी कोई पूछता था, तो बोलते थे कि राम जी की आराधना कर रहा हूं। आप कल्पना करेंगे?ï धन्य है सनातन धर्म, जिसने रविदास को अपने सिर पर रखा, ब्राह्मणों ने चरणामृत लिया और उच्च आदर दिया, जो आदर दुनिया में हीन अवस्था के जीवन को नहीं मिला।
मैं पहले भी कह चुका हूं, ईसाई धर्म के काले रंग के व्यक्ति को संतत्व की उपाधि द्वितीय बुश के कार्यकाल में मिली। नहीं तो ईसाई धर्म में काला महात्मा नहीं होता। हमारा तो जूता सीने वाला भी संत शिरोमणि हो जाता है। आप सभी लोगों की बात कह रहा हूं। आप यह नहीं समझना कि महाराज अपने श्रीमठ या रामानंद संप्रदाय की बात कर रहे हैं।
क्रमश:
सिद्धों की बातों को सिद्ध लोग ही समझते हैं। मैं असिद्धों की भाषा बोलता हूं। एक मेरे गुरु थे, जिनसे मैं मीमांसा दर्शन पढ़ता था, जिनको मूल ग्रंथ और व्याख्या शब्दश: याद थी। अद्भुत विद्वान थे सुब्रह्मण्यम शास्त्री, दक्षिण भारत के थे। मदन मोहन मालवीय उनको अपना बेटा मानते थे। मैं जब उनका स्मरण करता हूं, तो मेरा शरीर पिघलने लगता है। अभी भी पिघल गया, क्योंकि उनका बहुत स्नेह था मेरे साथ। उन्होंने दो अक्षर जो मुझे दिया, वो बहुत दिया। वह कहते थे, क्या ऐसा योग न हो जाए कि कहीं हम फिर इक_े हो जाएं। आपको देखकर बहुत खुशी होती है, काशी नहीं छोडऩा।
लेकिन मैं काशी छोडक़र हरिद्वार आ गया।
वे कहते थे, वह वक्ता ही जड़ है, जिसकी बात को श्रोता समझ नहीं सके।
अरे खिचड़ी में घी पडऩा चाहिए, लेकिन इतना न पड़ जाए कि बाढ़ आ जाए थाली में, तो गड़बड़ा जाए। बहुत ज्यादा भी घी न हो कि पेट खराब हो जाए। धीरे-धीरे बात होनी चाहिए। यह आचार्यों की शैली है। धीरे-धीरे अपनी बात को कहना। अपनी बात का भी व्याख्यान करना। जब तक लगे कि श्रोता पूरा समझ नहीं गया, तब तक कहते रहना। तो बात आगे बढ़ेगी। तो भगवान की दया से आप सभी को अब शंकराचार्य जी के वचन की ओर ले चलता हूं। जहां शंकराचार्य जी ने कहा कि हे भगवान, मैं ऐसा नहीं कि कभी आपकी पूजा करता हूं और कभी रोटी-दाल के लिए करता हूं, यह तो छोटा वाला काम हुआ, बारह घंटा रोटी के लिए और पांच मिनट अगरबत्ती के लिए, फूल के लिए, इसमें कल्याण होगा क्या? यहां बैठे हुए लोगों से मैं पूछता हूं कि आज तक आपने जो जीवन जीया है, उसमें से कितना धन के लिए जिया, कितना आपने भोग के लिए जिया, कितना आपने धर्म के लिए जिया और कितना आपने मोक्ष के लिए जिया। जीवन तो इतना ही है कि बहुत मुश्किल से मिला है। आपको बतलाना चाहिए, सोचना चाहिए, मन में आप निर्धारण करें, अरे कमाने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी गरीबी नहीं गई। नहाने में और सजने में ही सारा जीवन निकल गया, फिर भी सुंदरता नहीं आई। जमाने में ही सारी शक्ति लग गई, फिर भी मोहल्ले में भी प्रतिष्ठा नहीं हुई। घर के ही दो लोग नहीं मान रहे हैं कि आप भले आदमी हैं। सारा जीवन निकल गया, लेकिन दो कमरे अभी अधूरे ही हैं, पूरे नहीं हुए हैं। दरवाजा लग गया, तो खिडक़ी नहीं है, खिडक़ी लग गई, तो मच्छर वाली जाली नहीं है। मार्बल लग गया, तो घिसाई नहीं और घिसाई हो गई, तो भंडार में ग्रेनाइट नहीं, सब अधूरा ही अधूरा है। आपको बतलाया था कि दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा पैदा करने वाले लक्ष्मीनिवास मित्तल का मकान बिक गया २५० करोड़ रुपए का। आपके राजस्थान में नहीं, पूरे देश में ऐसा आदमी नहीं, जो दुनिया का २२ प्रतिशत लोहा उत्पन्न करता है, उसने बहुत शौक से लिया होगा मकान, वह बिक गया। इसको बोलते हैं अर्थ, भोग। धर्म के लिए कितना किया? धर्म के लिए कितना जीवन? कितनी चेष्टाएं, कितने श्वांस, कितने कदम, कितनी रक्त की बूंदें, बतलाएं कि आपने धर्म के लिए कितना किया? मोक्ष के लिए तो खाता ही खाली है। जगद्गुरु शंकराचार्य जी कह रहे हैं कि आप यह नहीं मानना कि मैं थोड़ी के लिए आराधना करता हूं और थोड़ी देर के लिए कमाता हूं, थोड़ी देर के लिए खाता हूं, थोड़ी देर के लिए सोता हूं। वह जमाना गया, जब चार पुरुषार्थों में जीवन की शक्ति को उड़लते हैं, अब मैं उस अवस्था में पहुंच गया हूं, जो मैं करता हूं, वह आपकी आराधना में ही करता हूं और कुछ नहीं करता।
जो-जो कर्म करता हूं, वह सब संपूर्ण हे शम्भू आपकी आराधना ही है, मैं और कोई काम नहीं करता। यह जीवन हमें चाहिए। जूता सीने वाले रविदास से भी कोई पूछता था, तो बोलते थे कि राम जी की आराधना कर रहा हूं। आप कल्पना करेंगे?ï धन्य है सनातन धर्म, जिसने रविदास को अपने सिर पर रखा, ब्राह्मणों ने चरणामृत लिया और उच्च आदर दिया, जो आदर दुनिया में हीन अवस्था के जीवन को नहीं मिला।
मैं पहले भी कह चुका हूं, ईसाई धर्म के काले रंग के व्यक्ति को संतत्व की उपाधि द्वितीय बुश के कार्यकाल में मिली। नहीं तो ईसाई धर्म में काला महात्मा नहीं होता। हमारा तो जूता सीने वाला भी संत शिरोमणि हो जाता है। आप सभी लोगों की बात कह रहा हूं। आप यह नहीं समझना कि महाराज अपने श्रीमठ या रामानंद संप्रदाय की बात कर रहे हैं।
क्रमश:
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