Wednesday 9 November 2016

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

(जगदगुरु रामानंदाचार्य के प्रवचन के अंश)
संसार में नारियों का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन अलग-अलग देशों में अलग-अलग संप्रदायों, जातियों में अलग-अलग उनके स्वरूप हैं। भारतीय परंपराओं में नारी का महत्वपूर्ण स्थान है, फिर भी जो सम्मान पुरुष को प्राप्त हैं, जो अधिकार, अवसर प्राप्त हैं, वो नारी को नहीं हैं। यह जरूरी है कि नारी को बराबरी का दर्जा हर दृष्टि से मिले। आधुनिक समय में कई अधिकार मिलने के बावजूद आज नारियों को वह स्थान नहीं मिला है या वह सम्मान नहीं मिल सका है, जो पुरुषों को मिला हुआ है। सनातन धर्म में नारी को अध्यात्म में भी वह स्थान नहीं मिल पाता है, जो मिलना चाहिए, किन्तु शबरी अपवाद स्वरूप हैं, वो तमाम प्रचलित धाराओं को पीछे छोड़ देती हैं। वे पौराणिक इतिहास में अमिट छवि वाली भक्त हैं।
जगद्गुरु शंकराचार्य जी के मार्ग में नारी को संन्यास लेने का अधिकार नहीं दिया गया था। वहां केवल ब्राह्मण ही संन्यास का अधिकारी है, क्षत्रिय नहीं, वैश्य नहीं, शुद्र नहीं और नारी भी नहीं। वेदों के अध्ययन, अध्यापन में भी नारियां वर्जित रही थीं। उन्हें वेद पढऩे का अधिकार प्राप्त नहीं था। 
जो भक्ति मार्ग के संप्रदाय हैं, उनके अनुयायियों में ऐसी वर्जना नहीं रही है। साक्षात नारियों को लाभान्वित करने वाले भक्ति मार्ग में भी नारियां कम हैं। हालांकि भक्ति मार्ग में नारियों को बढ़ावा मिला। जगद्गुरु रामानंदाचार्य जी के १२ शिष्यों में, जो परम तत्व तक पहुंचे, जिनका जीवन संतत्व की पराकाष्ठा पर पहुंचा, उनमें दो नारियां भी हैं। पद्मावती और सुरसरी। दोनों ही संतत्व के चरम में अवस्थित हैं। रामानंदाचार्य जी की उदारता इससे प्रमाणित होती है। यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सनातन धर्म शुरू से ही उदार रहा है। जिन संतों और आचार्यों ने नारियों को आगे बढ़ाया, वो सभी धाराएं वैदिक सनातन धर्म में रही हैं। यह कोई अपनी ओर से किया गया कृत्य नहीं है। शबरी का जो उदाहरण है, वह सबसे बड़ा उदाहरण है। उनके जीवन क्रम को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे भगवान की सेवा करके पूजा करके, ध्यान करके, भगवान का नाम जप करके, भगवान की शक्तियों का ध्यान करके, समर्पण के अभाव, शरणागति के अभाव से ऊपर उठकर लोग जीवन को धन्य बनाते हैं, वैसे ही साधुओं और गुरुओं की सेवा से भी फल प्राप्त किया जा सकता है। मतंग ऋषि की वे शिष्या हैं, उसी सद्भाव और उत्साह के साथ समर्पण के साथ तत्कालीन दूसरे ऋषियों की भी उन्होंने सेवा की थी। भगवान के साथ भक्तों की सेवा भी होनी चाहिए। अध्यात्मिक जगत में सामाजिक जगत में अपने गुरु का सम्मान अनिवार्य है। हम दूसरे संतों और आचार्यों का भी सम्मान करें, इससे धर्म मजबूत होगा, उसका महत्व ऊंचाई को प्राप्त होगा। उसकी उपयोगिता को पंख लगेंगे, उसकी आयु भी बढ़ेगी। उसकी उदारता का बहुत विस्तार होगा। जैसे आजकल परिवार टूट रहे हैं, संयुक्त परिवार की परंपरा अब टूट रही है। पत्नी को पति का तो सम्मान करना ही है, लेकिन परिवार के दूसरे सदस्यों का भी वह ध्यान रखती है, पति के माता-पिता, पति की बुआ, पति के भाई-बहन, सबका वह ध्यान रखती है, इससे ही परिवार का आनंद, अस्मिता, परिवार की पहचान, परिवार का स्नेह, परिवार का धन, सब कुछ वृद्धि को प्राप्त होंगे। ऐसा नहीं होने से परिवार टूट रहे हैं। वैसे ही ऋषियों की सेवा जरूरी है। धर्म और अध्यात्म का स्वरूप विस्तृत होगा, तो बहुत दिनों तक उसका जीवन होगा। लंबी उसकी उपादेयता होगी, सार्थकता होगी। आज का जो साधु समाज है, गुरु समाज है, आचार्य समाज है, उसकी बहुत बड़ी भूमिका है। अपने शिष्यों को लोग दूसरे के काम नहीं आने देते हैं। हमारा शिष्य केवल हमारा ही प्रबंध करे, हमारा ही केवल आदर करे, हमें ही सब कुछ समझे, ऐसा वातावरण आज के गुरु लोग बनाने लगे हैं। अपने सम्मान को दूसरों को नहीं देते। आज साधु जगत में यह बड़ी कमी आ गई है। शबरी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए, जैसे शबरी ने मतंग ऋषि की सेवा की, उनको मान दिया, उनके प्रति आस्था व्यक्त की, वैसे ही दूसरे ऋषियों और संतों के लिए भी किया और कभी भी मतंग ऋषि ने उन्हें मना नहीं किया। 
क्रमश:

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