Tuesday, 31 December 2024

भगवत्स्मरण करें

कई जन्मों के संस्कार हमारी आत्मा में पड़े हुए हैं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि वे याद नहीं आते, जन्म-जन्मांतरों में हमने जो अनुभव किया, उसमें जो प्रगाढ़ संस्कार थे, जो मजबूत संस्कार थे, बस वही साथ रह जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं, ये संस्कार मन में पड़े हुए हैं, तो कुछ कहते हैं, आत्मा में पड़े हुए हैं। उनका कोई उद्बोधक नहीं मिलता, उनको कोई जगाने वाला नहीं मिलता। संसार में तमाम तरह के कर्म हैं, जो पूर्वजन्म में किए गए होंगे, जिनका स्मरण नहीं होता। न जाने किस-किस योनी में जन्मे होंगे, गिद्ध रहे होंगे, कभी कुत्ता रहे होंगे, कभी बिल्ली रहे होंगे, कितने चूहों को दबा दिया होगा। लोग कहते हैं कि हमने कोई पाप नहीं किया, फिर हमारे जीवन में कष्‍ट क्यों आ गया। व्यवसाय में मंदी आ गई, तो कई लोग सोच रहे होंगे, हमने तो कुछ नहीं किया, फिर यह मंदी कैसे आ गई। जरा अपने पिछले जन्म का तो ध्यान करो, भले आदमी। बिल्ली रहे होगे, न जाने कितने चूहों का गला दबा दिया होगा। कितने पाप हुए, कितनी अनुभूतियां हुईं गलत, जो मजबूत संस्कार थे, वही रह गए। संस्कार यदि मजबूत हों, तभी रहते हैं, वरना मिट जाते हैं।

तभी तो कृष्ण ने कहा, 'अंत में मेरा स्मरण करो?

अर्जुन ने कहा, 'अंत में कैसे होगा?

तो कृष्ण ने कहा, 'तब तो निरंतर स्मरण करना होगा।

जो निरंतरता, प्रगाढ़ता, अनन्यता के साथ अत्यंत श्रद्धा के साथ स्मरण होता है, वही अंतिम काल में होता है। ऐसा नहीं है कि बुढ़ापे में ही रामजी याद आएंगे, रामजी को तो प्रारंभ से ही याद रखना होगा। जो प्रारंभ में याद रखेगा, उसे ही रामजी बाद में भी याद रहेंगे। 


 


 


 


 


 


 


 


 




 


 

धर्म का ज्ञान

अब ज्यादातर लोगों को पता नहीं है कि धर्म का क्या मतलब है। धर्म का ऐसा क्रम जो जमीन से लेकर आकाश तक है। विद्यार्थी का, भाई का, मां का, पिता का ज्ञान। जिसमें धर्म नहीं होगा, वह पत्‍नी नहीं होगी। जिसको धर्म का ज्ञान नहीं होगा, वह पति नहीं बन सकेगा, जिसको धर्म का ज्ञान नहीं होगा, वह न छात्र बनेगा, न किसान बनेगा। धर्म के ज्ञान से ही कुछ बना जा सकता है।

विनोबा भावे कहते थे, जो मजदूर हैं, वही शेषनाग हैं, यदि ये नहीं होते, तो पृथ्वी को धारण कौन करता?

मेहतर माने महत्तर। महान काम जो करता है, उसको महत्तर बोलते हैं, वही बिगड़कर मेहतर हो गया। महत्त शब्द से तरप प्रत्यय करने पर महत्तर बनता है, दो में जो महान हो। अपना ही आदमी जब मल-मूत्र साफ करता है, तो बहुत मुश्किल से सुबह वाली बेला बीतती है, किन्तु जो दिन भर यही काम करता है, उसे महान का दर्जा होना ही चाहिए। किन्तु लोग उससे ही घृणा करने लगे। हमारे धर्म ने कभी यह नहीं कहा कि महत्तर से घृणा करो।

हमने कहा, तुम भी नहाकर आओ। वैसे बारह बजे तक जो झाड़ू लगाएगा, वह सुबह मंदिर कैसे आएगा, तो कहा गया, तुम शिखर का दर्शन करो, तो तुम्हें बराबरी का फल मिलेगा। इसमें क्या समस्या है? पति को एड्स हो जाए, तो पत्‍नी बोले कि मैं आपकी पत्‍नी हूं, लेकिन आप दूर रहेंगे, तो हमारा जीवन सुरक्षित होगा। क्या दिक्कत है, वह कैसे व्याभिचारिणी हुई? आचार का वर्गीकरण, विद्या का वर्गीकरण, धर्म का वर्गीकरण हो, किन्तु ईश्‍वर  के आधार पर घृणा नहीं होनी चाहिए। यहां तो भगवान ने सबरी को भी स्वीकार किया। कुब्जा जिसके सभी अंग टेढ़े-मेढ़े थे, लेकिन उसमें भावना आसक्ति की थी कि भगवान एक बार आलिंगन कर लें, भगवान ने इच्छा पूरी की, गले लगा लिया, तो सारे अंग ठीक हो गए, कुब्जा सुन्दरी हो गई।

अधर्म से जो पैसा आएगा

महर्षि कणाद ने कहा कि धर्म वह है, जो अभ्युदय मतलब लौकिकता को देता है, सकारात्मक नैतिक उन्नति को देता है। सुन्दरता तो सुन्दरता है, लेकिन वह सुन्दरता नहीं है, जो सिनेमा में काम आए। सुन्दर होकर यदि वेश्यावृति ही कोई औरत करती है, तो यह ठीक नहीं है। जो अपने पति का साथ दे, जहां दिया माता-पिता ने, उसको मर्यादा में रहकर निभाए। मर्यादा में ही सुख है। सुन्दरता चाहिए, तो शालीनता भी चाहिए कि जहां वह जाए, सबको गदगद कर दे। कितने लोगों को कोई सुन्दरी पति बना सकती है, दुनिया की किसी सुन्दरी ने दुनिया के सभी लोगों को कभी भी वासनात्मक सुख नहीं दिया है और न दे सकती है। सुन्दरता होनी चाहिए, किन्तु वह सकारात्मक होनी चाहिए। बल भी होना चाहिए। सैनिक बलवान होना चाहिए, बल का अपना क्षेत्र है, मजदूरों को भी भगवान बल दें। बल नहीं होता, तो मैं गरज-गरज कर बोलता क्या? बल है, तभी तो बोल रहा हूं, बल नहीं होगा, तो जो बोलूंगा, वह किसी को सुनाई ही नहीं पड़ेगा। लेखनी में भी बल होना चाहिए, तभी तो संपादन, लेखन गरजेगा। बल हो, सुन्दरता हो, लेकिन उसका सकारात्मक उपयोग हो, यही धर्म है।

पैसा धर्म से भी आता है और अधर्म से भी आता है। धर्म से जो पैसा आएगा, वह सकारात्मक विकास करेगा और भोग का सही संसाधन मुहैया करवाएगा और अधर्म से जो पैसा आएगा, वह आदमी को गलत बनाएगा, दूसरी पत्‍नी, मांस मदिरा, अमुक-गाड़ी, हों हों, शोर-शराबा। नई-नई गाड़ी खरीद रहे हैं, नया-नया बंगला बना रहे हैं। वश चले, तो रोज बंगला बने, शरीर तो बना ही नहीं रहे हो रोज। पैसा हो जाता है, तो आदमी को लगने लगता है कि यह मकान बहुत छोटा है। अरे मरो इसी में भले आदमी, बच्चों को कहो कि आप पंद्रह एकड़ में बनाना। अधर्म हुआ, तो बहुतों को देखो, जो भगवान ने मकान दिया था, वही टूट रहा है।

इसलिए धर्म जीवन के विकास का सही साधन है।

सुख का कारण

लोगों को आज तक समझ में नहीं आया कि सुख का कारण क्या है? यदि सुख का कारण पत्‍नी है, तो जब से सृष्‍टि बनी है, ऐसी अनेक पत्नियां भी हुई हैं, जिन्होंने अपने पतियों को ही मार डाला, प्रेमियों के साथ मिलकर, धन के लिए या किसी अन्य कारण से। दूसरी बात, अगर जांच की जाए, तो सौ में से पांच लोग भी नहीं होंगे, जो पत्‍नी से सुख प्राप्‍त  कर रहे होंगे। कहीं वैचारिक भिन्नता है, तो कहीं किसी और प्रकार के  मतभेद हैं। ऐसे में कैसे सुख का कारण है पत्‍नी? दुनिया का कोई भी चिंतक यह निश्चित नहीं कर सकता है कि सुख का कारण पत्‍नी है, क्योंकि उससे दुख भी हो रहा है, उससे तमाम कठिनाइयां भी हो रही हैं, इसलिए हमारे चिंतकों ने बताया कि एक ही वस्तु तीन का काम करती है - सुख भी देती है, दुख भी देती है और मोह भी पैदा करती है।

सांख्य दर्शन का उदाहरण है, एक आदमी ने दूसरी शादी की, क्योंकि कोई पुत्र नहीं हो रहा था। दूसरी शादी से जो पत्‍नी आई, वह सुन्दर थी। वही सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख देती है, अपनी सौत या पहली पत्‍नी को दुख देती है और जब घर से बाहर निकलती है, तो दूसरे लोगों को मोहग्रस्त करती है। एक से ही तीन भाव बने। पति को सुख, सौत को दुख और राहगीरों को मोह। हर पदार्थ के ये तीन गुण हैं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो केवल सुख ही देता हो।

इस कपड़े की बात करें, तो कई बार कपड़े में अटक कर ही कई लोग गिर जाते हैं, वस्त्र में उलझकर कइयों के पैर टूट गए। जो वाहन यात्रा सुख देते हैं, उन्हीं से कुचलकर हजारों लोग भी मरते हैं। भोजन से भी लोग मरते हैं, पेट खराब हो जाता है। कपड़ा हो या वाहन या भोजन या कुछ और हर चीज से सुख भी होता है, दुख भी होता है और मोह भी।

दिखावा क्या करना

आजकल तो बड़े लोग हर साल अपना सोफा, कुर्सी-टेबल, सजावट बदल देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए, सादगी का जीवन होना चाहिए। रामराज्य का जीवन होना चाहिए। जरा सोचिए कि राम जी ने जंगल में कैसे बिताया होगा समय। ईश्‍वर  की बात छोडि़ए, अयोध्या के महल में तो सब कुछ था, किन्तु जंगल में रहकर एक दिन उफ् तक नहीं किया।

वृंदावन में एक महात्मा से मैं मिला था। उन्हें देखकर बहुत अच्छा लगा, तो मैंने उनसे पूछा, 'आप इतने अच्छे साधु हो गए, इसका रहस्य क्या है?

उन्होंने कहा, 'मैं तो आपको अपना रोना कहने आया हूं, आप मेरा ही इंटरव्यू मत लीजिए। हां, मुझे एक बात का सदा ध्यान रहा कि मैं साधु बनने आया हूं, और इसी का आज यह फल है।

मैं भी बनारस साधु बनने नहीं आया था, मैं तो विद्वान बनने आया था, अविवाहित रहने आया था। मुझे साधु तो नहीं बनना था, लेकिन जब रामानंदाचार्य हो गया, तो फिर कोशिश की कि थोड़े-बहुत साधु हम भी हो जाएं, साधुओं जैसे दिखने लगें। इस कोशिश से मुझे भी लाभ हुआ।

ध्यान दीजिएगा, केवल यह याद रहे कि मैं साधु हूं, तो आदमी साधु हो जाएगा। दिखावा क्या करना, गद्दी का क्या करना? जब शरीर का मांस ही सूख जाएगा, तो बुढ़ापे में तो ये गद्दा ही गडऩे लगेगा। चेहरा सिकुड़ जाएगा, दांत टूट जाएंगे, तो ये गद्दा-पंखा काम करेगा क्या? कदापि नहीं करेगा।

सनातनत्व

ये जो आप सांस ले रहे हैं, आपके पिता जी का ऑक्सीजन है क्या? रतन टाटा भी ऑक्सीजन का बिल नहीं भरते हैं, अंबानी भी बिल नहीं भरते हैं? दान हुआ। आकाश हमारे पिता जी के द्वारा निर्मित है क्या? किसी ने दान किया है। हम ले रहे हैं, लेकिन लौटा नहीं रहे हैं। जिसने वायु, चंद्रमा, आकाश और सब कुछ दिया, जिसको हम सुप्रीम पावर कहते हैं, उसी ने वेद दिए। माना जाता है, वेद सृष्‍टि के साथ हमेशा चलते रहते हैं। वे ऐसे हैं, जिनका कभी नाश नहीं होता।

एक बार राधाकृष्णन से किसी ने विदेश, शायद अमरीका या जर्मनी, में पूछा था, 'आप धर्म पर नहीं, सनातन धर्म पर बोलिए कि आपके धर्म में सनातनत्व कैसा है?

राधाकृष्णन ने कहा, 'अमरीका, यूरोप, जापान के लोग बतलाएं, मिस्र और रोम के लोग बतलाएं कि क्या आपके यहां सौ साल पुरानी कोई ऐसी चीज या परंपरा है, जिसे आप आज भी चला रहे हों?

उन्हें जवाब मिला, 'नहीं है।

तो राधाकृष्णन ने जवाब दिया, 'सनातनत्व यह है कि हमारे यहां राम जी की शादी जैसे और जिस विधिविधान से हुई थी, आज भी उसी तरह से हमारे यहां रिक्शा चलाने वाले की भी शादी होती है।

मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि

हम कभी नहीं चाहते कि हमारे साथ कोई हिंसा करे, मेरी वाणी की, मेरी सुन्दरता की, मेरे बल की, मेरे धन की हिंसा कर दे। वेदों ने कहा, मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि। किसी भी जीव की हिंसा वर्जित है। कथा है कि एक ऋषि ने एक उडऩे वाले पतंगे के पंख पर कुछ गड़ा दिया था, तो उनको सूली पर चढऩा पड़ा था। एक मेरे भक्‍त हैं, मुझे सुना रहे थे, 'एक बार मैंने बंदूक का निशाना किया, विनोद कर रहा था, ऊपर एक चिडिय़ा थी, दुर्भाग्य से उसकी आंख में गोली लगी, वह गिर गई, वह बची नहीं। वह भक्‍त मेरे बड़े शुभचिंतकों में हैं, मैं जब उन्हें कर्म का सिद्धांत बता रहा था, तो उन्होंने मुझसे कहा, 'मैं आइंस्टीन हूं कर्म का, प्रयोगकर्ता। मुझे बेटा हुआ, उसकी दाहिनी आंख ठीक नहीं थी, जन्म से ही अंधा था, डॉक्टरों को दिखाया, उसका कोई इलाज नहीं था, तो देखिए तुरंत न्याय हो गया, इधर से लीजिए, उधर से दीजिए, कहीं और जाने का कोई अर्थ ही नहीं है।

वेद जिसको कहता है कि करो, वह धर्म है या उस कर्म से उत्पन्न ऊर्जा धर्म है। धर्म की दो परिभाषाएं हैं, कुमारिल भट्ट और प्रभाकर जी की। वेदनिहित कर्म को धर्म कहते हैं, वेदनिहित कर्म से उत्पन्न कर्म से जो शक्‍त‍ि उत्पन्न होती है, जो दिखाई नहीं पड़ती, उसे धर्म कहते हैं। वेदों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दुनिया के लोगों के लिए मान्य न हो। उसके लिए मुझे दो बातें कहनी हैं। पहली बात, वह जो बनाई हुई पद्धति है, हमारा सनातन धर्म कहता है, अनादि सृष्‍टि का अनादि चिंतन हो और सबके लिए चिंतन हो। हरिजन के लिए भी चिंतन हो।

जो दुकानदार लोग दिन भर झूठ बोलते हैं, वे भी घर में अपनी पत्‍नी से यही उम्मीद करते हैं कि पत्‍नी सत्य बोले। जिसने दिन भर झूठ बोला है कि यह सामान इतने का है, इसमें मार्जिन बिल्कुल नहीं है, किन्तु वह भी उम्मीद करता है कि उससे सच बोला जाए। सारे लोग ऐसा नहीं करते, किन्तु ज्यादातर लोग व्यवसाय में झूठ बोलते हैं, फिर भी वे चाहते हैं कि उनसे सच बोला जाए। हुआ न. . . सत्यम् वद्। मेरे लिए तो अवसर ही नहीं आता है कि झूठ बोलूं। मेरा यह कहना है कि सत्य की किसको जरूरत नहीं है?

सत्य के बाद फिर परिष्कार हुआ। अहिंसा की सबको जरूरत है। दान की किसको जरूरत नहीं है? आप अपनी लेखनी की रोटी खा रहे हैं, हम दान की रोटी खा रहे हैं, लेकिन आपमें और हममें कोई अंतर नहीं है। दोनों को दान की जरूरत है। पत्‍नी कहीं से दान में आई है या कोई बहन है आपकी? यदि बहन से शादी कर लिए होते, तो आज यहां कोई बैठने देता क्या? दरवाजा बंद कर दिया जाता। माता-पिता ही बाहर कर देते, समाज में सब थू-थू करते। दान है, कन्यादान प्राप्‍त  हुआ है, किसी ने अपनी बेटी आपको दान की। जो आपके घर में बैठकर आपके बच्चों को संभाल रही है, आपके घर को संभाल रही है, हर व्‍यक्‍त‍ि दान से चलता है। यह संसार दान से चलता है।

दुख क्यों होता है?

एक दिन मैं बिहार यात्रा में किसी गांव जा रहा था। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न आयु व आकार-प्रकार व अवस्था के लोग साथ यात्रा कर रहे थे। उन लोगों ने कई प्रकार की चर्चा छेड़ रखी थीं, लेकिन उन चर्चा का कोई समाधान नहीं हो रहा था। कोई पूछ रहा था कि आजकल माता-पिता को लोग क्यों नहीं मान रहे हैं, कुछ लोग चारों तरफ बढ़ते भ्रष्टाचार की बात कर रहे थे। कुल मिलाकर सवाल यह था कि कष्‍ट  क्यों होता है? दुख क्यों होता है। हर आदमी के मन में कोई न कोई जिज्ञासा थी, लेकिन उसका समाधान उस समूह द्वारा नहीं हो रहा था। देखने से यही लग रहा था कि लोग जिज्ञासु हैं, उनमें जानने की इच्छा है। शास्त्रों में लिखा है, जिज्ञासा तभी होती है, जब संदेह हो और जब अपना मतलब सिद्ध होना हो। दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे जिज्ञासा न हो। हर किसी को कोई न कोई मतलब भी है और संदेह भी है।

तो चर्चा चल रही थी, क्यों लोग भ्रष्टाचार कर रहे हैं, क्यों मर्यादा खो रही हैं, क्यों दुख बढ़ रहा है? मुझसे लोगों ने पूछा कि आप इस पर कुछ बोलिए। मैंने कहा कि आप लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं, लेकिन इस चर्चा का कहीं एक जगह समाधान होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। मैंने कहा कि देखिए, व्यावसायिक उदाहरण से आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं। व्यवसाय में सभी को किसी दूसरे की सहायता लेनी पड़ती है। अपनी स्वयं की पूंजी से कोई बड़ा व्यवसाय सभी लोग नहीं कर पाते हैं। बहुत बड़ा प्रतिशत उन लोगों का है, जो बैंक या दूसरों से ऋण लेकर व्यवसाय शुरू करते हैं। कुछ लोग मित्रों और रिश्तेदारों से ऋण लेकर व्यवसाय शुरू करते हैं। जो आदमी पैसा ले ले और उसे लौटाए नहीं, बाजार में उसकी साख खत्म होने लगती है। उसे लोग ऋण देने में संकोच करने लगते हैं। लोग उसे चोर कहेंगे, गलत आदमी कहेंगे। ऋण न लौटाने वाला आदमी बाजार से बाहर हो जाएगा। यह आम दुनिया की बात है, तो मेरा यह मानना है कि सारी जो अव्यवस्था है, वह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि जहां से हमने ऋण लिए हैं, उन ऋणों को चुका नहीं रहे हैं। हम देवताओं के ऋणी हैं, जो हमें वायु देते हैं, जल देते हैं, आकाश देते हैं, पृथ्वी देते हैं, किन्तु हम यह भूल जाते हैं।

प्रत्येक मनुष्य जब जन्म लेता है, तो तीन ऋणों के साथ जन्म लेता है। पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण। इन तीनों से ऋणवान होकर ही आदमी जन्म लेता है। जो टाटा-बिड़ला के परिवारों में जन्म लेगा, वह भी इन तीन ऋणों के साथ जन्म लेगा। अमीर हो या गरीब, सबको ऑक्सीजन की, प्रकाश की और जल की आवश्यकता पड़ेगी। जन्म लेते ही जो हमें संस्कार मिले, जो ज्ञान-विज्ञान मिले, वह ऋषियों का ऋण है, वह परंपरागत रूप से हमें प्राप्‍त  है और एक ऋण हमारे पितरों का हमारे शरीर में है। इन तमाम लोगों से हम ऋण लेकर आगे बढ़ते हैं और इन ऋणों को नहीं चुकाना ठीक उसी तरह से है, जैसे बाजार से ऋण लिया हो, किन्तु चुकाया नहीं। जो ऋण नहीं चुकाता, वह कभी पनप नहीं पाएगा, कभी यशस्वी नहीं हो पाएगा, कभी शांत नहीं हो पाएगा। हम सभी को इन ऋणों को चुकाने का प्रयास करना चाहिए। इन ऋणों को नहीं चुकाने के कारण ही संसार में सारी अव्यवस्था है। सारी समस्याएं हैं, सारे दुख हैं।


Ramandacharya Ji Maharaj


 

Ramandacharya Ji Mahraja


 

Ramandacharya Ji Maharaj