Wednesday 9 November 2016

भक्तिनी शबरी : सेवा का सच्चा पर्याय

भाग - ३
जब बाकी ऋषियों को पता चला कि राम जी आए हैं, तो वे आए और कहने लगे कि आप हमारे यहां नहीं आए, यहां आ गए। राम जी ने उत्तर दिया कि दण्डकारण्य में मैंने कई लोगों से पूछा कि सबसे अच्छा भक्त कौन है, तो सबने शबरी का नाम लिया। मुझे भक्त बहुत प्रिय हैं। जो मुझे प्रेम करता है तन-मन से, उसे मैं सबसे ज्यादा चाहता है, शबरी ऐसी ही हैं। 
एक विशेषता है, शबरी ने सदा छिपकर सेवा की। अपने यहां वैदिक सनातन धर्म में कहा जाता है कि दान का हाथ दिखना नहीं चाहिए कि किसने दान दिया। वैसे ही सेवा भी छिपकर की जानी चाहिए, सेवा का विज्ञापन बड़ा नहीं होना चाहिए, दिखावटीपना नहीं हो। हमने किसी की सेवा की है या सम्मान किया है, तो दिखना नहीं चाहिए। उसका प्रचार नहीं होना चाहिए, यही काम शबरी करती थीं। दो दिन नहीं, चार दिन नहीं, पूरे जीवन ऐसा ही किया। 
शबरी के पिताजी राजा थे, शबरी जब विवाह लायक हुईं, तो विवाह के आयोजन के क्रम में वर वगैरह देखने के बाद, शादी की तैयारी होने लगी, दरवाजे पर तैयारी होने लगी, शबरी ने पूछा कि यह क्या हो रहा है, लोगों ने बताया कि तुम्हारी शादी होने वाली है, तो शबरी का हृदय तो आध्यात्मिक था, पूर्व जन्म के संस्कार भी रहे होंगे, शबरी में ईश्वर के लिए चाह, ललक थी, इच्छा थी कि ईश्वर व संतों के लिए जीवन को अर्पित करें, इसके अलावा कोई उद्देश्य नहीं था। उन्होंने धीरे से संकल्प किया कि मैं घर पर नहीं रहूंगी। वह जंगल में चली गईं, फिर लौटकर नहीं आईं। बहुत से लोगों ने मनाया, किन्तु सांसारिक जीवन में शबरी का मन नहीं माना। शबर जाति की थीं, भील जाति, इसलिए नाम शबरी हो गया। जैसे फल ग्रहण करने वाले को फलाहारी बोलते हैं, ठीक उसी तरह से वे शबर जाति की थीं, इसलिए शबरी कहा गया। मतंग ऋषि के आश्रम में रहीं, वे आश्रम में कुछ भी लेकर नहीं गई थीं। आज लोक प्रतिष्ठा के जो कारण होते हैं, वो शबरी के पास नहीं थे। धन का स्पर्श ही नहीं किया पूरे जीवन में। आज का साधु आते ही धन संग्रह में लग जाता है। 
गृहस्थ जीवन ही नहीं, आश्रम के लिए भी धन चाहिए, लेकिन आश्रम का उद्देश्य धन नहीं है। वह तो अध्ययन, अध्यापन, जप, तप की जगह है। उतना ही धन प्राप्त करें, जो भक्त सहर्ष देकर जाएं। 
शबरी के पास न धन, न रूप, न कला, न विद्या, लेकिन सेवा है। हमें सोचना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं, वह यदि किसी की समस्या का समाधान है, निवारक है, किसी के लिए वरदान स्वरूप है, तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा, हमारी पहचान सुस्पष्ट हो जाएगी, फिर हमें जो चाहिए, वह मिलेगा। सेवा के इस पहलू को समझना चाहिए। अपने जीवन में सेवा भाव को उतारना चाहिए, समाज, परिवार, लोक का उत्कर्ष तभी होगा। 
ईश्वर के प्राप्ति में जो परम लाभ है, उसमें शुरू से सहिष्णुता होनी चाहिए। संत सेवा से, साधना से, शबरी को कोई शिकायत नहीं, कोई उलाहना नहीं, केवल श्रद्धा और प्रतीक्षा है। भक्ति में देने-देने की बात होती है, लेने की नहीं, रिटर्निंग गिफ्ट नहीं होता। सेवा में ही वह स्वयं का जीवन सार्थक मानता है। वाल्मीकि रामायण में लिखा है, भगवान ने शबरी से पूछा कि तुमने इतने व्रत-नियम किए, तुम्हें क्या प्राप्त हुआ, तो शबरी ने कहा कि आप प्राप्त हुए। 
दूसरा कोई होता, तो कई तरह की बातें करता, कहता कि गुरुजी ने मुझे बहुत मान दिया। तमाम लौकिक बातें करता, लेकिन शबरी ने स्पष्ट कहा, आप प्राप्त हुए। अंतिम उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति ही है। सच्चा फल तो यही है। संपूर्ण कल्याणकारी है आपका दर्शन। 
क्रमश:

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