Thursday, 27 December 2018

रावण कैसे भटक गया

समापन भाग 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।  
पिछले जन्मों में भी आप ही रहे, कल भी आप ही रहेंगे। ऐसा ही जीवन और ऐसा ही व्यवहार और चिंतन, ऐसे ही संस्कार जब हम प्राप्त करेंगे, चिंतन की जो सर्वश्रेष्ठ अनुपम परंपरा है, तो हमारा जीवन अपने और दूसरों के लिए वरदान हो जाएगा। हमें बल सुकून सुंदरता देगा। भगवान से प्रार्थना है कि सभी लोगों को शास्त्र ज्ञान की परंपरा के अनुसार मंडित करें, व्यवहार का जीवन दें, व्यवहार को शुद्ध करें। 
मैं कहा करता हूं कि भारत के प्रधानमंत्री अभी स्वच्छता अभियान चला रहे हैं, किन्तु इस स्वच्छता से लोकतंत्र सशक्त नहीं होगा। इस स्वच्छता से पार्टी का सामंजस्य सुदृढ़ नहीं होगा, परिवार का नहीं होगा, मानवता का नहीं होगा। जब तक हमारा मन शुद्ध नहीं होगा, हमारा चित्त शुद्ध नहीं होगा, हमारी बुद्धि शुद्ध नहीं होगी, हमारा अहंकार शुद्ध नहीं होगा, तब तक केवल झाडू लगाने से कुछ नहीं होगा। आज कितना गंदा है लोगों का मन। कोई दुर्गंध तो थोड़ी दूर तक प्रभावित करती है, किन्तु ये जो मन की दुर्गंध है, वह दूर तक प्रभावित करती है और आज कर रही है। 
हमारा व्यवहार शुद्ध हो, शास्त्रों की कसौटी पर कसा हुआ हो, उसके माध्यम से परिपूर्णता व्यापकता हो, यही काम किया भारत के ब्राह्मणों ने, शास्त्रों ने संपूर्ण संसार को चरित्र की शिक्षा दी और चरित्र में सब व्यवहार आ गए। एक भी व्यवहार नहीं छूटा। यहां अब लोग केवल याद करवाते हैं, ऐसे ही क्लास में पढ़ा दिया और कोई चरित्र की शिक्षा नहीं दी। 
दिल्ली के एक विद्वान बता रहे थे कि मैंने अपने कुलपति को कहा, लडक़े-लड़कियां परिसर में अश्लील मुद्रा में बैठे रहते हैं, आप उनको रोकिए। 
कुलपति ने कहा कि इससे हमारा कोई मतलब नहीं कि किससे कौन चिपक कर बैठा है। हमारा काम केवल पढ़ाना है। 
यह विश्वविद्यालय के कुलपति कह रहे हैं, तो परिणाम यह कि बच्चे मार रहे हैं अपने अध्यापकों को, जूतों से मार रहे हैं। यही स्थिति शिक्षण संस्थानों में कम या ज्यादा हो रही है। सुधारने की जरूरत है, केवल मोक्ष के लिए नहीं, अपने लिए भी यह लाभदायक है। यह हमारा पूर्ण विश्वास है। यह कोई रटी रटाई बात नहीं है। यह कोई आकाश का फूल नहीं। श्री राम ने, ऋषियों ने, हमारे पूर्वजों ने, हमारे ब्राह्मणों ने, संत जनों ने इसका प्रयोग करके सृष्टि को वरदान स्वरूप बनाया था। शास्त्रों की आवश्यकता सदा रहेगी, उचित व्यवहार की आवश्यकता संसार को सदा रहेगी, जिससे हमारा जीवन परिपूर्ण होगा और उसको बहुत सुदृढ़ता से स्थापित करने की आवश्यकता है। 
जय सियाराम

रावण कैसे भटक गया

भाग - 10
जो लोग अपना जीवन भी नहीं संभाल पा रहे, वो संसार कैसे संभालेंगे? बहुत बड़ी विडंबना है। व्यवहार ऐसा हो कि हमारा अपना जीवन भी अच्छा हो जाए और हमारा परिवार भी सुधरे। शास्त्र में भी कई लोग विद्वान हो जाते हैं, किन्तु उन्हें व्यवहार करने नहीं आता। संस्कृत जो लोग पढ़े हुए हैं, उनके लिए लोग मजाक करते हैं कि इनमें तोतारटंत लोग ज्यादा होते हैं, उनको व्यवहार करने नहीं आता। जहाज पर चलने नहीं आता। तमाम बातें जो संस्कृत वालों को नहीं आतीं, गिनाई जाती हैं। किन्तु मैं तो संस्कृत पढ़ा हूं, लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि व्यावहारिक दृष्टि से संस्कृत के अलावा और कुछ पढ़े रहते, तो ज्यादा अच्छा होता। थोड़ी बहुत नहीं, संपूर्ण शिक्षा व्यवहार की अपने संस्कृत साहित्य में है। ऋषियों के साहित्य में है, धर्म साहित्य में है। कैसे परिवार में रहना, कैसे पड़ोस में रहना, कैसे देश में रहना, कैसे दुनिया में रहना, सब तरह की शिक्षाएं संस्कृत में हैं, इसीलिए पढ़ाई के साथ अपने व्यवहार को जोडक़र, जैसे आधार कार्ड को सबसे जोड़ा जा रहा है, ठीक उसी तरह मैं कह रहा हूं कि हम अपने व्यवहार को जो शास्त्र में है, जो शास्त्रों से निकला परिपूर्ण ज्ञान है, उस ज्ञान से हम अपने व्यवहार को जोड़ें। 
यह व्यवहार है कि हमें भोजन कैसे करना है। खड़े होकर नहीं करना है, बैठकर करना है। गीता में लिखा है कि शास्त्रों से पूछकर भोजन करना है। राजस है या तामस है? सात्विक भोजन करेंगे, तभी मन विशुद्ध होगा। भोजन बहुत साफ-सुथरा, सात्विक हो। साफ-सुथरा होगा भोजन, तभी उससे ऊर्जा उत्पन्न होगी। कंकड़ बीनिए, धोइए, सुखाइए, साफ भूमि हो और उसके बाद भोजन को अत्यंत शुद्धता के साथ बनाइए। नहा धोकर बनाइए, चप्पल नहीं पहनकर, कहीं बाल में, नाक में हाथ नहीं डालकर, किसी अन्य का स्पर्श नहीं करके, भोजन बनाइए। उस पर किसी की दृष्टि न पड़े। 

गीताकार ने कहा कि अपने लिए भोजन नहीं बनाना, अपने लिए बनाए तो पाप हो जाएगा। जो अपने लिए भोजन बनाते हैं, वो पाप के लिए ही बनाते हैं। क्या तुमने गेहूं बनाया या चावल बनाया है? इनको बनाने वाला मालिक कोई और है, किन्तु तुम अपना मान रहे हो। किसी दूसरे की संपत्ति को अपना मानने लगें, तो गलती होगी। आप कभी भोजन अपने लिए नहीं बनाएं, सदा ईश्वर के लिए बनाएं। जैसे नौकर मालिक को करता है, ईश्वर को अर्पित करिए भोजन। फिर देखिए, आपका तन-मन सही में पुष्ट होगा। भोजन से कपड़ा तक सारा व्यवहार, एक-एक चेष्टा, सबकुछ विशुद्ध होगा, तो हमारा जीवन सभी क्षेत्रों में परिपूर्ण होगा। भले ही हमारे पास धन नहीं हो, किन्तु हम सुदामा होंगे। सुदामा नहीं टोक रहे कि भगवान ने हमें कुछ नहीं दिया। 
लिखा है भागवत में कि सुदामा जी जब भगवान के यहां से लौटकर आए, तो भगवान ने साक्षात कुछ नहीं दिया। सम्मान तो बहुत किया, किन्तु कुछ दिया नहीं। हीरे-जवाहरात, कपड़े-लत्ते। दूसरा कोई होता, तो नाराज हो जाता कि कभी आपके यहां नहीं आऊंगा। आप क्या मित्र हो, मैं गरीब ब्राह्मण हूं, मुझे कुछ नहीं दिया। जैसे द्वारिकाधीश हैं कृष्ण, तो सुदामा भी द्वारिकाधीश हैं, भले महल नहीं है। 
शास्त्रों ने लिखा है कि ईश्वर को जानने वाला ईश्वर हो जाता है। 
बह्मविद्ब्रह्मेव भवति। 
सुदामा ब्रह्म को पहचानने वाले संत हैं, वे ब्रह्म के समान हो गए। उन्हें वही आनंद चित्त की अवस्था प्राप्त है, वही विश्वास की अवस्था, वही श्रद्धा की अवस्था प्राप्त है, जो भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त है। तो सुदामा ने मांगा नहीं कुछ भी, दूसरा होता, तो हंगामा ही कर देता। खरी-खोटी सुनाता। अनशन पर बैठ जाता। सुदामा जी ने भी विचार किया कि भगवान ने कुछ दिया नहीं, अपनी भाभी के लिए, परिवार के लिए दिया नहीं। मेरे निर्वाह के लिए, समृद्धि के लिए कुछ नहीं दिया। 
यहां चिंतन की क्या अवस्था या विशेषता है, उसे समझिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि भगवान गरीब हो गए हैं। वैसे भगवान तो कभी गरीब नहीं हो सकते। संपूर्णता में जिसको सबकुछ प्राप्त है, उसे ही भगवान कहते हैं। भग माने संपूर्ण ऐश्वर्य। धर्म संपूर्ण, वैराग्य संपूर्ण, ज्ञान संपूर्ण, संपूर्ण जिसके पास हो ऐश्वर्य। भग वाले को भगवान कहते हैं। भगवान की गरीबी कैसे आएगी, वह तो समग्र धर्मशाली, धनशाली है। ऐसा नहीं कि कंजूस हो गए भगवान। फिर सुदामा ने सोचा कि ऐसा क्यों सोचें, भगवान तो परम उदार हैं, कल्याणकारी गुणों के समुद्र हैं। प्रेम, लगाव, शक्ति का समुद्र हैं। कभी भी भगवान पाप नहीं करते। 
जितने दुर्भाव हमारे मन में आते हैं, उसका मूल कारण पाप ही है। चाहे क्रोध हो, लोभ हो, द्वेष हो, सबके मूल में बैठा है पाप। भगवान कैसे अनुदार हो जाएंगे, वे तो परमोदार हैं। सुदामा जी ने समाधान निकाला, अद्भुत भगवान की कृपा है, भगवान ने हमारे परित्याग को, हमारा जो समष्टि के लिए समर्पित जीवन है, रोम-रोम से बाहर से भीतर से जो हमारा समुदाय की सेवा के लिए जीवन है, उससे कहीं हम अलग न हो जाएं। कहीं हम भोगी न हो जाएं, कहीं हम संतुष्ट न हो जाएं, कहीं हमारा भजन न छूट जाए, इसलिए भगवान ने नहीं दिया। कहीं हमारी विशिष्टता लुप्त न हो जाए, कहीं हम समाज के लिए जीना छोडक़र अपने लिए ही न जीने लगें, इसलिए भगवान ने हमें कोई भौतिक संसाधन नहीं दिया।  
यह विचारों की महान अवस्था, इससे बड़ा व्यवहार क्या होगा। सुदामा ने कितना बड़ा समाधान किया। अब तो लोग ऋण लेकर व्यक्तिगत संपत्ति बना लेते हैं, दिवालिया घोषित हो जाते हैं। बड़े शहरों में हजारों लोग पूर्ण संपत्तिवान होकर भी अपना दिवाला निकाल रहे हैं। कोई १० हजार तो कोई ५ हजार करोड़ रुपए का, ऐसे लोगों को कब और कैसे सुकून मिलेगा? कैसे शांति मिलेगी? कभी नहीं मिलेगी। 
यहां तो द्वारिकाधीश ने अद्भुत प्रेम की वर्षा करके, समर्पण की धारा बहा दी। सुदामा टस से मस नहीं हो रहे हैं, यह व्यवहार है, व्यवहार का चरम है। हमारी गरीबी हमारे कर्मों के कारण है, तो क्या करेगा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री? हमारी गरीबी, बुढ़ापा, इसे कोई रोकेगा, हमारी कुरूपता भी एक गरीबी है, इसको कौन रोकेगा? हमारा निर्वंश होना भी गरीबी है, इसे कौन रोकेगा? कौन दुनिया में माता-पिता की बराबरी कर सकता है, किन्तु माता-पिता को भी एक दिन खोना ही है। होना ही है एक दिन अनाथ। हमें समझना होगा कि संसार क्या है? विकास क्या है? परिवार क्या है? इसलिए हम लोग कहते हैं कि हमारे भगवान ही सबकुछ हैं। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - 9
अपनी जो संस्कृति है, वह ज्ञान की परिपक्व अवस्था की बात करती है। अभी भी ऐसे संत हैं, जो सही जीवन, सही विधि से जुडक़र लोगों को प्रेरणा दे रहे हैं। हम सब लोगों को क्या करना चाहिए, समय निकालकर स्वाध्याय करें, जिनके प्रतिपादित मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। जैसे सूर्य और चंद्रमा नहीं बदलते। जैसे इस अनादि सृष्टि का लाभ, उसका संपादन नहीं बदलता, वैसे ही हमारे शास्त्रों में अमर मूल्य का परिपालन कभी भी नहीं बदलता। जीवन को पूर्णता देने वाले मूल्यों से जुडक़र अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। 
आज लगने लगा है कि गलत काम किए बिना कोई बड़ा नहीं हो सकता, तो ये गलत बात है। सही मार्ग पर चलकर भी बड़ा आदमी हुआ जा सकता है। 
मैं गया था संत ज्ञानेश्वर के गुरु जी निवृत्तिनाथ की समाधि पर। निवृत्तिनाथ जी उनके बड़े भाई भी थे। संत ज्ञानेश्वर ने १८ साल की आयु में जीवित समाधि ले ली। उन्होंने अपने जीवन में महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे, गीता के ७०० पदों की ९००० से अधिक छंदों में व्याख्या की मराठी में। दुनिया का इतिहास नहीं है कि १८ साल की आयु में इस तरह का परिपूर्ण जीवन। जीवन में केवल लिखने-पढऩे का नहीं, सीखे हुए के आधार पर अपने रोम-रोम को परिपक्व बनाना, सर्वश्रेष्ठ अवस्था को प्राप्ति करना और उसके माध्यम से संसार से पूर्ण विरागी हो जाना। जो काम था, जल्दी किया और इस संसार से चलते बने। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। निवृत्तिनाथ जी के यहां मैं गया त्रियंबकेश्वर, तो हैरान हो गया कि कैसे लोग खड़े होकर गा रहे हैं, प्रवचन हो रहा है, अद्भुत है। वहां जाकर लग नहीं रहा था कि संसार में ही है यह जगह। 
हमारा संपूर्ण जीवन व्यवहार ही है। हमारा कदम-कदम है, हमारा कर्म हमारी चितवन, चलना, बैठना, खाना, पीना, सबकुछ व्यवहार है। व्यवहार के बिना तो जीवन मृत है। व्यवहार नहीं तो जीवन कैसा? यदि हमारा सबकुछ व्यवहार है, तो हम सोचें कि हमारे व्यवहार से कैसे हमें सही जीवन प्राप्त होगा। बोलना भी व्यवहार है, लेकिन केवल बोलना ही हो और कार्य व चरित्र में वह नहीं दिखे, तो क्या मतलब?
इसलिए हमारे संपूर्ण व्यवहार का मूल ज्ञान है और ज्ञान का मूल वेद हैं, पुराण, स्मृतियां हैं। केवल भारतीय संविधान से व्यवहार को पूर्णता प्राप्त नहीं होगी। संविधान नहीं बोलता कि माता को देवी बोलो, पिता को देव बोलो। संविधान यहां तक पहुंचता ही नहीं है। देवत्व क्या है, संविधान नहीं बतलाता। सत्य का क्या मतलब है। सत्य का जो स्वरूप है, पहले पायदान से अंतिम पायदान तक सत्य की आवश्यकता है। हमारा संविधान यह नहीं बोल रहा कि आप शुद्ध आहार लीजिए, नहीं तो आपका मन विकसित नहीं होगा। अशुद्ध आहार से आप कभी भी हरिश्चंद्र या सत्य बोलने वाले नहीं बनेंगे, अंदर-बाहर से सशक्त नहीं बनेंगे। खेत ही अच्छा नहीं है, तो बीज क्या करेगा? 
तमाम तरह के जो संगठन हैं, उनके अपने जो विचार हैं, वो अधूरे हैं। जब वे शास्त्रों से गुरुओं के माध्यम से प्राप्त होंगे, तो ही विचार के सही व्यवहार को देंगे। विचार में सही व्यवहार होना चाहिए। बोलने-बैठने में सही व्यवहार। अभी तो लोगों को पता ही नहीं है कि बड़ों के सामने पैर पर पैर रखकर नहीं बैठते। एक बार जर्मनी की दो लड़कियां मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई थीं, तो मेरे यहां आईं, तो कहा गया, महाराज इनको मोक्षपुरी पर बतलाइए। 
वो २७ -२८ साल की थीं, घुटनों के ऊपर जो पहनते हैं, वो कपड़ा पहने। दोनों ने मेरी ओर ही पैर कर लिया। मैंने सोचा, ये मोक्षपुरी पर पीएचडी करने आई हैं! फिर मैंने पूछा, जैसा पैर आपने मेरी ओर किया, वैसा कभी अपनी क्लास में किया क्या? उन्होंने कहा, नहीं किया। 
अपने से बड़ों के यहां कभी किया क्या? कहीं ऑफिस में किया क्या? हम आपकी पीएचडी के एक निर्देशक होंगे, किन्तु आपने ये क्या किया, ये कौन-सी संस्कृति है? जो अपने से वरिष्ठ हैं, उन्हें सम्मान दें। ऐसे ही जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने व्यवहार को शास्त्रों से जोडक़र शुद्ध करेंगे, मर्यादित करेंगे, प्रचार-प्रसार करेंगे, तो हमारा जीवन सही होगा। इसीलिए अपना देश विश्व गुरु कहलाता था। संसार को सिखलाने वाला कहलाता था। संसार के सभी लोगों को मनु ने चरित्र की शिक्षा दी। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - 8
कल ही एक व्यक्ति बतला रहे थे कि एक आदमी को हमने जैसे-तैसे करके बड़ी गद्दी दिलवा दी। गद्दी दिलाने के लिए जाल फरेब किया, तो वह गद्दी कितने दिन चलेगी और वह महंत कितने दिन चलेगा, वस्तुत: साधु होगा या नहीं होगा। कैसे बड़ा उदार होगा, कैसे उसमें तमाम विशिष्टताएं होंगी, कैसे उसका जीवन चमचमाएगा, हो ही नहीं सकता। गलत पद्धति हो गई, उद्देश्य गलत, शिक्षा गलत, उसका निर्माण गलत। 
आज कोई कह ही नहीं रहा कि कहां से शुरुआत होगी, कहां से शुरू करें। अभ्यास की आवश्यकता है। शास्त्रों ने इस बात को बार-बार दोहराया है। जैसे अपनी दूकान नहीं बंद कर रहे हो, जैसे अपने दूसरे काम बंद नहीं कर रहे हो, वैसे ही आप अभ्यास बंद मत करो। जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे अभ्यास से बढ़ाइए। देखिए आपकी वैराग्य की स्थिति क्या है, आपके विश्वास की स्थिति क्या है, विश्वास के अभाव में भी लोगों का जीवन बिगड़ रहा है। शास्त्रीय लोगों में विश्वास नहीं है। जाति में परिवार में नहीं और परलोक में विश्वास नहीं है। इसमें श्रद्धावान जरूर होना चाहिए। श्रद्धावान ऐसा नहीं कि अंध भक्त हो जाएं। श्रद्धा का अर्थ है - शास्त्रों में पूर्ण विश्वास हो और उन शास्त्रों के आधार पर जिन्होंने अपने जीवन को परिपूर्ण कर लिया है, उन पर विश्वास हो - यही श्रद्धा है। आस्तिक बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं।
यह भी होता है कि लोग पुरानी चीजों, प्राचीन ज्ञान से दूर भागने लगते हैं। मुंह से खाने की परंपरा या तरीका पुराना है, तो क्या नाक से खाने लगोगे? सडक़ पर ही चलना है या सडक़ पर नहीं चलकर कहीं और चलने लगोगे? हवाई जहाज उड़ता है, उसके उडऩे का तंत्र व्यवस्थित है, यह रोज नहीं बदलता है। इसलिए हम केवल कपड़ा बदलते हैं, केवल कार बदलकर, सोफा बदलकर, मित्र बदलकर, कारोबार बदलकर, आभूषण बदलकर जीवन को परमपथ पर ले जाना चाहेंगे, तो यह बिल्कुल ढकोसला हो जाएगा। जो बना है परंपरा से, जो बने हैं संयम-नियम, उनके आधार पर यदि हम अपने जीवन को ले चलेंगे, तो हमारा जीवन धन्य होगा। इसलिए व्यवहार को दुरुस्त करने की आवश्यकता है। तमाम लोग ऐसे हैं, जो बहुत बड़ी-बड़ी बात बोलते हैं, किन्तु उनका व्यवहार शून्य होता है। 
हमने छोटी आयु में एक कहानी पढ़ी थी - आज भी वह कहानी पढ़ाई जाती है। किसी तोते को उसके पालक ने सिखाया था कि शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, उसमें मत फंसना। कंठस्थ हो गया। एक बार शिकारी आया, जाल बिछाया और दाना डाला, पास ही बैठ गया कि देखें, कौन फंसता है, तो वही तोता आया। तोते ने तो केवल याद किया था मालिक के शब्दों को, बार-बार सुनकर अभ्यास करके, किन्तु उसे यह नहीं पता था कि शिकारी कौन होगा, दान क्या होगा, कैसे आएगा, कैसे जाल बिछाएगा, फंसने का क्या अर्थ है, कैसे हम फंसने से बचेंगे, यह कुछ नहीं पता था। ठीक इसी तरह से तमाम अच्छी बात करने वाले लोग हैं, किन्तु पहले बतलाया जा चुका है, ज्ञान को परिपक्व बनाना पड़ता है। ज्ञान जब परिपक्व होता है, तभी लाभ देता है। 
ऐसे ही तमाम लोग हैं - रामायण या भागवत पर बोल रहे हैं। लोकतंत्र पर बोल रहे हैं, तमाम विधाओं पर बोल रहे हैं, स्वच्छता पर बोल रहे हैं, कुरीतियों को दूर करना है, लेकिन ये तोते के जैसा बोल रहे हैं। तोता भी बोलता था, किन्तु आकर जाल में फंस गया। शिकारी ने फंसा लिया। तो हम अपने ज्ञान को परिपक्व ज्ञान बनाएं, तब हमारा व्यवहार शुद्ध होगा, इसलिए हमारे यहां कहा जाता है कि केवल अधकचरा ज्ञान विष के समान होता है। ज्ञान पचना चाहिए, चरित्र में उतरना चाहिए। दुुनिया में जितने दुराचारी हुए, उन्हें भी पता था कि झूठ नहीं बोलना है, चोरी नहीं करना है, गलत आहार नहीं लेना है, गलत स्त्री को साथ नहीं लेना है, दूसरे की स्त्री को नहीं देखना है, कहीं से भी लांछित नहीं होना है, छल-कपट नहीं करना है, किन्तु वे नहीं कर सके। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - ७
लिखा है शास्त्र में - सब लोग मुक्त हों। कुम्हार जैसे मिट्टी से घड़ा बना लेता है, घड़ा अलग करके रख देता है, किन्तु चक्का चलता रहता है, क्योंकि उसमें गति है, चलने की शक्ति है। घड़ा भले ही हट गया, किन्तु चक्र चलता है। जीवन में भी ऐसा ही होना चाहिए। आप बन गए, तो चक्र को चलने दें, उससे आप मुक्त हो जाएं। 
भगवान की दया से जीवित रहते ही लोगों को ज्ञान हो जाता है। दुनिया में जितने वैज्ञानिक नहीं हुए हैं, उससे ज्यादा दुनिया में मुक्त पुरुष हुए हैं। एक से एक ऋषि, महात्मा, संत हुए हैं, जिन्होंने पूरे संसार को आलोकित किया है।
हम मनुष्यों की इतनी बड़ी आबादी हो गई, लगभग ७ अरब लोग संसार में हैं, किन्तु व्यवस्थित जीवन के लोगों का प्रतिशत कम हो गया। आज बहुत कम लोग हैं, जिनका जीवन सही मार्ग पर चल रहा है, जिन्हें स्वयं सुख मिल रहा है, संतोष मिल रहा है। जिनका जीवन दूसरों के लिए भी प्रेरणादायक है, ऐसे बहुत कम प्रतिशत लोग हैं। यहां तो जब हम देखते हैं, तो उन महान लोगों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं, जिनका जीवन धन्य, प्रेरक था। संस्कारितों का प्रतिशत कम हो रहा है। श्रेष्ठ उद्देश्य वालों की, महापथ पर आरूढ़ लोगों की संख्या बहुत कम हो रही है, यह चिंता की बात है। आज हम नजर दौड़ाते हैं, तो सोचते हैं कि किसके हाथ में नेतृत्व आ गया है, ऐसा कौन है, जो वस्तुत: राष्ट्रभक्त है। जो मातृभूमि के सेवक हैं, बहुत कम हैं ऐसे लोग। 
जो लोग आज मोक्ष के लिए जी रहे हैं, उनमें भी कमी आई है। गाड़ी नहीं हो, तो चलेगा, माला नहीं हो, तो चलेगा। हमारी भी वर्दी है, प्रेरक है, बतलाती है कि हम साधु हैं, किन्तु भगवान की दया से हमारा जीवन धार्मिक लिबास और बाह्य स्वरूप से ठीक होकर भी यदि हमारा जीवन केवल धन के लिए है, केवल भोग के लिए है, तो हमारा बाहरी स्वरूप कभी भी हमें श्रेष्ठ जीवन नहीं दे सकता। सभी क्षेत्रों में जो गिरावट आई है और जो गिरावट राष्ट्र को प्रभावित कर रही है, पूरी मानवता, पूरी जाति को प्रभावित कर रही है। सही शिक्षा के अभाव में, वेदों, दर्शनशास्त्रों की शिक्षा के अभाव में, शिक्षा की परिपक्वता के अभाव में, शिक्षा को चरित्र में नहीं उतारने के कारण ही सभी क्षेत्रों में विकृतियां आई हैं। उन लोगों को देखकर, जो बहुत समृद्ध हैं, हमें अपने जीवन को नहीं ढालना चाहिए। हमें उन लोगों को जीवन में ढालना चाहिए, जिन्होंने अपने जीवन की परिपूर्णता को प्राप्त कर संपूर्ण समाज को आलोकित किया और बल दिया। किन्तु अनेक लोग आलोकित व्यक्ति को नहीं देखते। हम तो पड़ोस वाले को देखते हैं कि कहां से पैसा लाकर बंगला बना लिया, कहां से गाड़ी ले आया, हमें भी ऐसे ही करना है। मालूम हो जाता है कि पड़ोसी गलत विधि से लाया है, तो भी फर्क नहीं पड़ता, लोग केवल यह सोचते हैं कि इसका हो गया, तो ऐसी ही किसी गलत विधि से मेरा भी हो जाए। जबकि गलत विधि से जो शक्ति आएगी, परिवार, प्रभाव आएगा, चाहे ज्ञान हो, वो कभी भी कारगर नहीं होगा। वस्तुत: सफल नहीं होगा। तो शिक्षा को हमें बदलने की आवश्यकता है। संयम हो और बढ़े। हमारा कदम-कदम शास्त्र की मर्यादा में होना चाहिए। 
हमारे कमाने का तरीका भी सही होना चाहिए। न्याय से अर्जित धन को ही स्वीकार करने के लिए शास्त्रों ने कहा, किसी तरह से कमाया और दे दिया, तो दान नहीं कहलाएगा। न्यायार्जित धन का परित्याग दान है। न्यायपूर्वक जो धन अर्जित किया है, शास्त्रों की रीति से किया है, जो संविधान है, उसके भी नियम-कायदे के अनुरूप किया है, उससे जो धन अर्जित होगा, वही पवित्र होगा। उससे ही आपको सही जीवन मिलेगा, संतति को अच्छा स्वरूप मिलेगा। सबकुछ मिलेगा, अगर आपने ऐसे कमाया। 
यदि कहीं से झूठ से पाकिटमारी से धन लाए, फरेब से, जैसे-तैसे, उससे कुछ नहीं होगा। कहीं से भी लाई गई पत्नी वंश का गौरव नहीं बढ़ाएगी, उससे तो वर्णसंकर ही पैदा होना है। उससे हमारा जीवन नहीं सुधरेगा। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - 6
सबसे बड़ा सिद्धांत है कि हम अपने को ईश्वरीय कार्य के लिए नौकर मानें। संसार के समस्त जीवों को यह बात याद कराई जानी चाहिए और बार-बार यह कहना चाहिए। आप केवल यह नहीं मानो कि दो पैसा कमाने के लिए आपका जीवन है, ऐसा नहीं मानो कि परिवार के लिए, पत्नी, बच्चे, मां के लिए जीवन है, ऐसा मत मानो कि हमारा जीवन केवल जयजयकार के लिए है, यश के लिए है, मकान के लिए है। हमारा जीवन ईश्वर के कार्य के लिए है।
तुम्हारे रोम-रोम, तुम्हारी सांस-सांस का उपयोग, तुम्हारी हर चेष्टा का उपयोग ईश्वर के लिए है। राम जी के लिए हनुमान जी ने पूरा जीवन दे दिया। इसीलिए हम सभी लोगों को अपने संपूर्ण जीवन भाग का प्रयोग राम सेवा के लिए करना है। थोड़ा करने से नहीं चलेगा, पूरा करना पड़ेगा। इससे हमारी गृहस्थी नहीं बिगड़ेगी। जैसे ९९ रुपए एक सौ रुपए के नोट में शामिल हैं, वैसे ही ईश्वर के प्रति समर्पण में सब शामिल है। ईश्वर सेवा में सारी सेवाएं समाहित हो जाती हैं। उसी में राष्ट्र सेवा, जाति सेवा, समाज की सेवा समाहित है। 
जो लोग यह समझते हैं कि हमारे पास साधन नहीं है, तो हम भगवान की कैसे सेवा करेंगे, तो यह उनकी भूल है, साधन से ईश्वर का कोई मतलब नहीं है। साधन मिला है, मन मिला है, मन से करो सेवा। मन को व्यवस्थित करो। बड़ा आदमी जैसे आता है, तो लोग कालीन बिछाने की सेवा करते हैं, तुम भी ऐसा मानो कि ईश्वर के लिए हमारा मन है, उसी का यह मंदिर है, उसी का मंदिर है हमारा चित्त, हमारी वाणी, सब ईश्वर के लिए है। 
जैसे कोई विशिष्ट अतिथि आता है आपके घर, तो आप पूरी शक्ति लगाकर सफाई अभियान चलाते हैं। ईश्वर आपके मन में आने वाले हैं, तो आपके मन को कितना साफ होना चाहिए। मन को साफ रखने, शरीर को साफ करने का प्रयास, यह भी साधन का एक बड़ा स्वरूप है। ऐसा ही हनुमान जी ने किया, ऐसा ही सभी आचार्यों ने किया। समर्पित होकर ही आप अपने जीवन में पूर्णता प्राप्त करेंगे। 

प्लेटो कहते थे कि शासक को दार्शनिक होना चाहिए, देश की बागडोर दार्शनिकों के पास होना चाहिए। हालांकि यह चिंतन सफल नहीं हो पाया। सुकरात के शिष्य थे प्लेटो, जिनको हिंदी में अफलातून भी बोलते हैं। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र का संचालन दार्शनिक करें, किन्तु संसार में इसका प्रयोग नहीं हो पाया। मेरा कहना है कि इस बात में सुधार किया जाए। देश की बागडोर जिनको दी जाए, उन्हें दर्शनशास्त्र जरूर पढ़ाया जाए। उन्हें बताया जाए कि राम जी ने कैसे संपूर्ण सृष्टि को राममय बना दिया। सृष्टि को कैसे निर्दोष और सशक्त स्वरूप प्रदान किया। 
आज देश की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में कतई नहीं हो, जिन्होंने संपूर्ण शक्ति लगाकर किसी तरह से धन अर्जित करके अपने लिए बंगला बना लिया। बाद में घोटाले में फंस गए। वोट मिला, तो लोगों को अपना माना और वोट नहीं मिला, तो पांच साल के लिए लोगों को अंगूठा दिखा दिया। आज नेता अपनी जाति का अपने प्रांत का शोषण करने में लग जाते हैं। अपने लिए और अपने दो बच्चों, परिवार के लिए नेता गलत काम करता है। बागडोर संभालने वाले आज रामजी से नहीं सीखते।
समष्टि की भावना जब आती है, तब दुष्कर्म खत्म होने लगते हैं। संपूर्ण सृष्टि में जो आज अव्यवस्था मची है, वह समष्टि या समाज के बारे में न सोचने के कारण ही है। हम सोच नहीं पा रहे हैं, इसका एकमात्र कारण है कि हमारी शिक्षा हमारा सान्निध्य श्रेष्ठजनों के साथ नहीं है, शिक्षा हमारी नहीं है। शिक्षा का परिपक्व स्वरूप नहीं है। प्रयोगात्मक स्वरूप नहीं है। यदि स्वरूप परिपक्व हो जाए, तो सब पता लग जाए, तो आदमी गलत दिशा में कभी न जाए। 
कुछ ही दिन पहले मैंने एक लेख पढ़ा था कि कैसे अमरीका में पैसा उत्पादन की नीति को तैयार किया गया। विचित्र स्थिति है, केवल पैसा और केवल भोग। भोग में सब आ जाता है, आंखों से, जीभ से, कानों से, जननेन्द्रिय के माध्यम से, तमाम जो सुख के साधन हैं, उन्हें प्राप्त करने के उद्देश्य से ही सबकुछ करें, तो पैसे का बड़ा योगदान है इस मामले में। ऐसे में अपने चरित्र से हम कैसे संसार को आलोकित करेंगे, कैसे विश्व गुरुत्व की प्राप्ति होगी। हम कैसे अपना जीवन चमकीला बना लेंगे, कैसे सबके लिए हमारा जीवन प्रेरक होगा। इसकी शिक्षा नियमित होनी चाहिए। एक दिन पढक़र कोई विद्वान नहीं हो जाता। कच्चा फल सुखदायक नहीं होता। फल का विकास आवश्यक है। ठीक इसी तरह से जीवन है, पढऩे की बहुत आवश्यकता है। 
योग दर्शन के भाष्य में लिखा है कि मोक्ष शास्त्रों के अध्ययन को स्वाध्याय कहते हैं। अभी तो पता ही नहीं है कि मोक्ष किसका होगा, पता नहीं है कि मोक्ष है क्या? लोग समझ रहे हैं कि मोक्ष माने मरना, परलोक में जाना, किन्तु ऐसा नहीं है। मोक्ष माने आनंद की उस धारा को पाना जो कभी सूखती नहीं है। ज्ञान के उस स्वरूप को पाना जो कभी विकृत नहीं हो, किसी भी तरह का दूषण जिसमें नहीं हो, कोई कुरूपता नहीं हो, गलत भाव नहीं हो। यह जो अवस्था जीवन की है, यही मोक्ष है। जिसकी प्राप्ति के बाद आदमी कहने लगता है कि मुझे अब कुछ नहीं चाहिए। जीवन के उद्देश्य को छोटे दायरे से बड़े दायरे में ले जाना है। इस काम को शास्त्रों ने, ऋषियों ने सदियों से किया। क्रमश:

Tuesday, 25 December 2018

रावण कैसे भटक गया

भाग - ५
राम जी से भी कितने लोग प्रभावित हैं, कितने लोग उन्हें अपना मानते हैं, किन्तु राम जी ऐसा नहीं करते। उन्हें पता है कि पत्नी माने एकमात्र सीता और संसार की दूसरी स्त्रियां हमारी मां हैं। यदि हम सभी स्त्रियों को पत्नी बनाने लगेंगे, तो महारावण हो जाएंगे। 
हमारे प्रारब्ध से जो बनी है, वो मिलेगी। यदि हमारे प्रारब्ध अच्छे नहीं हैं, पाप ज्यादा है, तो दुख भी मिलेगा। मकान सुख भी देता है और दुख भी देता है। परिवार के लोग सुख भी देते हैं और दुख भी देते हैं। भगवान की दया से जो पदार्थ हमें मिले, वह सही रीति से मिले और उसका उद्देश्य सही हो। हमें पत्नी मिलती है, हम दोनों मिलकर धर्म का संपादन करेंगे। केवल संतान और भोजन नहीं लें, केवल इधर-उधर घुमाते रहें, इससे नहीं चलेगा। जैसे सभी नदियों का एक ही परम गंतव्य है, ठीक उसी तरह से सभी मनुष्यों का एक ही परम गंतव्य है, परम उद्देश्य है कि हम ईश्वर जैसा जीवन प्राप्त करें। जब हमारा ईश्वर जैसा जीवन हो गया, तो परिवार, पड़ोस, संपूर्ण संसार का मानवीय जीवन, संसार का सर्वश्रेष्ठ हमें प्राप्त होगा। विभीषण को प्राप्त हो गया। वह भी अपने राक्षस भाइयों की उसी पंक्ति में था, किन्तु उसने भगवान की भक्ति मांगा, जीवन केवल भोग के लिए नहीं हो। मेरा जीवन बाहर भी और भीतर भी ईश्वर की सेवा के लिए हो। राष्ट्र की सेवा करूं, मानवता की सेवा करूं, लांछित कर्म नहीं करूं। ऐसा ही हुआ, विभीषण लंका में रहकर भी पूर्ण रूप से मनुष्य जीवन को जी रहे हैं। वे उन कामों में नहीं हैं, जिनमें रावण और कुंभकर्ण लगे हैं। उनका लक्ष्य है कि हमें राम जी की सेवा करनी है और राम जी के माध्यम से संपूर्ण मानवता की सेवा करनी है, इसीलिए बिना किसी बंधन के, बिना किसी माध्यम के वे भगवान की सेवा में आ जाते हैं। उनके अंदर है कि मैं भगवान का हूं। 
वस्तुत: संसार के सभी जीव भगवान की सेवा के लिए ही हैं। एक भी ऐसी वस्तु नहीं, एक भी ऐसा जीव नहीं, जो भगवान की सेवा में नहीं है। संपूर्ण सृष्टि भगवान की सेवा में है। यही सिद्धांत है। हनुमान जी, विभीषण जी तो राम जी की सेवा में आ गए। गलत वातावरण के अनुसार जो व्यवहार था उसे छोड़ा। और भगवान की दया से फिर कभी डिगे नहीं। 

दर्शनशास्त्र में संभव प्रमाण पढ़ाया जाता है जैसे कि आपके पास सौ रुपए हैं, माता जी ने कहा कि एक रुपया देना मुझे, तो आपने कहा, वो तो नहीं है मेरे पास, जब तुम्हारे पास सौ रुपये हैं, तो फिर एक रुपया उसी में समाया है, एक भी दो भी तीन भी एक से लेकर ९९ तक उसमें समाया है। वैसे ही भगवान की भक्ति सेवा में जो लग जाएगा, उसकी जो दूसरी सेवाएं हैं, उसके दूसरे जो उद्देश्य हैं, उसके लिए अलग से कुछ नहीं करना पड़ेगा। इसे संभव प्रमाण कहते हैं। सौ रुपये के नोट में जैसे ९९ रुपए शामिल हैं, ठीक उसी तरह से ईश्वर के लिए समर्पित हमारा जीवन हमारे संपूर्ण जीवन, संपूर्ण जिम्मेदारियों को किनारे लगाएगा। ऐसा नहीं है कि आप भगवान की सेवा में आ गए, तो आपके बच्चों का क्या होगा? कहां जाएंगे बच्चे? 
पूर्ण समर्पित जीवन का यही भाव सतयुग-द्वापर का निर्माण करता है। अभी जो भक्त, साधु हैं, लगता है समाज से कटे हुए हैं। संत महात्मा लोग समाज की दृष्टि से लगता है कि अकर्मण्य हैं, पलयानवादी हैं, किन्तु उनका जीवन दूसरों को जीवन देता है। यह ऋषियों का क्रम है, राम जी का क्रम है। वे इतनी ऊर्जा तैयार करते हैं कि जिसका कोई जोड़ नहीं है। कोई यह न माने कि वे लेटे हुए हैं, बेकार हैं, संतों का कोई काम नहीं है। परिपूर्ण जीवन है उनका और संत वो काम करता है, जो दूसरा कोई नहीं करता। इसीलिए संतों की महिमा है। संतों को समझना चाहिए। आप ऐसा न समझो कि हम बैठकर खाने वाले लोग हैं, हम बड़ी कंपनी के लोग हैं। ईश्वर को आवश्यकता होती है, तभी सच्चे संत आते हैं।
रामकाज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकार।।
रामचरितमानस में लिखा है - जामवंत जी ने अपने साथियों को याद दिलाया। राम जी का कार्य है, तभी हम हुए हैं। सीता जी की खोज के लिए समुद्र पार करना था। जामवंत जी ने सबको जगाया। किसी ने कहा कि जाऊंगा, तो लौट के नहीं आ पाऊंगा। किसी ने कहा कि समुद्र पार कैसे करूंगा। कैसे काम होगा। तब जामवंत जी ने हनुमान जी को याद दिलाया, हनुमान जी ने जब अपनी शक्तियों के बारे में सुना, तो उनका शरीर पर्वताकार हो गया   
रामकाज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकार।।
क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - ४
अभी मैं पढ़ रहा था मनुस्मृति को, जिनकी वाणी को वेदों की समकक्षता प्राप्त है, ऐसे मनु ने कहा कि अधर्म से भी लोग बढ़ते हैं। अधर्म से बढ़ते हैं लोग, तो उनके कई पिछलग्गू, चापलूस हो जाते हैं।  
सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति 
अगर सोचें कि जिसके पास पैसा है, वही बलवान, सुंदर, मधुर वाणी वाला, वही देवता तुल्य है -तो ये राक्षसी भाव हो गया। यदि पैसे हैं और यज्ञ में उपयोग नहीं हो रहा है, दान में नहीं हो रहा है, मानव सेवा में नहीं हो रहा है, तो वह कौन-सा पैसा, कौन-सी शक्ति है इन्द्रियों की, कौन-सा विश्वास है, पैसा नहीं चलेगा। पैसे का सदुपयोग हो। यदि हमारे शरीर में बल है और लोगों को सताने के लिए उसका उपयोग करते हैं, तब तो हमारा शरीर नहीं चलेगा। हमें अपने शरीर को चलाने के लिए ऊर्जा चाहिए, किन्तु वह ऊर्जा जो हमारे शरीर का सही उपयोग कराए। आदमी सही चाहिए, परिवार सही चाहिए, यदि हम गलत लोगों से सम्बंध कर लेंगे, तो वो हमें भी गलत बना देंगे। 
राम जी ने सेना बनाई रावण पर आक्रमण के लिए, जानकी जी की खोज के लिए बहुत सोच समझकर सुग्रीव को मित्र बनाया और उसकी भी अपनी समस्याएं थीं, राम जी की भी थी। राम जी को अपनी प्राणवल्लभा को खुजवाना था कि वो कहां हैं। यहां लीला के क्रम में राम जी हैं। अभी लीला पुरुषोत्तम हैं, वे मनुष्य को प्रेरित करने के लिए लीला कर रहे हैं। तो प्राणवल्लभा को खुजवाना होगा, नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि कैसे राम हैं, कैसे ईश्वर हैं, कैसे बलवान हैं कि पत्नी को खुजवाए नहीं। तो सुग्रीव से मित्रता कर लिया, राज्य भी दिलवा दिया, पत्नी भी दिलवा दी, किन्तु कहा कि मेरी पत्नी की खोज में भी लगना होगा। सुग्रीव के व्यवहार में बीच में विकृत्ति आई, किन्तु फिर वह भगवान के दर्शन के बाद फिर सही दिशा में मुड़ा। भगवान से मिलने के बाद भी वह धन और भोग की ओर मुड़ गया था, किन्तु हनुमान जी ने, लक्ष्मण जी ने उसके ज्ञान को परिपक्व ज्ञान के रूप में तैयार किया। उसके मन पर जो मल जम रहा था, जो विषयांतर हो रहा था, भटक रहा था भोग और धन के लिए, उसको बतलाया गया कि ये जो तुम्हें शक्ति मिली है, राम जी के आशीर्वाद से मिली है। यह केवल समस्त जीवों को परम कल्याण की प्रेरणा देने के लिए मिली है। ये राम जी की सेवा के लिए है, राम जी की सेवा ही मानवता और संपूर्ण जंतुओं की सेवा है, तो फिर सुग्रीव यथोचित कर्म में पूरे मन से लग गया। 
जैसे सुग्रीव को उपदेश की आवश्यकता पड़ी, विभीषण को पड़ी, असंख्य लोगों को पड़ती रहती है। यदि न दोहराया जाए, तो आदमी भटक जाता है देवत्व ही नहीं, मनुष्यत्व भी चला जाता है। बार-बार तथ्यों को याद कराया जाए, विचारों, भावों, शास्त्रों के उपदेशों को याद दिलाया जाए, क्योंकि यदि याद नहीं दिलाया जाएगा, तो कहीं भी मनुष्य भटक सकता है। 

जैसे सेना में रोज दौड़ाते हैं, बैठे-बैठे ही भोजन मिलने लगे, भोग मिलने लग जाए, तो मुलायम पदार्थ का ही सेवन होता रहेगा, तो पुलिस वाला किसी चोर को तो नहीं पकड़ पाएगा। जैसे सेना और पुलिस में अभ्यास बंद नहीं होता, वैसे शिक्षण बंद नहीं होना चाहिए। परीक्षा दिया और नौकरी मिली, तो पढऩा बंद कर दिया, क्यों? आज सारी दुनिया का भोजन सारी दुनिया के लोग खा रहे हैं। मकान, कपड़ा, आदान-प्रदान हो रहा है, जो लौकिक संसाधन हैं जीवन के लिए उसका अनुकरण हम कर रहे हैं, किन्तु हम जीवन की प्रमाणित विशिष्टताओं का अनुकरण नहीं कर रहे हैं।
हमें चाहिए कि हम अपने जीवन को उन तत्वों से जोड़ें, जो तत्व हमारे जीवन को ऊपर ले जाएं, आनंददायक बनाएं। केवल मकान बनाने से काम नहीं चलेगा। केवल दूकान से काम नहीं चलेगा। केवल जैसे-तैसे परिवार से काम नहीं चलेगा। जैसे रावण ने परिवार बढ़ा लिया, राक्षस लोग जैसे परिवार बढ़ाते हैं। ठीक उसी तरह से शास्त्र की मर्यादा से दूर हटकर लोग परिवार बढ़ाते हैं, यह नहीं चलेगा। कोई भी लडक़ी नहीं बन सकती पत्नी। इतनी पत्नियों को एकत्र करके भी रावण संतुष्ट नहीं हो पाया और खोजता रहता था, लडक़ी मिल जाती, तो घर बस जाता, खुशहाली बढ़ जाती। मालूम है कि लडक़ी अवैध रूप से आई है, ताकत से आई है, अपहरण करके आई है, यातनाएं झेलकर आई है, फिर भी वह लाता गया। इस क्रम ने उसे बड़ा राक्षस बना दिया। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - ३
क्या करते हैं आज के लोग, आनंद लेते हैं, विकृत्त संसाधन को अपनाते हैं। कोई जरूरत नहीं कि रोज पत्नी बदलें, किसी को भी पत्नी बनने के लिए बाध्य करें। रावण के अभिभावकों को रोकना चाहिए था कि अभी तुम्हारा ज्ञान पका नहीं है, उसे परिपक्व करो। यह ठीक नहीं है कि संसार के सभी साधन, सभी सुंदर स्त्रियां प्राप्त हों, इन्द्रियों की परमलोलुपता प्राप्त हो। कोई बताने वाला नहीं था, इसलिए पूरा जीवन ही भोग को समर्पित हो गया। यही सब आज संसार में हो रहा है। केवल हमारा सम्मान हो, सब साधन मिले, सब धन मिले, संपूर्ण समाज हमारे आगे-पीछे रहे, तो शास्त्र का अध्ययन नहीं होने से और पिछले जन्म के पापों के कारण श्रेष्ठजन के कहने के बाद भी यह बात ध्यान में नहीं आती है। यह भी ज्ञान की बात है। आदमी जब अत्यधिक पापी होता है, तो वह अपने बड़ों की बात नहीं सुनता, पिता की बात, माता की बात, बड़े भाइयों की बात नहीं सुनता और वैसे ही उसका जीवन पूरा हो जाता है। इसलिए पिछले पापों के कारण और प्रशिक्षण की कमी के कारण आदमी गलत मार्ग पर चल पड़ा। जाना था दिल्ली, मुंबई और मार्ग ऐसा पकड़ लिया कि लाहौर पहुंच जाए। जहां नहीं जाना है, वहां पहुंच जाए। यह बहुत बड़ी हानि होगी, बहुत बड़ी विडंबना होगी। 

वैसे तो पूरा जीवन ही सीखने का जीवन है। कई ऐसे जीवन के लोग हैं, तो शिक्षा लेते हैं, तभी पढ़ते हैं। जब डिग्री मिली, तो पढऩा भी बंद हो जाता है। जीवन में प्रेरणा और चमत्कार की प्राप्ति बंद हो जाती है। आदमी यदि पढ़ रहा है, तो भी और यदि नहीं पढ़ रहा है, तो भी उसे निरंतर अध्ययन से जुड़ा रहना चाहिए और वह अध्ययन जो जीवन की सभी समस्याओं का समाधान देता है। अनेक समस्याएं हैं, जिनका समाधान शास्त्र ही देंगे। शोक का निवारण तो ज्ञान से ही होता है। 
कहा गया है कि आत्मा को जानने वाला शोक सागर को पार कर जाता है। प्रशिक्षण बंद नहीं होना चाहिए। जैसा हमारा सांस लेना बंद नहीं होता, जैसे हमारा भोजन करना बंद नहीं होता, पानी पीना बंद नहीं होता, ये सब स्वाभाविक व्यवहार कभी बंद नहीं होते। ठीक उसी तरह से हम स्वाध्याय करें, उसके बिना हम नहीं रहें, स्वाध्याय ही आदमी को परिपक्वता देता है। निरंतर अध्ययन, निरंतर बड़ों के संसर्ग में रहकर ज्ञान को बढ़ाना, अपनी प्रकाशित अवस्था को बनाना। ये अभी बड़े लोग भी नहीं कर पा रहे हैं। बहुत कम लोग हैं, जिनको पढऩे का शौक है, अखबार पढ़ लिया, पत्रिका पढ़ लिया, ऐसे ही सस्ता साहित्य, गंदा साहित्य, हल्का साहित्य, जहां कहीं भी जीवन को कोई प्रेरणा नहीं मिलती, सही मार्ग नहीं प्राप्त होता। इसकी बड़ी कठिनाई है, इसीलिए समाज को सही जीवन प्राप्त नहीं होता है। प्रतिदिन बैठकर घंटा दो घंटा अपने लोगों के साथ या अकेले में उन साहित्य के ग्रंथों को उन विषयों को पढऩा चाहिए, जिन्हें अमरत्व प्राप्त है, जिन्हें मानवता के लिए वरदान प्राप्त है। एटम बम भी बना, बड़ा अनुसंधान हुआ, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने जीवन लगाकर इस अध्ययन को प्रकट किया, अनेक तरह के हथियार बने हैं, किन्तु उनके द्वारा दिया जीवन कभी दैव जीवन नहीं बन सकता। 
मैं बहुधा लोगों को सुनाता हूं। राममनोहर लोहिया जी, समाजवादी चिंतक थे, वे आइंस्टीन से मिलने गए, तो पूछा, जो अनुसंधान आपने किया, उससे संतुष्ट हैं क्या, तो आइंस्टीन की आंखें भर गईं, उन्होंने कहा, मुझे मालूम होता कि मेरे अनुसंधान से जो प्रयोग होगा, उससे लाखों लोगों की बलि हो जाएगी, प्राण पखेरू उड़ जाएंगे, तो मैं वैज्ञानिक बनना पसंद नहीं करता। ऐसे ही कपड़े का एक टुकड़ा पहनकर हाथ में छड़ी लेकर जीवनयापन कर लेता। मैं एक मनुष्य नहीं बना सकता, एक वृक्ष को विकसित नहीं कर सकता, किन्तु वहां कितने लोग राख हो गए। 
अभिप्राय यह कि आदमी को यह चिंतन करना चाहिए कि ये जो जीवन हम जी रहे हैं, वह कहां जा रहा है या तो पढ़ें शास्त्रों को, सुने अच्छे लोगों को, सही मार्ग वालों को सुनें। ऐसा नहीं कि जब गाड़ी स्टार्ट हुई, तो सही चलावें और बाद में छोड़ दें। हवाई जहाज में टकराहट वाली कोई बात नहीं है, किन्तु वहां भी सदा सावधानी की आवश्यकता है। ऐसे ही हम घर में भी चलते हैं, हमारी भूमि है, समर्पित भूमि है, वहां भी कदम-कदम पर सावधानी आवश्यक है। मां के गर्भ में आने के बाद जन्म प्राप्त करने के बाद शरीर और जीवन की प्राप्ति के बाद जो परम उद्देश्य है प्रशिक्षण, प्रयोग, सुनना, बोलना, जैसे हमें तत्परता की आवश्यकता है, वैसे ही जीवन भर इनकी आवश्यकता है। कभी भी आदमी राक्षसी व्यवहार को प्राप्त न करे। 
कई लोगों को देखकर लगता है कि देवपुरुष हैं, किन्तु उनके ज्ञान की दुर्बलता ने, अभ्यास की दुर्बलता ने, गलत आदमी बना दिया। वेदों में लिखा है कि स्वाध्याय और प्रवचन से कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। 
स्वाध्याय कहते हैं कल्याणकारी शास्त्रों को पढऩे को। मोक्ष शास्त्र पढ़ें, अध्यात्म पढ़ें और पालन करें, मनन करें, उसके अर्थ को अपने मन से जोड़ें। निरंतरता की आवश्यकता है, भोजन निरंतर, कपड़ा निरंतर, तो श्रद्धा-प्रवचन निरंतर क्यों नहीं? जैसे हम निरंतर धन कमाना चाहते हैं, भोग कमाना चाहते हैं, ठीक उसी तरह से हमें निरंतर स्वाध्याय और प्रवचन की आवश्यकता है। 
यह क्रम चलता रहना चाहिए। लोग जवानी में भी बिगड़ रहे हैं और बुढापे में भी बिगड़ रहे हैं। छोटा बच्चा जब होता है, तो कल्याणकारी भावों का बीजारोपण करें, किन्तु सयाना हो जाने के बाद इन भावों की मात्रा या अंग्रेजी में कहते हैं डोज बढ़ जाता है। अभी किसी को कहा जाए कि तुम अपने जीवन को जहां से शुरू किए थे, वहां से हट गए। मंदिर जाते थे, अब नहीं जाते। लाल कपड़ा पहनते थे, अब नहीं पहनते, हट गए। प्रेरणा, विचार, भाव में मंदी आ गई। विचार प्रवाह को आगे बढ़ाते हुए यह ध्यान में हमें रखना होगा कि जो प्रारंभिक काल में शिक्षा दी गई थी, जीवन की परम सार्थकता के लिए, वह बंद नहीं होनी है। बड़े होने पर भी उस शिक्षा को नवीन करते रहना है, अपने साथ जोड़े रखना है। भोजन बंद नहीं, स्नान बंद नहीं, तो शिक्षा कैसे बंद हो जाए? श्रेष्ठ कर्म कभी बंद नहीं होने चाहिए। बंद हो जाएंगे, तो आदमी राक्षस ही हो जाएगा। आज इसीलिए समाज बिगड़ रहा है, क्योंकि लोग पढ़ते नहीं हैं, पढ़ते भी हैं, तो वेदों को नहीं पढ़ते। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया

भाग - २
जिस परिवेश में रावण का जन्म हुआ, उस परिवेश में बड़ी भूल हुई, वहां उन्होंने ज्ञान को पहले ही चरण में रहने दिया। अपरोक्ष ज्ञान के लिए बड़े ज्ञान की जरूरत होती है। संयम, नियम के साथ ज्ञान को परिपूर्ण स्वरूप देना पड़ता है। रावण ने भाइयों के साथ मिलकर तप भी किया। पुराणों और इतिहासों में वर्णित है, तीनों भाइयों ने घनघोर तप किया, किन्तु तप परम तत्व की प्राप्ति के लिए नहीं था, केवल भोग की प्राप्ति के लिए था।  
कोई आदमी धन कमाए और बंदूक खरीद ले। धन कमाया, तो दूसरी पत्नी ले आया, धन कमाया, तो केवल शरीर को शक्ति से जोड़ा, केवल शरीर सशक्त बनाने में लग गया, तो वह कभी बड़ा आदमी नहीं होगा। रावण बंधुओं ने जो तप किया, उसका उद्देश्य था कि खूब धन मिले, खूब भोग मिले। 
यदि सैनिक केवल यही प्रयास करे कि हमें खूब बल मिले, हमें भोग के साधन मिलें, तो वह राष्ट्र का संरक्षक कर्मचारी कभी नहीं हो पाएगा। उसका उद्देश्य है कि वह समझे - मातृभूमि की रक्षा के लिए मेरा सबकुछ है। मेरी मां को कोई ऊंगली नहीं उठाए, कोई मातृभूमि को लांछित नहीं करे, ऐसा सोचेगा, तब वह बड़ा सैनिक बनेगा। प्राणों को हथेली पर रखकर राष्ट्र की सेवा करे। 
जीवन में विकास के लिए तप अच्छा साधन है। धर्म के चार स्वरूपों का वर्णन है - सत्य, तप, यज्ञ, दान। ये चार स्तंभ हैं धर्म के। तप करना अच्छी बात है, यज्ञ करना बहुत अच्छी बात है, दान देना और सत्य बोलना भी जरूरी है। रावण आदि भी जो तप करते हैं, उनका लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं है, ब्रह्म या सत्य या संतत्व की प्राप्ति नहीं है, उनका उद्देश्य केवल धन, भोग और बल है। रावण का तो तप स्वर्ण की लंका के लिए है और वह चाहता है - संसार में जितनी सुंदर स्त्रियां हैं, सब हमारी पत्नियां हो जाएं, संसार के सभी उत्कृष्ट साधन मिल जाएं, पुष्पक विमान मिल जाए। सजावट की सारी वस्तुएं मिल जाएं, संसार में जो कहीं भी उत्कर्ष से जुड़ा है, तो वह हमारे अधीन हो जाए। 
रावण ने तप किया, तो वही मिला रावण को, जो उसका उद्देश्य था। जिस भावना से आपने जो काम किया, आपको वही फल मिलता है। किसी ने विद्या अध्ययन के लिए तप किया, तो विद्या मिलेगी, किसी ने तप किया कि खूब मान मिले, तो मान मिलेगा, किसे ने तप किया कि खूब धन मिले, तो धन मिलेगा। जीवन की सार्थकता के लिए किया है, तो सार्थकता मिलेगी। कामना के अनुसार ही फल मिलता है। रावण ने मांगा, हमें लंका चाहिए, लंका मिल गई, तमाम पत्नियां मिल गईं, यह तप का तुच्छ स्वरूप है। ब्राह्मण वंश में जन्म लेकर आदमी केवल भोग और अर्थ के लिए जीवन जीने लगा। 
कुंभकर्ण को छह महीने भोग के लिए और छह महीने सोने के लिए मिल गए। सोना भी भोग का स्वरूप है, सोया हुआ है, कोई उत्पादन नहीं, किसी तरह का विकास नहीं। इसी तरह से ब्राह्मण वंश में जन्म होने पर भी संयम-नियम की प्राप्ति नहीं। पिछले जन्म के पुण्य के कारण ब्राह्मण जन्म मिला, किन्तु उसे आगे बढ़ाने के लिए पुण्य नहीं था। जैसे घी, सूजी नहीं हो, तो हलवा नहीं बनेगा। जल नहीं हो, तो भी नहीं बनेगा। चूल्हा नहीं, तो नहीं बनेगा। धर्म की अधिकता के आधार पर ब्राह्मण स्वरूप की प्राप्ति होती है, और अधिक धर्म हो, तो ज्ञान को परिपक्व करना पड़ता है। ज्ञान अधिक हो, तो परम आनंद की प्राप्ति होती है। संपूर्ण अज्ञान दूर होकर आदमी अपने जीवन को प्रकाशित बनाकर जीवन जीए, मोक्ष की प्राप्ति करे, तो यह मनुष्य जीवन है। क्रमश:

रावण कैसे भटक गया?

(रावण होने की पृष्ठभूमि और विनाश से बचने का प्रशिक्षण)

मनुष्य जीवन को कुछ लोग फल के रूप में समझते हैं, साधन के रूप में समझते हैं, यह भूल होती है। इसके माध्यम से हमें बड़े फल की प्राप्ति करनी है। जीवन का हर दृष्टि से सुंदर व सशक्त होना और संपूर्ण मानवता के लिए कारगर होना। केवल अपने जीवन को ही हम सब मान लें कि इसको सजाना, संवारना है, अधिक से अधिक सशक्त बनाना है, भोग के साथ अधिक से अधिक जोडऩा है, किन्तु जीवन का यह अर्थ या उद्देश्य नहीं है। मनुष्य जीवन का जो उद्देश्य है, उसका वर्णन शास्त्रों ने किया, जिसका अवलंबन करके अपनी परंपरा में असंख्य लोग ब्रह्म जीवन के हो गए। यह तभी संभव है, जब हम किसी तरह की मनमानी नहीं करें। 
लिखा है गीता जी में कि जो लोग शास्त्र की रीति से जीवन जीते हैं, उन्हीं को जीवन की संपूर्ण अवस्था व संपूर्ण लाभ प्राप्त होते हैं। जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, वे भले ही मनुष्य के जैसे दिखाए पड़ते हैं, लेकिन वे राक्षस हो जाते हैं। अपने लिए भी कुरूप हो जाते हैं और दूसरों के लिए भी कुरूप। उनका जीवन कहीं से प्रेरणादायक नहीं होता। न उन्हें सुख मिलता है, न सिद्धी मिलती है, उनका सबकुछ विनष्ट हो जाता है। क्या करना है और क्या नहीं करना है, यह सब शास्त्र के अनुरूप करना है। 
छोटी आयु में कहां ज्ञान था कि सत्य अलग होता है, असत्य अलग होता है। हमें कहां ज्ञान था कि माता अलग होती है, हमें क्या ज्ञान था कि क्या खाना है या क्या नहीं खाना है, भोजन कौन-सा पवित्र है। इसके लिए शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास करके हम इसका अवलंबन करें और इसी के आधार पर हमारा व्यवहार तैयार हो, तो हमारा जीवन सही व्यावहारिक जीवन होगा। जो लोग केवल मनमानी से जीवन जीते हैं, उनका जीवन गड्ढे में चला जाता है, अत्यंत अभिशप्त जीवन हो जाता है, इसी को राक्षसी जीवन कहते हैं। 
राक्षस परलोक में विश्वास नहीं करता है कि मरने के बाद कुछ मिलने वाला है और न लोक में विश्वास करता है। ईश्वर में, दान में, न माता, न पिता, न कोई सम्बंध, सभी तरह से वह मनमानी करता है, केवल धन के लिए, केवल भोग के लिए जीवन जीता है। 
जो माता-पिता का ऋण है हमारे ऊपर, उसे जो महत्व नहीं दे, उसे जो लौटाने की कोशिश नहीं करे, वो राक्षस हो जाता है। इसीलिए लंका में रावण और उसके लोग आकृति में मनुष्य दिखते थे, किन्तु राक्षस थे। 
जो व्यक्ति शास्त्र की रीति को छोडक़र, ध्यान को छोडक़र, प्रेरणा को छोडक़र केवल काम के अनुसार केवल स्वेच्छाचारिता से अपना जीवन बिताता है, अपने विकास को संपादित करता है, उसे कभी सिद्धी नहीं मिलती। सही रीति से अगर कर्मों का संपादन हो, तो आदमी का मन निर्मल हो जाता है। मन में अत्यंत पवित्रता रहती है। मन की निर्मलता आदमी को हर तरह की सुविधा प्रदान करती है। खेत साफ होगा, जब उसमें बीज डाला जाएगा, तो वह अंकुरित होगा। पेड़ बनेगा, उस पर फूल होंंगे, फल होंगे। कोई मनमानी करेगा, तो उसे सच्चा सुख नहीं मिलेगा। गीता में लिखा है -
न स सिद्धिमवान्पोति न सुखं न परां गतिम्।  
जब हम राक्षसों के जीवन पर ध्यान देते हैं, जिनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ, ऋषि कुल में हुआ। पुलस्त्य ऋषि के वंश में रावण का जन्म हुआ। पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा का पुत्र रावण। ये ऐसे ऋषि थे, जिन्होंने वेदों को देखा था, शास्त्रार्थ किया था, जो मंत्र हैं, उसमें प्रयोग में आने वाले जो पदार्थ हैं, उनका जो स्मरण कराते हैं - मंत्र द्रष्टा होते हैं ऋषि। मंत्र के अभिप्राय को उन्होंने जाना था, साक्षात्कार किया था। ज्ञान की सर्वश्रेष्ठ अवस्था से जीवन जुड़ा था। रावण के पिता भी अच्छे ऋषि थे, उनमें भी कहीं से कमी नहीं थी।  
मन्त्रा: प्रयोगसमवेतार्थस्मारका: 
कुछ पुण्य था पिछले जन्म का तो अच्छे कुल में जन्म हो गया, किन्तु जन्म के बाद भी ज्ञान का अर्जन किया। पहले बताया जा चुका है, ज्ञान का जो प्राथमिक चरण है, जो पहली सीढ़ी है, वह परोक्ष ज्ञान की सीढ़ी है। परोक्ष ज्ञान मिलने के बाद भी व्यक्ति जीवन को धन्य नहीं बना पाता है। जानता है कि असत्य बोलना गलत है, किन्तु असत्य ही बोलता है। मालूम है, जो आदमी शुद्ध आहार नहीं लेगा, कभी भी उसमें ज्ञान-भक्ति-श्रद्धा भाव उत्पन्न नहीं होंगे। रावण को परोक्ष ज्ञान तो था, ब्राह्मण था, ज्ञानी था, किन्तु उसे अपरोक्ष ज्ञान नहीं था, वह ज्ञान को चरित्र में नहीं उतार सका। क्रमश:

Monday, 29 October 2018

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

समापन भाग

कभी कभी बोलता था कि मैं पढऩे आया हूं, मुझे विद्वान बनना है। इसलिए बात टलती गई। गुरुजी और लोग इस बात की याद दिलाते रहे, धीरे-धीरे करते-कराते, मुझे साधु बना दिया। मेरे मन में नहीं थी, किन्तु बना दिया। मैंने कभी प्रार्थना नहीं की मुझे दीक्षा लेनी है, मुझे मठाधीश बनना है, मुझे महंत बनना है। मुझे कमरों का नहीं, धन का नहीं, ज्ञान का महंत बनना है। 
याद दिला रहा हूं कि जब गुरुजी की चरण सेवा करता था, जो शिष्यों में परंपरा थी, परिवार में भी बहुएं सासू की, बच्चे माता-पिता की, जो पूरी परंपरा थी कि कैसे गुरु सेवा की जाती है। राम जी भी जब वशिष्ठ जी के साथ गए, तो लक्ष्मण जी के साथ उनकी सेवा करते थे। गुरु की भूमिका बहुत बड़ी है। उसके बदले हम कुछ नहीं दे सकते। कम से कम उसकी हरारत दूर करने के लिए हम प्रयास करें। 
मैं जब सेवा करता, तब एक ही बात गुरुजी बोलते थे कि साधु को कभी घर नहीं जाना चाहिए। मैं तो पहले ही यह संकल्प करके आया था, किन्तु मेरे गुरुजी इस बात को बार-बार दोहराते थे। कभी विवाह नहीं करना चाहिए, जीवन काफी दुखदायी और संकीर्ण हो जाता है, दो-चार लोगों में ही व्यक्ति सिमट करके रह जाता है। जीवन के उद्देश्य सिमट जाते हैं। 
गुरुजी बार-बार बोलते रहते थे, तब समझ में नहीं आता था, किन्तु बाद में मुझे समझ में आया, वे मेरे संस्कारों को दृढ़ बना रहे थे। बार-बार बोलने से ज्ञान परिपक्व होता है। इसी का परिणाम हुआ कि जहां जन्म भूमि का क्षेत्र है, वहां से निकलता हूं, तो कभी देखा भी नहीं कि कौन गांव है। विवाह के लिए कभी मन में नहीं आया।
ऐसे ही श्रेष्ठ मूल्यों को जो जीवन को कल्पवृक्ष जैसा बनाने वाले हैं, उन्हें बार-बार अभ्यास में डालकर चलना होगा। बताना होगा बार-बार कि आपको ऐसा होना है। तभी जीवन परिपक्व होगा। यही सनातन धर्म की परंपरा है और यही सबकी परंपरा होनी चाहिए। केवल कक्षा में पढ़ाई हो गई, पढ़ाने वाले का जीवन कहीं है, पाठ्यक्रम कहीं है, कोई परवाह नहीं है अध्यापकों को कि हमारे विद्यार्थी पर क्या प्रभाव होगा, कैसा इनका जीवन होगा, कैसा जीवन इनका हम बनाना चाहते हैं और हम कैसे हैं, कहां से हमें इनको प्रेरित करना है, हमें कितना इनको आगे बढ़ाना है। और न घर वालों को यह ध्यान में है, न अध्यापकों को ध्यान में है। न शिक्षण संस्थानों को, न नेताओं को यह ध्यान में है। हर आदमी को पड़ी है कि पैसा कैसे, भोग कैसे, इसलिए सबकुछ टूट रहा है। अब तो बेटा और बाप का रिश्ता टूट रहा है। जातियां टूट रही हैं। जीवन मूल्यों के आधार पर जो जीवन पहले था, उन मूल्यों से जीवन को जोडऩा चाहिए। जागरूक होकर समझदारी से बच्चों को बार-बार बतलाया जाए। मैं कोशिश करता हूं मेरे संपर्क में जो बच्चे हैं, उन्हें समझाकर-बुझाकर, बार-बार याद दिलाकर, उदाहरण देकर, कि आपको क्या बनना है। मनुष्य जीवन की अपूर्वता को अनुभव करो, भारत भूमि की जो विशिष्टता है, उसे अनुभव करो। 
सबसे अच्छा अन्न उत्पन्न करने वाली भूमि में कोई बाजरा लगाएगा क्या? जिस लायक है भूमि, उसे लगाएगा, पोषित करेगा। बबूल के बगीचे में कोई श्रेष्ठ आम का बीजारोपण करेगा क्या? ठीक इसी तरह से सनातन धर्म में जीवन की श्रेष्ठता को बतलाइए। और यह बतलाइए कि कौन-सी शिक्षा पानी है। जैसी शिक्षा गुरुकुल में दी जाती थी, घरों में दी जाती थी, उन लोगों को पैदा करती थी, जो संसार को सूर्य के समान प्रकाशित करते थे, स्वर्ग बना देते थे, दिव्य धाम बना देते थे। अपना भी जीवन और पूरे संसार का जीवन उनसे प्रकाशित होता था। वैसे ही हमें छोटी आयु से बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। धीरे-धीरे होगा, एक दिन में ऐसा नहीं होगा। फिर देखिए कि श्रेष्ठ जीवन कैसे पुष्पित-पल्लवित होता है। 
अभी बार-बार सुनाई पड़ता है, लोगों में राष्ट्रीयता नहीं है, मैं कहता हूं कि पारिवारिकता ही नहीं है। राष्ट्र तो बहुत बड़ा है, लोगों में जातीयता नहीं है। हमें कोई नहीं मिला, जो जातीयता के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार हो। केवल अपने बच्चों के लिए लोग काम करते हैं, जीते हैं। 
देखिए राम जी को अपने भी फलाहार कर रहे हैं और वानरों को भी कहा कि करो फलाहार। और कह रहे हैं, आप नहीं होते, तो मैं कैसे लड़ता। गुरु वशिष्ठ को भी आदर दे रहे हैं और वानरों को भी दे रहे हैं। 
आज कोई किसी को श्रेय नहीं दे रहा है, हमने ही सबकुछ किया। मेरी विद्वता, मेरा सुयश हमने सब कर दिया। समाज कैसे आदर्श बनेगा? इसलिए इन सब बातों की शिक्षा, अनादि मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता है। इसी शिक्षा से ही रामराज्य का निर्माण हुआ था और होगा।
जय सियाराम

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - १२
एक और उदाहरण मुझे स्मरण हो रहा है, जो मैं बताना चाहूंगा। एक बार दुनिया के सभी बड़े राष्ट्राध्यक्ष कहीं एकत्रित थे और अपने देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उपस्थित थे, तो सब लोग बैठ रहे थे। अमरीका के राष्ट्रपति और अन्य, किन्तु रूस के राष्ट्रपति नहीं बैठे, वो खड़े थे, सभी लोगों ने पूछा, आप क्यों खड़े हैं, बैठिए, कुर्सी खाली है। छोटे राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष भी बैठ गए, रूस का राष्ट्रपति नहीं बैठा, उन्होंने कहा कि अटल जी नहीं आए। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक देश के अटल जी की बराबरी का कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं है। इतना लोकतांत्रिक अनुभव, साथ ही बेदाग जीवन और अद्भुत वक्ता। जब अटल जी को देखता हूं, सुनता हूं, बातचीत करता हूं, तो ऐसा लगता है कि ये लोकतंत्र के सबसे बड़े सांचे में ढाला हुआ जीवन है। और उनके लिए खड़ा हूं। उनका सम्मान निश्चित रूप से लोकतांत्रिक जीवन को प्रकाशित करेगा प्रेरणा मिलेगी।’ 
आज समाज में मूल्यांकन की जरूरत है कि किसके लिए बैठना और किसके लिए खड़ा होना। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। अब तो बड़े-बड़े धर्माचार्य आते हैं, तो एक दूसरे को हाथ उठाने में भी संकोच नहीं होता है। अब नमस्ते कहते हैं, संप्रदाय की प्रक्रिया के अनुसार प्रणाम करने में भी उन्हें संकोच होता है। एक बार तीनों शंकराचार्यों के साथ मैं था, लोग मिले, तो एक दूसरे को प्रणाम नहीं किया। मैं साक्षी था। श्रंृगेरी मठ, ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी और मैं, हम तीनों मिल रहे थे, उन लोगों ने हाथ जोडक़र नम्रता के साथ प्रणाम नहीं किया। वे क्या दूसरों को शिक्षा देंगे। मैं बड़ा, तो मैं बड़ा। जबकि उनके सिद्धांत में सभी ब्रह्म हैं, तो कम से कम ब्रह्म तो ब्रह्म को प्रणाम करे। 
लिखा है कि ज्ञानी होने के बाद आवश्यकता नहीं है, तो भी वह लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रणाम करता है, काम करता है। भगवान ने गीता में कहा, मैं इसलिए कर्म करता हूं कि सारे लोग कर्म करें। कर्म नहीं करूंगा, तो सारे लोग कर्म छोड़ देंगे, तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा, पालन कैसे होगा, उत्पादन कैसे होगा, सारी व्यवस्था ही रुक जाएगी। इसलिए मैं कर्म करता हूं। ज्ञानी भी कर्म करता है। शंकराचार्य होकर भी हाथ नहीं जोड़ें, यह कौन-सी बात हो गई। वो भी शंकराचार्य को नहीं जोड़ें। मैंने दोनों लोगों को हाथ जोडक़र सिर झुकाकर अत्यंत आदर के साथ प्रणाम किया और साथ में बैठ गया। यह पद्धति सभी बच्चों को शुरू से ही देने की आवश्यकता है। 
जब ज्ञान धारा की शुरुआत हो रही है, जब नए जीवन का उद्गम हो रहा है, जब जीवन का प्रारंभिक उत्स है कि कैसे विकसित होंगे। सभी को इन बातों को सीखना चाहिए कि कैसे राम जी संपूर्ण संसार को अपने चरित्र के अद्भुत स्वरूप से, जो पूर्ण वैदिक था, पूर्ण ऐतिहासिक था, पूर्ण पौराणिक था, कैसे शिक्षित किया। हमारे यहां शिक्षा का क्रम कल्पित नहीं है। वह अनादि है। उसमें हमें मांस अच्छा लगेगा, तो मांस नहीं खाएंगे। शादी हमें करनी है, तो ऐसे ही नहीं कर लेंगे। जो हमारे संपर्क में जो बच्चे हैं, जो बच्चियां हैं, उन्हें कहता हूं कि मनमानी शादी नहीं कर लेना। किसी लडक़े को हैप्पी वेलनटाइन डे नहीं कह देना। जो भी सुंदर लग जाए, उसे लेकर आने का संकल्प नहीं करना। शादी अवश्य चाहिए। स्त्री बहुत बड़ी सहयोगिनी है पुरुष की। पुरुष को मिली है ऊर्जा, जिसके लिए स्त्री की आवश्यकता, और स्त्री को पुरुष की। वे पूरक हैं एक दूसरे के। 
इसलिए वेदों में लिखा है कि भगवान का भी अकेले में मन नहीं लगता। तभी उन्होंने स्त्री पुरुष का रूप धारण करके अपने मन को रंजित किया। तो शादी हो, किन्तु कैसे हो, छोटी आयु से शिक्षा दीजिए कि आपको भी दुल्हन मिलेगी, किन्तु दुल्हन ऐसी, जो अपने बड़ों द्वारा आपको प्राप्त होगी, गुरु के द्वारा होगी। परिवार के माता-पिता दादा-दादी सब जो लाएंगे, वो आपको मिलेगी। ऐसा नहीं कि जो भी मिलेगी, उसे ले आएंगे। 
जैसे राम जी को मिली पत्नी, किन्तु विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन में मिली। बक्सर पहुंचे, जनकपुर गए और वहां जो विधि थी सीता जी की प्राप्ति की। उस विधि का परिपालन किया। जनक जी के संकल्प के अनुसार ही जानकी जी मिलीं। जनक ने ब्रह्मर्षित्व को प्राप्त कर लिया था। राजा होने के बाद भी जिन्होंने खूब जप किया, ऐसे परम तेजस्वी और सभी दृष्टि से परिपूर्ण जीवन के ब्रह्मर्षि के माध्यम से पत्नी प्राप्त हुई। 
इन बातों की शिक्षा, जिन मूल्यों को जीवन में विकसित करना है, जिन ज्ञानों को जिन स्वभावों, व्यवहारों, संकल्पों को, जिन निश्चयों को जिन अहंकारों को हमें जीवन में विकसित करना है। एवरेस्ट पर पहुंचाना है, अपने लिए और संपूर्ण मानवता के लिए वरदान बनाना है, उसकी शिक्षा शुरू से दी जाए। हमारे यहां तमाम इतिहास वर्णित हैं, तमाम तरह की घटनाएं हैं, खूब-खूब उदाहरण हैं, उनके अनुसार चलें, सिखाएं। 
मेरे गुरुजी, जब मैं घर से भाग करके आया, तो मैं साधु बनने के लिए नहीं आया था। मैं इसलिए नहीं घर छोड़ा था। घर छोड़ा था, तो तीन संकल्प लिए थे। एक - इस गांव में जहां जन्म हुआ, वहां कभी नहीं आऊंगा। दूसरा संकल्प लिया कि विवाह नहीं करूंगा। तीसरा संकल्प लिया कि खूब विद्वान बनूंगा। तो ठीक है। उस संकल्प के साथ गुरुजी के साथ लग गया। लोग आते थे सलाह देते थे, आप साधु हो जाइए, तो आपको पढऩे में सुविधा हो जाएगी। गुरुजी भी बोलते थे और जो लोग आते थे, वो भी बोलते थे। मैं साधु जीवन से उतना प्रभावित नहीं था, किन्तु कुछ बोलता नहीं था। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ११
शिक्षा का ये जो घरेलू महाविद्यालय है, हमें पारंपरिक विद्यालय से पहले वाले जीवन का जो शिक्षा देने वाला विद्यालय है, उस विद्यालय में इन सभी तथ्यों को जीवन में वृक्ष का रूप देना है। बड़ी-बड़ी डालियां, टहनियां धड़ और जड़ देना है, उसमें आवश्यक है कि हम इन सभी बातों को सीखें। बातचीत की शुरुआत कहां से करनी है सीखें। हम सीखें कोई आया है, तो उसे मान कैसे देना है, हम सीखें कि कोई आया है, तो हम उसकी कैसी प्रशंसा करें, हम उसे क्या देकर भेजें, हम कैसे उसके लिए अपने को बिछावें, पलक पांवड़े बिछावें। यह पुरानी परंपरा है, कोई आया है, तो उसे हम दरवाजे तक छोडक़र आएं। और कहें कि आप आए आपका आभार।
ये जो शिक्षा घर में दी जाएगी, तो बच्चा ऋषि के रूप में सर्वश्रेष्ठ मानव के रूप में वरदान के रूप में समाज और मानवता के भूषण के रूप में प्रकाशित रूप में प्रकट होगा। ये सारी शिक्षाएं अभी नष्ट-भ्रष्ट हो रही हैं। केवल भारत वर्ष ही नहीं, केवल एक जाति के लोगों के लिए नहीं, संपूर्ण मानवता के लोगों, शरीरधारियों के लिए यह उपयोगी बात है। 
आप अपने बच्चे को बड़ा बनाना चाहते हैं, इसमें संदेह नहीं, किन्तु कैसे बड़ा बनाएंगे। आप अपने पिताजी का सम्मान नहीं करेंगे, तो आपका बच्चा कैसे करेगा? आप यदि संयम-नियम से जीवन नहीं बिताएंगे, तो सबकुछ अस्त-व्यस्त रहेगा, तो आपका बेटा कैसे संयमी होगा? कैसे चरित्रवान होगा, कैसे वह चोर नहीं होगा? कैसे वह पक्षपाती नहीं होगा? कैसे वो उद्दंड नहीं होगा? तो यह सारी शिक्षाएं छोटी आयु में जो लकीर पड़ जाती है मन में, वह बुढ़ापे तक चलती है। 
एक आरंभिक काल में अध्ययन किया था - पंचतंत्र हितोपदेश। बहुत उपयोगी है, समय मिले, तो सबको पढऩा चाहिए। उसमें लिखा था कि जो बच्चों का दिमाग होता है, वह कच्चे घड़े के समान होता है। कच्चे घड़े पर जो लकीर खिंच जाती है, वो जीवन भर बनी रहती है। घड़ा पक गया और अब लकीर बनी रहेगी। पक्के घड़े पर यदि लकीर खींची जाए, लकड़ी से, उंगली से, तो टिकती नहीं है, किन्तु कच्चे घड़े पर खींची जाए, तो सदा बनी रहती है। 
जैसे कच्चे घड़े पर कोई चिन्ह बना दिया जाए, तो पकने के बाद इधर-उधर नहीं होती, अमिट हो जाता है, किन्तु यदि आपने चिन्ह पक्के हुए घड़े पर लगा दिया, तब तो मिट जाएगा, आजीवन नहीं रहेगा। फूटने पर्यंत नहीं रहेगा। इसी तरह से हम अपने बच्चों को जो अबोध हैं, जिनके पास भाषा नहीं है, जिनके पास सिद्धांत ज्ञान नहीं है, जिनके पास व्यवहार का बहुत ज्ञान नहीं है, सबकुछ अभी अधूरा-अधूरा है। अपने बच्चे को कोई कह ही नहीं रहा है कि मैं खड़ा हूं, तू क्यों बैठ गया। 
एक बार दिल्ली जा रहा था, तो लखनऊ में हवाई अड्डे पर वीआईपी कक्ष में बैठा था। वहां अधिकारियों ने कहा हमारे प्रबंधकों को कि महामहीम राज्यपाल मोतीलाल वोरा आ रहे हैं। राज्य में राष्ट्रपति शासन है। महाराज को दूसरी जगह बैठा देते हैं। ये जगह खाली कर दें, तो हमारे प्रबंधकों ने कहा कि खाली कर देते हैं। हम दूसरे कमरे में चले गए, बैठे। किसी पुलिस के बड़े अधिकारी ने कहा मोतीलाल वोरा जी को कि रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य जी भी अभी हवाई अड्डे पर ही हैं। तो वोरा जी ने कहा, हमें मिलवाओ, उन्हें प्रणाम करना है। 
तो आ गए, प्रणाम किया। समाचार मैंने पूछा, कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। ये पूछकर जो व्यावहारिक क्रम है, बहुत प्रेम से मिला। काफी दिनों बाद भेंट हुई थी। वोरा जी मेरे पुराने शुभचिंतक और प्रेमी, अच्छे भाव रखने वाले, किन्तु मिलने की खुशी में मैं यह कहना भूल गया कि वोरा जी बैठेंगे क्या। बातचीत के क्रम की शुरुआत प्रवाह में भूल गया, तो मोतीलाल वोरा जी जब २०-२५ मिनट बीत गया, वो खड़े थे। तब मैंने कहा, ‘वोरा जी आप बैठेंगे क्या?’ 
उन्होंने उत्तर दिया, ‘इतनी बड़ी आयु का हूं, आप बोल ही नहीं रहे थे, तो मैं कैसे बैठता।’ 
सनातन धर्म में शिक्षा दी जाती है, जब तक बड़े की आज्ञा नहीं है, छोटे को बैठना नहीं है। मैंने कहा, धन्य सनातन धर्म और धन्य वो संस्कार देने वाले, जातियां, परिवार, संस्थान। इतना बड़ा आदमी राज्यपाल है, राष्ट्रपति शासन है, देश का सबसे बड़ा प्रांत है उत्तर प्रदेश। पूरा अधिकार राज्यपाल के पास, मुख्यमंत्री रहा हुआ नेता। एक भिक्षु की आज्ञा के बिना बैठा ही नहीं। कहा कि आपकी आज्ञा नहीं हुई। 
तो मैंने कहा, ‘मैं समझता था कि आप जल्दी जाएंगे, क्योंकि विमान को जाना है। अंधेरा हो जाएगा।’ 
तो वोरा जी ने कहा, ‘छोड़ देता विमान, नहीं जाता, वहां कौन मेरे बाल बच्चे रो रहे हैं। आप मिल गए हो, तो मेरी यात्रा की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी? आपको हम लोग बहुत-बहुत महत्व देते हैं। प्रेरणा लेते हैं।’ 
तो यह शिक्षा का प्रभाव है कि इतने बड़े प्रांत का राज्यपाल, राष्ट्रपति शासन से जुड़ा हुआ राज्यपाल मेरी आज्ञा के बिना बैठा नहीं। अब तो कोई भी बैठ जाता है, कितना भी वरिष्ठ आदमी हो। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - १०
छोटी आयु में मैं एक परिवार में गया था, बिहार में। उस परिवार में कोई बच्चा बड़ों के सामने बैठता नहीं था। खटिया नहीं बिछती थी दिन में, चौकियां बिछती थीं, दिन में बच्चे बड़ों के सामने खड़े ही रहते थे और रात में भी। बैठने के लिए जहां एकांत है, वहां जाते थे, जहां बड़ों की दृष्टि नहीं जा रही हो। और ये ऐसे बच्चे थे, जो कॉलेज, विश्वविद्यालय में टॉपर थे, भगवान ने उन्हें सबकुछ दे रखा था। जब भगवान की आरती होती थी, तो महिलाएं पर्दा के पीछे से, और सभी लोग आरती में हाथ जोडक़र खड़े रहते थे। अभी तो भगवान की आरती में भी लोग हाथ जोडक़र खड़े नहीं रहते हैं। ऐसे खड़े रहते हैं, मानो सडक़ पर खड़े हों। पता नहीं चलता कि उन्हें ईश्वर की कोई चेतना है भी या नहीं। तो मैं उस परिवार के बच्चों को देखकर हैरान था। मेरे पास तब साधन नहीं था, ज्ञान का प्रभाव भी ज्यादा नहीं था, किन्तु वो बच्चे मेरे सामने भी नहीं बैठते थे। जिस परिवार में हमारा जन्म हुआ, उस परिवार से कई गुना बड़ा वह परिवार था। जहां हर पुरुष को एक नौकर, हर महिला को एक नौकरानी, पूरे साधन, वाहन, वैभव था उस परिवार में, किन्तु संस्कार ऐसे कि परिवार के बच्चे बड़ों के सामने नहीं बैठते थे।
अब तो पिता खड़े रहते हैं और बच्चा उनके सामने ही धम्म से बैठ जाता है। आज बहुएं भी दीवार से पीठ लगाकर बैठ जाती हैं, और बूढ़ी मां, सासू मां आईं, तो न बैठने को बोलती हैं और न दीवार छोडक़र खड़ी होती हैं, जबकि बुढ़ापे में दीवार का सहारा उपयोगी है, सुकून देने वाला है। 
हमें लोगों को शिक्षित करना ही होगा। हमें संपूर्ण मूल्यों को बाल्यावस्था में अत्यंत दृढ़ता से समझाना है। परोक्ष ज्ञान, अपरोक्ष ज्ञान और चरित्र में उतारना। इसके लिए आवश्यक है कि हम जीवन के अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष, ये चार जो हमारी इच्छाओं के मुख्य विषय हैं उनको समझें। हमारी जितनी इच्छाएं होती हैं, उन्हें चार भाग में बांटा जाता है। पहले मैं बतला चुका हूं, इसी को पुरुषार्थ कहते हैं। जिसे पुरुष चाहता है। हम धन चाहते हैं, हम भोग चाहते हैं, काम को भोग कहते हैं, हम धर्म चाहते हैं और हम मोक्ष चाहते हैं। हम बच्चों को बताएं कि हमें कैसे धन लेना है, ऐसा नहीं कि किसी की जेब से निकाल लिया। पिताजी से मांग करके लेना है, चुराकर कभी नहीं लेना है। 
दान में अभी बड़ी विडंबना है, धन का अर्जन धर्म की प्रक्रिया से नहीं हो रहा है। धन न्याय से अर्जित नहीं हो रहा है। शास्त्रीय प्रक्रिया से जो धन अर्जित किया जा रहा है, उसे जब हम दूसरों को दें, तो यह दान कहलाता है। 
कोई चुरा कर दान दे, तो वह दान लेने वाले को भी मारेगा और देने वाले को भी मारेगा। ऐसे ही इधर-उधर से चुरा करके, लूटपाट करके, अमानवीय व्यवहार करके धन कमाकर दान देने से धर्म की हानि हो रही है। गलत दान लेने वाले ऋषियों, संतों की हानि हो रही है। ऐसे ही परिवार की भी हानि हो रही है। कई लोग ऐसा बोलते हैं कि व्यापारी को तो झूठ बोलना ही पड़ेगा, बड़ा आदमी झूठ बोले बगैर आगे बढ़ेगा ही नहीं, किन्तु इसीलिए तो परिवार नष्ट हो रहे हैं। धन आ गया, किन्तु चला गया। करोड़ों-करोड़ों रुपए लोगों के पास आ जाते हैं, किन्तु एक मिनट में चले भी जाते हैं। ऐसा धन इसलिए चला जाता है, क्योंकि वह धन शास्त्रीय प्रक्रिया से अर्जित नहीं किया गया है। 
जब मैं छोटा था, तब एक बहुत बड़े परिवार में मैं गुरुजी के साथ गया। उस परिवापर के बारे में मैं पहले बता चुका हूं। तो गुरुजी ने मुझे पुकारा, ‘रामनरेशदास जी...,’ 
मेरे गुरुजी मुझे ‘जी’ लगा कर कहते थे, मेरी छोटी आयु से ही। मैं उन्हें बोलता था कि मैं शिष्य हूं, कुछ भी ज्ञान नहीं है, तो आप ‘जी’ क्यों बोलते हैं? रामनरेशदास क्यों नहीं बोलते? 
गुरुजी बोलते थे, ‘आपको बड़ा संत बनाना है, इसलिए मैं आपको अभी से आदर के साथ बुलाता हूं। मेरी बड़ी शुभकामना है।’ 
बड़ा जिसे बनाना है, उसे बड़ी बात सिखलाइए, बड़ा परिवेश दीजिए, बड़ा व्यवहार दीजिए, तो उन्होंने पुकारा, ‘रामनरेशदास जी।’
मैंने कहा, ‘हां... हां।’ 
तो बड़े परिवार के जो वरिष्ठ व्यक्ति थे, उन्होंने मुझसे तत्काल पूछा, ‘आपका कहां घर है?’ 
मैंने बतला दिया कि इस गांव में, तब उन्होंने कहा, ‘तब आपका उत्तर ठीक है, हां, क्योंकि आपके गांव का संस्कार बहुत उन्नत नहीं है।’ 
मुझे उन्होंने दबोचा। मैं पहले ही बतला चुका हूं कि वह परिवार कितना संस्कारवान था। जहां लोग कैसे जीवन जीते हैं। कोई बच्चा बैठता नहीं था बड़ों के सामने। मालिक जब भोजन करते थे, तब सबको पूछकर भोजन करते थे। सबने भोजन कर लिया क्या, ये मैंने आंखों से देखा, कानों से सुना। जब उनको कहा जाता कि सबने भोजन कर लिया, तब भोजन करते थे। वे अपने अंत समय में काशी आए, तो छोटे पोते-पोतियां, भतीजों और अंत में अपने नौकर को भी पूछते थे कि तुमने भोजन कर लिया दरभंगा। नौकर का नाम दरभंगा था। वह छोटी आयु से उनका सेवक था। तो दरभंगा बोलता था, ‘सरकार आपने नहीं किया, तो मैं कैसे कर सकता हूं। मैं तो आपका धूल कण हूं।’ 
कितनी बड़ी बात है। कितना बड़ा आदमी और पूछ करके नौकर से और भोजन कर रहा है अंत में। अभी ये जो सारी परिपाटियां हैं, सबकुछ अकेले-अकेले करने की। छिपाकर करने की और सबको विकृत रूप से प्रस्तुत करने की, तो इसीलिए परिवार टूट रहे हैं। लांछित हो रहे हैं। सबकुछ बंटाधार हो रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई हमें मान दे रहा है, तो हम उस मान को उपहार के रूप में, उसकी शुभकामना के रूप में ग्रहण करें, तो हम भी उसे मान दें। तो हमने जब कहा, ‘हां,’ तो उन्होंने सिखाया, ‘ऐसे नहीं बोलना चाहिए। गुरुजी ने पुकारा, तो जी कहना चाहिए।’ 
वह बात मुझे अभी तक याद रहती है। गुरुजी बोल रहे हैं ‘रामनरेशदास जी।’ और आप बोल रहे हैं ‘हां’। ये क्या है? 
इसका अभिप्राय यह कि ये ही नहीं बोलने आ रहा है, पिता जी पुकारें, तो जी बोलने में क्या दिक्कत है। अफसरों को तो बोलना पड़ता है सर, कोर्ट में बोलना पड़ता है सर। ऐसे ही जिससे दो रुपए लेने हैं, उसे भी कहना पड़ेगा। वरिष्ठों के लिए सर कहना पड़ेगा, किन्तु अब इसका प्रशिक्षण नहीं हो रहा है। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ९
चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि यदि किसी को भक्त बनना है, भगवान का भजन करना है, तो मान की इच्छा छोड़ो और मान देने की इच्छा से जुड़ो। हमें दूसरों को मान देना है। हमें मान चाहिए, हम चाहते हैं कि सब लोग हमारी जयजयकार करें। ऐसे महान भाव के चैतन्य महाप्रभु प्रचारक हैं। मान देने की परंपरा, मर्यादा निभाने की परंपरा बच्चों को शुरू से ही बतलानी चाहिए। जब पिता जी आएं, तो आप खड़े हो जाओ, उन्हें प्रणाम करो, ये शुरू से सिखाना होगा। पिता जी बड़े हैं, उनका मान-सम्मान करें। इससे समाज जुड़ेगा, मानवता का विकास होगा। सार्थकता बढ़ेगी। इसलिए भगवान राम जी जब उठते हैं, तो सबसे पहले भगवान को प्रणाम करके, जो कुलदेवता हैं, माता-पिता को, ब्राह्मणों को, जितने भी बड़े लोग हैं, सबको प्रणाम करते हैं। 
प्रणाम बहुत-बहुत बड़ी साधना है। प्रणाम समाज का बहुत बड़ा जोडऩे वाला द्रव है। सम्मान ही आदमी को चाहिए। सारे लोग भोजन ही नहीं मांगते, कपड़ा ही नहीं मांगते, किन्तु सम्मान सबको अच्छा लगता है। आज भी लोग हाथ जुड़वाते हैं, जो हाथ जुड़वाने, प्रणाम करवाने का उपक्रम चल रहा है, किन्तु अधिकांश परिवारों में अब बंद हो रहा है। बच्चों को नहीं सिखलाते और स्वयं भी नहीं करते हैं। अब तो लोग घुटने में ही हाथ लगा देते हैं। यह कोई बात हुई क्या? कुछ दिनों में पेट में लगा देंगे, उसके बाद छाती में लगा देंगे, गला में लगा देंगे, सिर में लगा देंगे, ये कोई प्रणाम की पद्धति हुई क्या? वरिष्ठ खड़ा है और छोटा ही बैठ गया। ये मर्यादा की बात हुई क्या? 
पूरी दुनिया का मूल तंत्र है प्रणाम, हमें किसी को पिघलाना है, हमें किसी को अपना बनाना है, तो उसको हम प्रणाम करें और सब बातें तो गौण हैं। ये शिक्षा देनी ही चाहिए कि जब तक बड़े खड़े हैं, तब तक छोटों को बैठना नहीं है। कैसे हाथ जोडऩा है, कैसे चरण स्पर्श करना है। किस तरह से उन्हें बोलना है कि जी प्रणाम, हाथ जोडक़र। ये सिखाना घर के विद्यालय का कार्य है। 
अभी तो आधुनिक शिक्षा पद्धति में बच्चे बैठे रहते हैं और अध्यापक खड़े रहकर पढ़ाते हैं। बतलाइए, अब क्या शिक्षा होगी। अब कक्षा में हाथ नहीं जोडऩा है, बस अपनी जगह खड़े हो जाइए और फिर बैठ जाइए, बेचारा अध्यापक खड़ा रहेगा। उसे देर तक खड़ा रहना है। ऐसा सेना में होगा क्या? ऐसा तो नहीं होगा। जितनी बार बड़ा अधिकारी जाता है, उतनी बार छोटा अधिकारी सैल्यूट मारता है। 
सभी लोगों को बच्चों को सैनिक बनाना है। जो सेना में प्रोटोकॉल है, केवल वही नहीं, जो संतों में प्रोटोकॉल है, वो भी बताना है। जो मार्यादाएं सेना में हैं, जो मर्यादाएं दूसरे संस्थानों में हैं, उसके साथ ही हमें संतत्व की शिक्षा भी देनी चाहिए। जो हमें आदर देता है, मर्यादा के साथ सारे व्यवहार करता है, वही तो संत है। शुरू से ही शिक्षा हो और शिक्षा की जो विवेचना है, वो ऐसे दी जाए कि अपरोक्ष ज्ञान हो जाए। अपनों के साथ दूसरों को भी प्रेरित करने की भी शिक्षा देनी है। भगवान की दया से जो बड़ी प्रसिद्ध है कि राम जी जब उठते थे, तब सभी बड़ों को प्रणाम करते थे। 
गुरु माने बड़ा होता है। व्याकरण में एक सूत्र है - दीर्घं च - जो बड़ा है अपने से, वो अपना गुरु है। जो आयु में बड़ा है, वो भी गुरु है। धन में जो बड़ा है, वो गुरु है। जो अपने से रूप में बड़ा है, बल में बड़ा है, प्रभाव में बड़ा है, तो उसको प्रणाम कीजिए। जिसको बड़प्पन प्राप्त है, वो गुरु है। 
अभी तो लोगों को यही समझ नहीं आ रहा है कि गुरुओं को कैसे प्रणाम किया जाए।  ये वो देश है, जहां प्रणाम करके लोग पत्थर को भी पिघला देते हैं। द्वारिकाधीश तो सुदामा को प्रणाम करते हैं। द्वारिकाधीश को समग्र ऐश्वर्य प्राप्त है, जो समृद्धशाली हैं, वो भी अपने गरीब ब्राह्मण संत साथी को प्रणाम करते हैं। इस तरह की प्रेम की वर्षा और मर्यादा की संस्थापना अनुकरणीय है, अद्भुत है और दूसरा इसका कोई उदाहरण नहीं है। भगवान की दया से जीवन के इन महत्वपूर्ण तथ्यों को बच्चों को विद्यालय जाने से पहले और बाद में भी बार-बार बतला देना चाहिए। 
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ८
सनातन धर्म में दूसरों को यश देना आवश्यक है। दूसरों को यश नहीं देने से बिखराव होता है। जो दूसरों को यश दे, उसे ही यशोदा कहते हैं। संत जन कहते हैं और शास्त्रों में भी वर्णित है कि सबको यश, प्रशंसा मिलती है किसी कार्य की सफलता के बाद, यही यश है। उसे आदमी निगलना चाहता है कि हमने ही किया। समुदाय को सहयोगियों में यश का बंटवारा करने की प्रवृत्ति सिकुड़ती जा रही है, जबकि राम जी सबको ही यश देते हैं। 
आज हम देखते हैं कि जो बड़े नेता हैं, जो राष्ट्राध्यक्ष हैं, जो बड़े अधिकारी हैं, जो भी जहां बड़प्पन या बड़े पद से जुड़े हैं, वो इस मामले में कंजूसी कर देते हैं। अच्छे संसाधन व अच्छी शिक्षा देने में कभी कंजूसी न करें। आपको जो यश मिला है, उसका बंटवारा करें। इसी को यशोदा कहते हैं। 
संत शिरोमणि डोंगरे जी कहते थे, जब कोई आता था नंद जी के घर बधाई देने के लिए, तब यशोदा जी कहती थीं कि आपके ही आशीर्वाद से लल्ला कितना सुंदर, कितना संस्कारी, कितना मनमोहक हुआ है, जो वैभव इसके रोम-रोम में आया है, आपके  आशीर्वाद से ही है। आपने मंगल कामना की, आपने भगवान से कामना की, आपने संयम-नियम किया, आपने उपासना की, इस बच्चे को आने के लिए। नहीं तो मेरी पात्रता नहीं दिख रही थी कि ये मेरे यहां आते। वो सबको यश देती थीं, इसलिए उनका नाम रख दिया यशोदा। जो धन देता है, उसे धनद बोलते हैं। जो कंबल देता है, उसे कंबलदा कहते हैं, ऐसे ही जो यश दे, उसे यशोदा कहते हैं। तो शुरू से बच्चों को ये शिक्षा दी जाए, जीवन के विकास के लिए यह ज्ञान का बीजारोपण है। जीवन के महान विकसित महल की यह बहुत मजबूत प्रशंसनीय नींव है कि हम बच्चों को शुरू से ही ये सिखलाएं कि कैसे यश को बांटना, धन को बांटना, ज्ञान को बांटना, भोजन को बांटना, अपने सबकुछ को बांटना है, जो उपलब्धियां हैं, उनको बांटना है। फिर आदमी राम राज्य का रक्षक, सिपाही होता है। इसी सूत्र को लेकर भरत जी ने राम जी की चरण पादुका को सिंहासन पर स्थापित किया। 
अभी जो दृश्य हैं, बहुत-बहुत विकृतियां हैं। कोई दूसरों को कुछ भी देना नहीं चाहता। दूसरों को कोई महत्व देना नहीं चाहता। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उनको बचपन से यह शिक्षा नहीं दी गई। हमारा इतिहास इसका उज्ज्वल उदाहरण है, अनुपम प्रकाशक है। जब लोगों को उचित शिक्षा दी जाती थी, तभी सम्मिलित या संयुक्त परिवार चलते थे। सम्मिलित परिवार और तमाम संगठनों के टूटने का एकमात्र यही कारण है। मिलकर रहने की शिक्षा शास्त्रों के आधार पर दी जाती थी, उदाहरण बतलाए जाते थे कि देखिए लोगों ने दूसरों को कैसे यश दिया। अयोध्या लौटने के बाद राम जी ने वानरों को बहुत महत्व दिया। गुरु वशिष्ठ से कहा कि ये नहीं होते, तो हम कुछ नहीं कर पाते। इन्होंने ही हमारा जो युद्ध स्वरूप जहाज था, उसमें बेड़ा का काम किया। थामे रखने का, भटकने नहीं देने का, बहने नहीं देने का काम इन्होंने किया, ये हमारे मित्र हैं। 
क्या बात है, कहां राम और कहां ये उनके मित्र वानर, भालू इत्यादि। कहीं से कोई तुलना नहीं है, कहीं से कोई बराबरी नहीं है। बराबरी में मित्रता होती है। धन की बराबरी, रूप की बराबरी, प्रभाव की बराबरी, यश की बराबरी। कहीं से भी इन वानरों की भगवान राम जी से बराबरी नहीं है, किन्तु भगवान ने कहा, ये मेरे मित्र हैं। 
राम जी ने कहा - 
ए सब सखा सुनहू मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेेरे।।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।
ये कैसी मित्रता है, कैसी समानता है? भगवान संकेत दे रहे हैं कि यदि इनको हम महत्व नहीं देंगे, तो संपूर्ण संस्कृति विद्रूप हो जाएगी। मानवता ही लज्जित हो जाएगी, क्योंकि इन्होंने मेरे लिए अपने प्राणों को हथेली पर रखकर प्रयास किया, तो हमको कहना है कि हमने जो विजय प्राप्त किया, हमने जो ये सारा सुयश प्राप्त किया, आप उसमें बड़े सहयोगी हैं, सबसे बड़े भागीदार हैं। 
मैं इन आख्यानों के माध्यम से कहना चाह रहा हूं कि हमें अपने बच्चों को बुढ़ापे और जवानी में नहीं, बाल्यावस्था से ही संपूर्ण उपलब्धियों को परस्पर बांट करके संपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा देनी चाहिए। इसका अभाव हो गया है। अभी तो दुनिया का सबसे बड़ा सिद्धांत हो गया है, बांटो और राज करो। दूसरों को निगल जाओ और अपने अस्तित्व को बरकरार रखो। हमें मतलब नहीं है कि आपका क्या होगा। हमें मतलब इसी से है, हम सबसे बड़े हैं, हम सबसे सुंदर हैं, सबसे धनवान हैं, संपूर्ण संसार में हमारा दबदबा है, आपका क्या हो रहा है, इससे हमें क्या मतलब? इसलिए अपने देश में इस पद्धति का जीवन, जो ये वैदिक जीवन पद्धति है, जो पौराणिक, ऐतिहासिक हमारी जीवन पद्धति है, जिसका प्रचलन अनादि काल से हमारे परिवार और संस्कृति में था। कहां कृष्ण और कहां सुदामा? कहां ये राजाधिराजा और कहां वो संत, गरीब ब्राह्मण, जिसके पैरों में कुछ नहीं होता था। उसके सामने लोग नतमस्तक होते थे। मालूम है, जैसे कि हम राज्य साम्राज्य के विस्तार में तत्पर हैं, ठीक वैसे ही ब्राह्मण भी तत्पर हैं। वैसे ही हमारे गुरु भी, संत भी तत्पर हैं, हम सब एक हैं, कोई भेद नहीं। ये हमारा बहुत बड़ा पक्ष है, जिसको इसी तरह से बड़े परिवारों में संस्कारी परिवारों में शुरू से ये बात बताई जाती है कि कैसे हमारा जीवन हो। सम्मान देने का भाव बच्चों में शुरू से डालना चाहिए। इसे ही अंग्रेजी में प्रोटोकाल कहते हैं - क्या किसकी मर्यादा है। आज मैं देखता हूं - पिता जी खड़े रहते हैं और बेटा बैठ जाता है। बतलाइए, कहीं ऐसा होता है क्या कि पुलिस का बड़ा अधिकारी खड़ा है और छोटा अधिकारी बैठ जाए। ऐसा तो नहीं होता, ऐसा कोर्ट में भी नहीं होता। सेना में नहीं होता, बड़े संगठन में ऐसा होगा क्या? बड़ा अधिकारी महाप्रबंधक खड़ा हो और द्वारपाल बैठ जाए, ऐसा तो नहीं होता है। कहीं भी नहीं होता। बड़ा जब तक खड़ा है, तब तक छोटा भी खड़ा रहेगा। बड़ा यदि बैठा है, तो छोटा भी बैठ सकता है, किन्तु पूछ कर बैठेगा। आज सम्मान देने का भाव बहुत ही कम हो रहा है, प्रोटोकॉल लोग समझ ही नहीं रहे हैं। 
अमानिना मानदेय: कीर्तनीय: सदा हरि:।
क्रमश:

श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ७ 
ये जीवन की, सनातन धर्म की परंपरा है, जो वेदों से प्रेरित होती है। ईश्वर भी ऐसा ही करता है - बांटकर शक्ति का वितरण करता है। वायु देव करते हैं, वरुण देव करते हैं। पृथ्वी कभी नहीं बोलती किसी गरीब को, किसी छोटी जाति के आदमी को, किसी मूर्ख को, किसी कुरूप को कि यहां तो ऋषि बैठते हैं, तो तू यहां क्यों बैठा है, यहां तो कोई धनवान बैठता है, तू क्यों बैठा है। वैसे ही वायु देव, वरुण देव पक्षपात की दृष्टि से देखने लग जाएं, विषम दृष्टि से शक्ति देने लग जाएं, तो संसार का सत्यानाश हो जाएगा। 
केवल भोजन ही नहीं, जो हमें ज्ञान प्राप्त हुआ है, जो हमें यश प्राप्त हुआ है और संसार के जो दूसरे संसाधन और बल प्राप्त हुए हैं, उनको भी हमें बांटना चाहिए। सनातन धर्म में प्रकिया रही है कि गुरु से पढक़र आपस में बड़े व समझदार लोग अपने साथियों के साथ मिलकर ज्ञान का वितरण करते हैं। मैंने भी पढ़ते समय अपने साथ पढऩे वालों को उन बातों को समझाया-बतलाया-पढ़ाया, जो मैंने अपने गुरुओं से सीखा। यह ज्ञान बांटने की प्रशस्त प्रक्रिया है।
गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी भी यही करते थे। वे अपने साथियों के साथ, अपने भाइयों के साथ, अपने परिजन के साथ बैठकर अपने ज्ञान का वितरण करते हैं। चर्चा होती है कि हमने ऐसा समझा, आपने कैसा समझा। आपको वह समझ में आ गया क्या, जो गुरुजी ने समझाया, यदि नहीं आया, तो मैं जो कह रहा हूं, आप प्रयास करें, ग्रहण करें। ज्ञान का वितरण राम जी अपने सभी भाइयों के साथ करते थे। गुरु वशिष्ठ से पढऩे के बाद राम जी अपने साथियों, अपने भाइयों के साथ बैठकर उस ज्ञान का बंटवारा करते थे। बैठकर बोलते थे कि हम ऐसा समझे हैं, आप भी समझिए और आप समझ गए हों, तो हमें भी सुनाइए। राम जी ऐसा नहीं मानते कि मुझे समझ में आ गया, मुझे इससे क्या मतलब कि दूसरों की समझ में आए या न आए। 
आज के आधुनिक संस्थानों में भी यह प्रक्रिया प्रचलित की जा रही है कि बच्चों के अध्ययन समूह बना दिए जाते हैं। बच्चे मिलकर चर्चा करें और मिलकर पढ़ें, मिलकर समझें। एक छात्र ने समझ लिया, तो वह दूसरों को भी समझा दे। जिसने जो समझा, वो बताए। अपनी समझ का वितरण करे। महामानव होने के लिए, जीवन में सफल होने के लिए तथ्यों को मिलकर संग्रहित करना है। उद्देश्य केवल भोजन ही नहीं, कपड़ा ही नहीं, ज्ञान भी है। ज्ञान को भी आपको बांटना है। याद करके उस ज्ञान को अपने साथियों में बांटिए। भगवान की दया से उन्हें भी उस ज्ञान से जोडि़ए, जिस ज्ञान को आपने प्राप्त कर लिया है। जब हम संस्कृत पढ़ते थे, तो बोलते थे कि हम लगा रहे हैं पाठ। जो पढ़ा है, उसे दूसरों से पूछना, दूसरों को सुनाना और अपनी समझ को परिपक्व बनाते थे। 
आज अनेक लोग अपनी नोट बुक दूसरों को नहीं देते हैं। कोशिश करते हैं कि केवल हमें समझ में आए, दूसरों को नहीं आए, तो कब राष्ट्र का विकास होगा, कब मानवता का विकास होगा? हर कोई यही सिद्ध करने में लगा है कि हमने ही सबकुछ किया, हमारे ही प्रयास से देश में हमारी पार्टी जीती है। हमारे ही प्रयास से यह प्रांत चला और हमने खूब पैसा कमाया, हमारे ही प्रयास से इस परिवार को सुयश प्राप्त हुआ। हर आदमी जीवन के जो लाभ हैं, उन्हें अपने कृतित्व और अपने संकल्प और अपनी चेष्टा के साथ जोडक़र अपने वर्तमान जीवन को, अपने भविष्य को कुंठित कर देता है। 
शुरू से ही शिक्षा दी जाए कि आपने ही सबकुछ नहीं किया, दूसरों ने भी किया है। सीखना चाहिए - रघुवंश के विकास से। रघुवंश के उत्कर्ष का, उसकी अत्यंत विशिष्टता का यही कारण था कि रघुवंशियों का कोई जोड़ नहीं था। राम जी जब वन विहार के लिए भी जाते थे, तो सभी मित्रों को यशस्वी बनाते हैं कि मैंने ही नहीं मारा, सभी लोगों ने मिलकर मारा है। सभी लोगों की सहायता से ही ऐसा हो पाया, आप सभी नहीं होते, तो ऐसा नहीं हो पाता। 
क्रमश:

Friday, 19 October 2018


श्रीराम मार्ग पर चलें सदा

भाग - ६ 
अब यह बहुत बड़ा प्रदूषण हो गया है, शुरू से ही चोरी से खाकर, चोरी से देखकर चोरी से जाकर, दूसरों को छोडक़र संपूर्ण जीवन को जीने की प्रक्रिया बनती जा रही है, जिसके कारण समाज टूट रहा है। समाज गंदा हो रहा है, उसके उपयोगी संगठन टूटे रहे हैं। इस बात की शिक्षा जैसे राम जी ने पिता दशरथ जी को दी, ठीक उसी तरह से भाई भरत जी को भी दी। अयोध्यावासियों और संसार को संदेश दिया कि बांटकर खाओ।
एक दिन हमारे एक भक्त ने बतलाया, जो पुलिस की सेवा में हैं, कि मैं एक दिन रसगुल्ले लाया और पत्नी से कहा, ‘सबको दीजिए एक-एक रसगुल्ला।’ सभी लोग हैं परिवार में, बड़ा परिवार है। तीन भाइयों का परिवार है, किन्तु उनकी पत्नी ने अपने बेटे को दो रसगुल्ले दे दिए और बाकी सबको एक-एक दिया। पति का इतना पवित्र जीवन है कि लोग चर्चा करते हैं। अब वे पुलिस सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं, अद्भुत प्रेरक है उनका जीवन। उनका नाम है देवेन्द्र राय। देवेन्द्र राय ने पत्नी को बुलाया और पूछा, ‘आपको अपने बेटे को महामानव बनाना है या राक्षस बनाना है?’ 
पत्नी ने पूछा, ‘आप ये क्या पूछ रहे हैं? ये क्या बात हुई?’
देवेन्द्र राय ने कहा, ‘जब मै खरीद कर लाया हूं और मैंने ही कहा कि सभी को एक-एक रसगुल्ला दिया जाए, तो आपने अपने बेटे को दो रसगुल्ला देकर उसे क्या बनाया?’ 
उसकी मां ही चोरी कर रही है, पक्षपात कर रही है, तो फिर क्या होगा? एक अतिरिक्त रसगुल्ला ज्ञान बढ़ा देगा क्या, उसके पुण्य को बढ़ा देगा क्या, बेटे को पहलवान बना देगा क्या, उसका भाग्य बना देगा क्या? एक अतिरिक्त रसगुल्ला जीवन को कौन-सी विशिष्ट विधा में पारंगत बना देगा। आपकी यह पक्षतापी बुद्धि, आपकी यह चोरी की बुद्धि, आपकी यह धृतराष्ट्र वाली बुद्धि आपको भी राक्षस बना देगी और आपके बेटे को भी बना देगी। 
ऐसे उन्होंने अपनी पत्नी को झंकझोरा कि दुबारा वो पक्षपात नहीं कर सकीं। आज उनके दोनों बेटे जीवन में सबके लिए काम कर रहे हैं, वो अनुकरणीय हैं। निश्चित रूप से पिता की शिक्षा का प्रभाव है। 
परिपालन की राम जी की पद्धति है, उसके माध्यम से मैं बताना चाहता हूं कि प्रारंभ से ही बहुत बड़ी दृष्टि वाला होकर, जीवन के उपयोग को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के बड़प्पन को साबित करने का संकल्प लेना चाहिए कि सदैव बांटकर खाना है। मुंह के समान बांटकर खाना है। 
जबकि आज शिक्षा ये हो रही कि कैसे छिपाकर अपने बेटे को बहुत-बहुत दे दें। मोक्ष की जो अवस्था है, उसमें कहा जाता है कि भोगे साम्यम्। भगवान सबकुछ अपने बराबर कर देते हैं। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा नौकरों को खिलाएगा। कौन मालिक होगा, जो अपने जैसा सबको पहनाएगा? 
एक हमारे भक्त हैं, बहुत अच्छा जीवन है उनका हीरे की दुनिया में। लगभग ६००० कर्मचारी उनकी फेक्ट्री में काम करते हैं। मेरे संपर्क में पूरे विश्व में उनके जैसा कोई नहीं है - गोविंदभाई ढोलकिया। उनका नियम है कि वो अपने व्यापार में कोई गलत काम नहीं करते हैं। पांच से छह लाख रुपये रोज सफेद धन दान करते हैं। ये उनकी विशेषता है कि उनके यहां ६००० लोगों का भोजन साथ बनता है। वे और उनके सभी पार्टनर भी भोजन साथ करते हैं, एक ही भोजन सभी करते हैं और अलग से किसी को विशेष कुछ नहीं मिलता। एक हरी मिर्च भी किसी को अलग से विशेष रूप से नहीं मिलती है। ऐसे-ऐसे लोग काम करते हैं उनके यहां, जिनकी लाखों रुपए तनख्वाह है। खूब प्रतिष्ठा है, किन्तु सभी एक समान भोजन करते हैं। 
अभी तो कई लोग इसीलिए कमा रहे हैं कि अलग से खाएं, दूसरों से अलग पहनें, दूसरों से अलग घूमें, दूसरों से अलग आनंद करें, दूसरों से अलग जीवन जीएं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कैसे वो वस्त्र पहनेंगे, जो गरीब पहनते हैं। लोग लगे हैं कि हमारा सबकुछ अलग हो, खाना-पीना, रहना, आभूषण अलग हो, तभी तो हमारे कमाने की सार्थकता है, जबकि वास्तव में मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी होगी, जब हम बांटकर खाएंगे। 
क्रमश: