Saturday 8 April 2017

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं

भाग - ७
हमारा स्वभाव है, हम अपने धन का अवलोकन करते हैं, उसकी गुणवत्ता का चिंतन करते हैं, उसकी उपयोगिता का संकल्प करते हैं, प्रयास करते हैं कि इसके माध्यम से हम क्या प्राप्त करें। हमें अधिकाधिक फल कैसे प्राप्त हों, विशिष्ट फल कैसे हमसे जुड़ें इन सभी भावों का ऊहापोह, इसके लिए तर्क-वितर्क और इसके लिए चिंतन की जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म परंपरा है, उसका हम अवलंबन करते हैं। 
भगवान की कृपा से और जन्म जन्मांतरों के श्रेष्ठ पुण्यों से, उसमें पापों की भी मात्रा है कि यह जन्म हमें मिला और भारत वर्ष में मिला, जो इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ भूमि है, ऐसी भूमि पूरे संसार में कहीं नहीं है। जहां भगवान प्रकट होते हैं, जो ऋषियों की भूमि है, जो गंगा-यमुना-सरस्वती की भूमि है। मातृदेवो भव की उद्घोषणा और संपादन की भूमि है। दुनिया में सभी बच्चे जन्म लेते हैं मां के माध्यम से, लेकिन पश्चिम में लोगों को नहीं पता है कि सृष्टि का जो पालक उत्पादक ईश्वर है, जो सर्वाधार है, वह हमारे घर में माता-पिता के रूप में भी विराजमान है। वह ईश्वर हमारे मंदिर में भी है, वह विभिन्न स्वरूपों में विराजमान है। गौतम बुद्ध स्वयं मूर्ति पूजा का विरोध करते थे, तीर्थंकर भी मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, लेकिन उनके अनुयायियों ने उनके उस महाभाव की महती उद्घोषणा का उनके उस चिंतन का गला घोंट दिया। इतनी मूर्तियां बनवाई गौतम बुद्ध और महावीर की कि मूर्तियों के ढेर लग गए। खूब मंदिर और मूर्तियां अभी भी बनवा रहे हैं। अपने संप्रदाय के अपने पंथ के प्रवर्तक की भावनाओं को ही छोड़ दिया। मुसलमानों ने भी कहा था कि हमारा धर्म व्यापक है, लेकिन मस्जिद बनाने लगे, मजार बनाने लगे। हमारा तो सौभाग्य है कि जो त्रेता में राम जी प्रकट हुए, उनके मंदिर पहले भी थे, अब भी हैं, भगवान शंकर भी हैं और भगवान कृष्ण भी हैं।
भगवान का अवतार केवल एक रूप में नहीं होता है। भगवान तो माता-पिता के रूप में भी, गुुरु के रूप में, ब्राह्मण के रूप में भी प्रकट होते हैं। भगवान पवित्र नदियों के रूप में भी प्रकट होते हैं। ठीक उसी तरह भगवान मंदिर में पूजन, अर्चन का हमें अवसर प्रदान करने के लिए उपस्थित होते हैं। 
इतना बड़ा धर्म, इसकी इतनी व्यापकता और इसके पीछे विशाल विचारों का बल और अत्यंत प्रौढ़ चिंतन की अवस्था। हमारा सौभाग्य है कि भगवान हमारे सेवा लेने के लिए मंदिर में उपस्थित हैं, हम उन्हें काजल लगाएं, माला पहनाएं। यही काम तो मुसलमान लोग मजार में करने लगे, फूल चढ़ाना, अगरबत्ती दिखाना, चादर चढ़ाना। 
एक दिन हमारे यहां तीन मुस्लिम भाई आए, दो हाजी थे और एक काजी। हज की यात्रा जिसने की हो, उसे हाजी कहते हैं और जो प्रशिक्षण का काम करता है मस्जिद में उसे काजी कहते हैं। लोगों ने कहा कि तीन लोग आए हैं मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, बुलाओ। बुलवाया, उन्होंने बहुत शिष्टता के साथ प्रणाम किया। मैंने पूछा, कहां से आए कैसे आए किसने प्रेरित किया आने के लिए, मुझे कैसे जानते हैं और एक साथ मैंने ये प्रश्न किए।
उन्होंने उत्तर दिया, हम आपको जानते थे, आपसे मिलने आए। 
मैंने कहा, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, उदारता के साथ आप पधारे। 
चर्चा प्रारंभ हुई। संत लोग मिलें, तो भगवद् चर्चा होनी चाहिए। किसान मिले, तो किसानी की बात होनी चाहिए। नेता मिलें, तो नेतागिरी की बात, देश की समस्या की बात कि देश में क्या चल रहा है और क्या चलना चाहिए। वर्तमान सरकार क्या प्रयास कर रही है, इसमें उसे कितनी सफलता मिल रही है, उसमें कितनी अड़चने हैं, ये चर्चा राजनीति की है। 
संतों का सबसे बड़ा लक्षण है कि जब वे मिलें, तो आध्यात्मिक विचारों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। आध्यात्मिक वाद-विवाद। एक कथा वाद कथा होती है। छल कथा, वितंडा कथा इत्यादि कई तरह की कथाओं का वर्णन है शास्त्रों में, उसमें सबसे अच्छी और ऊंचे स्तर की कथा वाद कथा कहलाती है।  
तत्व को जानने वालों की, तत्वों को जानने की इच्छा रखने वालों की कथा वाद कथा है। ईश्वर क्या है? मंदिर में जो भगवान हैं, वही हैं या कोई और भगवान है? उन्हें मानने की क्या जरूरत है, नहीं मानेंगे, तो हमारा क्या होगा? कई लोग कहते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते, वे नहीं जीते हैं क्या। वो भी तो खाते हैं, उन्नति करते हैं, गाड़ी से घूमते हैं। इन सबका जो चिंतन करे समाधान करे, दूसरों को मन में स्थापित करे, यही वाद कथा है।
मैंने पूछा, अल्लाह कहां रहते हैं?
उन्होंने जवाब दिया, वह सर्वव्यापक है।
मैंने पूछा, तो फिर मस्जिद की जरूरत क्यों है?
हमसे भी भक्त लोग पूछते रहते हैं, जिस ईश्वर की वाणी नहीं है, जो कभी बच्चों को देखने नहीं आता, वो कैसा पत्थरों जैसा है, जो आता ही नहीं है, यह कौन-सा ईश्वर है। 
उज्जैन में एक महिला ने मुझसे पूछा कि मैं वर्षों तक आपके दर्शन को नहीं आई, क्या आपके मन में आया कि शोभा कहां है, आपको हमारी याद नहीं आई? 
ऐसे प्रश्न होते ही रहते हैं।
तो मैंने मिलने आए हाजी-काजी से पूछा, अल्लाह को आपकी याद आती है या नहीं? वे व्यापक हैं, तो मस्जिद कैसे बनने लगे? कोई मस्जिद बनाई थी या नहीं मोहम्मद साहब ने? यह प्रश्न आपको अपमानित करने के लिए नहीं है, कोई जरूरी नहीं कि हर प्रश्न का उत्तर दिया जाए। 
उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैंने पूछा, कहीं ये सनातन धर्म के मंदिरों की नकल तो नहीं है?
वे हंसने लगे कि हां, वही है।
क्रमश:

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