एक दिन मैं बिहार यात्रा में किसी गांव जा रहा था। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न आयु व आकार-प्रकार व अवस्था के लोग साथ यात्रा कर रहे थे। उन लोगों ने कई प्रकार की चर्चा छेड़ रखी थीं, लेकिन उन चर्चा का कोई समाधान नहीं हो रहा था। कोई पूछ रहा था कि आजकल माता-पिता को लोग क्यों नहीं मान रहे हैं, कुछ लोग चारों तरफ बढ़ते भ्रष्टाचार की बात कर रहे थे। कुल मिलाकर सवाल यह था कि कष्ट क्यों होता है? दुख क्यों होता है। हर आदमी के मन में कोई न कोई जिज्ञासा थी, लेकिन उसका समाधान उस समूह द्वारा नहीं हो रहा था। देखने से यही लग रहा था कि लोग जिज्ञासु हैं, उनमें जानने की इच्छा है। शास्त्रों में लिखा है, जिज्ञासा तभी होती है, जब संदेह हो और जब अपना मतलब सिद्ध होना हो। दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, जिसे जिज्ञासा न हो। हर किसी को कोई न कोई मतलब भी है और संदेह भी है।
तो चर्चा चल रही थी, क्यों लोग भ्रष्टाचार कर रहे हैं, क्यों मर्यादा खो रही हैं, क्यों दुख बढ़ रहा है? मुझसे लोगों ने पूछा कि आप इस पर कुछ बोलिए। मैंने कहा कि आप लोग अच्छी चर्चा कर रहे हैं, लेकिन इस चर्चा का कहीं एक जगह समाधान होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। मैंने कहा कि देखिए, व्यावसायिक उदाहरण से आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं। व्यवसाय में सभी को किसी दूसरे की सहायता लेनी पड़ती है। अपनी स्वयं की पूंजी से कोई बड़ा व्यवसाय सभी लोग नहीं कर पाते हैं। बहुत बड़ा प्रतिशत उन लोगों का है, जो बैंक या दूसरों से ऋण लेकर व्यवसाय शुरू करते हैं। कुछ लोग मित्रों और रिश्तेदारों से ऋण लेकर व्यवसाय शुरू करते हैं। जो आदमी पैसा ले ले और उसे लौटाए नहीं, बाजार में उसकी साख खत्म होने लगती है। उसे लोग ऋण देने में संकोच करने लगते हैं। लोग उसे चोर कहेंगे, गलत आदमी कहेंगे। ऋण न लौटाने वाला आदमी बाजार से बाहर हो जाएगा। यह आम दुनिया की बात है, तो मेरा यह मानना है कि सारी जो अव्यवस्था है, वह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि जहां से हमने ऋण लिए हैं, उन ऋणों को चुका नहीं रहे हैं। हम देवताओं के ऋणी हैं, जो हमें वायु देते हैं, जल देते हैं, आकाश देते हैं, पृथ्वी देते हैं, किन्तु हम यह भूल जाते हैं।
प्रत्येक मनुष्य जब जन्म लेता है, तो तीन ऋणों के साथ जन्म लेता है। पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण। इन तीनों से ऋणवान होकर ही आदमी जन्म लेता है। जो टाटा-बिड़ला के परिवारों में जन्म लेगा, वह भी इन तीन ऋणों के साथ जन्म लेगा। अमीर हो या गरीब, सबको ऑक्सीजन की, प्रकाश की और जल की आवश्यकता पड़ेगी। जन्म लेते ही जो हमें संस्कार मिले, जो ज्ञान-विज्ञान मिले, वह ऋषियों का ऋण है, वह परंपरागत रूप से हमें प्राप्त है और एक ऋण हमारे पितरों का हमारे शरीर में है। इन तमाम लोगों से हम ऋण लेकर आगे बढ़ते हैं और इन ऋणों को नहीं चुकाना ठीक उसी तरह से है, जैसे बाजार से ऋण लिया हो, किन्तु चुकाया नहीं। जो ऋण नहीं चुकाता, वह कभी पनप नहीं पाएगा, कभी यशस्वी नहीं हो पाएगा, कभी शांत नहीं हो पाएगा। हम सभी को इन ऋणों को चुकाने का प्रयास करना चाहिए। इन ऋणों को नहीं चुकाने के कारण ही संसार में सारी अव्यवस्था है। सारी समस्याएं हैं, सारे दुख हैं।
No comments:
Post a Comment