महर्षि कणाद ने कहा कि धर्म वह है, जो अभ्युदय मतलब लौकिकता को देता है, सकारात्मक नैतिक उन्नति को देता है। सुन्दरता तो सुन्दरता है, लेकिन वह सुन्दरता नहीं है, जो सिनेमा में काम आए। सुन्दर होकर यदि वेश्यावृति ही कोई औरत करती है, तो यह ठीक नहीं है। जो अपने पति का साथ दे, जहां दिया माता-पिता ने, उसको मर्यादा में रहकर निभाए। मर्यादा में ही सुख है। सुन्दरता चाहिए, तो शालीनता भी चाहिए कि जहां वह जाए, सबको गदगद कर दे। कितने लोगों को कोई सुन्दरी पति बना सकती है, दुनिया की किसी सुन्दरी ने दुनिया के सभी लोगों को कभी भी वासनात्मक सुख नहीं दिया है और न दे सकती है। सुन्दरता होनी चाहिए, किन्तु वह सकारात्मक होनी चाहिए। बल भी होना चाहिए। सैनिक बलवान होना चाहिए, बल का अपना क्षेत्र है, मजदूरों को भी भगवान बल दें। बल नहीं होता, तो मैं गरज-गरज कर बोलता क्या? बल है, तभी तो बोल रहा हूं, बल नहीं होगा, तो जो बोलूंगा, वह किसी को सुनाई ही नहीं पड़ेगा। लेखनी में भी बल होना चाहिए, तभी तो संपादन, लेखन गरजेगा। बल हो, सुन्दरता हो, लेकिन उसका सकारात्मक उपयोग हो, यही धर्म है।
पैसा धर्म से भी आता है
और अधर्म से भी आता है। धर्म से जो पैसा आएगा, वह सकारात्मक विकास करेगा और भोग का सही संसाधन मुहैया
करवाएगा और अधर्म से जो पैसा आएगा, वह आदमी को गलत
बनाएगा, दूसरी पत्नी, मांस मदिरा, अमुक-गाड़ी, हों हों, शोर-शराबा। नई-नई गाड़ी खरीद रहे हैं, नया-नया बंगला बना रहे हैं। वश चले, तो रोज बंगला बने, शरीर तो बना ही नहीं रहे हो रोज। पैसा हो जाता है, तो आदमी को लगने लगता है कि यह मकान बहुत छोटा
है। अरे मरो इसी में भले आदमी, बच्चों को कहो कि
आप पंद्रह एकड़ में बनाना। अधर्म हुआ, तो बहुतों को देखो, जो भगवान ने मकान
दिया था, वही टूट रहा है।
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