Friday 7 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

(महाराज के प्रवचन से...) 
भारतीय चिन्तन परंपरा में कहा जाता है कि हम ब्रह्म के अंश हैं और ब्रह्म की अनेक व्याख्याएं हैं, उसमें सुप्रसिद्ध दो व्याख्याएं हैं कि जो विकासशील हो और महान हो, उसे ब्रह्म कहते हैं। 
बृहत्वाद् बंृहणत्वाच्च ब्रह्म इति हि गीयते। 
ये व्युत्पत्ति है ब्रह्म शब्द की। जो निरंतर विकासशील हो, जो महान हो, यह प्रवृत्ति, यह जो संकल्प और स्वभाव है, यह हम लोगों का भी है। ब्रह्म ने तो अपने अव्यक्त स्वरूप को व्यक्त कर दिया, जिसका आप दर्शन करते हैं। आकाशकाल, पृथ्वी जलवायु तमाम ग्रह नक्षत्र तारे, जो भी संसार में आपको दिखाई दे रहा, वो ब्रह्म का ही तो विकास है। एकोहं बहुस्याम: प्रजायेय यह उसकी उद्घोषणा है, उसी क्रम में हमने भी अपने को विकसित किया। हम लोग किसी जमाने में किसी काल में मां के गर्भ में होंगे। बहुत छोटा हमारा स्वरूप होगा, रज-वीर्य कितना छोटा होगा, लेकिन बढ़ते-बढ़ते हम सभी लोगों का आकार बढ़ गया, बल बढ़ गया, ज्ञान बढ़ गया, हमारी पहचान बढ़ गई। हमारा प्रभाव बढ़ गया, हमारा स्वभाव बढ़ गया, हमारा परिवार बढ़ गया, लेकिन हमारा मन अभी तृप्त नहीं हो रहा है कि हम कहां तक बढ़ें, शरीर कितना बड़ा कर लें। अपने प्रभाव का उपयोग कहां तक हो, कहां तक प्रभाव, परिवार, धन, सांसारिक संसाधनों को कितना बढ़ाया जाए। यह विकास की जो कामना है, ये परिशांत नहीं हो रही है, क्योंकि हम ब्रह्म के अंश हैं, जो निरंतर विकासशील है। यह संसार के लोगों के लिए आज की समस्या नहीं है, आज की चाह नहीं है। अर्थशास्त्री लोग पढ़ाते हैं कि हमारी आवश्यकताएं अनंत हैं और उनका समाधान आदमी करना चाहता है, लेकिन सामान्य लोग तो दाल, रोटी, कपड़ा, मकान की ही बात करते हैं। सभी लोगों को यदि रोटी, कपड़ा, मकान मिले। जो यह विकास का क्रम है दुनिया का निश्चित रूप से सभी लोग इससे अचंभित, विस्मित और आश्चर्यचकित हैं, इतना विकास हो गया, लेकिन अभी सभी लोगों के पास कपड़ा नहीं है, मकान नहीं है। भोजन भी व्यवस्थित, संतुलित शरीर के लिए पौष्टिक, चित्त, बुद्धि, मन को सही स्वरूप देने वाला स्वास्थकर स्वरूप देने वाला, ये अभी नहीं हो पा रहा है। अमेरिका जैसे देश में भी लोगों को रोग निवारण के सही संसाधनों का लाभ नहीं मिल पाता है। बहुत महंगी है वहां की निदान पद्धति। ऐसा आप लोगों ने सुना और पढ़ा होगा। ऐसी स्थिति में दुनिया के सभी लोग अपनी विकास यात्रा में संसाधनों की खोज में अनेक तरह के चिंतन, उसका प्रयोग आदि करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। 
विकास की यह जो अविच्छिन्न परंपरा है और हर आदमी के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में प्रवाहित होने वाली यह बड़ी लंबी है। हमको भी विकास चाहिए। हमने संन्यासी जीवन विकास के लिए धारण किया। कोई उग्रवादी जीवन, आतंकवादी का जीवन, चोरी का जीवन, लंपट का जीवन और तमाम तरह की दुकानों, खेती का, अन्य सभी जीवनों में भावना यही है कि विकास हो। लोगों को याद होगा, बिन लादेन भी अपनी दुनिया का हीरो हो गया था। बहुत दिनों के बाद एक बड़े आतंकवादी के रूप में उसका नाम लिया जाने लगा। सद्दाम हुसैन का नाम लिया जाने लगा। कभी मुस्लिम भाइयों के घर में इनके चित्र लगते थे। बिन लादेन पर गर्व था इन लोगों को, किसी जमाने में सरदार लोगों को भी भिंडरांवाला पर गौरव होने लगा था। ये परंपरा के दूषण हैं, केवल आपको यह कह रहा हूं कि देखिए, विकास के नाम पर क्या-क्या हुआ है। धन आएगा, भोग मिलेगा, एक पत्नी को कौन कहे, बहुत-सी पत्नियां मिलेंगी। एक आदमी की जयकार को कौन कहे, बहुत लोगों के जयकार मिलेंगे। गाड़ी, घोड़ा, मकान। स्वर्ण मंदिर पर ही कब्जा कर लिया भिंडरांवाला ने। लाल मस्जिद पर ही कब्जा कर लिया आतंकवादियों ने, महिलाएं निकलीं उसमें से, आपने सब पढ़ा होगा। ये सब विकास के क्रम में हैं, लेकिन अब ये चिन्हित तो होना ही चाहिए कि विकास का सही मार्ग क्या है। शराब पीने से भी आनंद मिलता है और घी खाने से भी आनंद मिलता है। दोनों में शरीर के लिए पौष्टिक कौन है। अपने यहां एक दर्शन पढ़ाया जाता है चार्वाक दर्शन। 
चार्वाक वाले बोलते हैं - यावज्जजीवेत् सुखं जीवेत् यानी जब तक जीवित रहिए सुख से जीवित रहिए। नहीं पैसा हो, तो ऋण लेकर घी पीजिए। ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्। मरने के बाद कौन-सा शरीर, यहीं सब राख हो जाएगा, मिट्टी में मिल जाएगा। ना कोई पहले था ना कोई बाद में होगा। यहीं सब हैं, आनंद से रहिए। 
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:। 
क्रमश: 

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