Tuesday 27 September 2011

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ

हम संसार को अनादि मानते हैं। मनुष्य अनादि काल से विकास के लिए जुटा है। विकास के प्रयास में ज्ञान भी संसाधन है। बल भी संसाधन है। विकास में हमारा व्यवहार, परस्पर सौहार्द्र और प्रेम भी संसाधन है। विकास की जो भावना है, वह हम सब लोगों में है। हम ब्रह्म के अंश हैं, ब्रह्म का स्वभाव ही विकासशील है। जो निरंतर विकासशील हो, वही ब्रह्म है, जो महान है, वही ब्रह्म है। हमारे मन में भी विकास की भावना निरंतर है, हमारा, ज्ञान बढ़े, सुंदरता बढ़े, लोग इसमें लगे रहते हैं, परिवार बढ़े, कीर्ति बढ़े, व्यवहार भी बढ़ाता है, पहचान भी बढ़ती है। विकासशील स्वभाव को सही तरीके से नहीं समझने की वजह से ही भ्रष्टाचार में संसार लिप्त हो गया है।
दु:ख क्यों होता है?

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