धर्म के ज्ञान से ही व्यक्ति को जीने की कला आती है.
Monday, 12 December 2011
Wednesday, 23 November 2011
संस्कार और दुख
तभी तो कृष्ण ने कहा, ‘अंत में मेरा स्मरण करो?’
अर्जुन ने कहा, ‘अंत में कैसे होगा?’
तो कृष्ण ने कहा, ‘तब तो निरंतर स्मरण करना होगा।’
जो निरंतरता, प्रगाढ़ता, अनन्यता के साथ अत्यंत श्रद्धा के साथ स्मरण होता है, वही अंतिम काल में होता है। तो हम सभी लोग भगवद स्मरण करें और अपने जीवन को धन्य बनाएं। अपने संस्कारों को सशक्त करें। भगवद स्मरण के लिए सबसे बड़ी सामग्री है कि हम भगवान की सुनें, सत्संग करें, सत्संग से कई काम होते हैं, पाप नष्ट होते हैं। आप प्रवचन सुनते हैं, ईश्वर के प्रति श्रद्धा बढ़ती है, तो मन पवित्र होता है। लगता है, आज मैंने कुछ काम अच्छा किया।
Sunday, 20 November 2011
भगवद स्मरण करें
दु:ख क्यों होता है?
Thursday, 13 October 2011
जात पांत पूछै नहीं कोई
दुःख क्यों होता है?
Tuesday, 4 October 2011
जात पांत पूछे नहीं कोई
दु:ख क्यों होता है?
मीडिया में महाराज
बारह साल की उम्र में बिहार के भोजपुर से अपना गांव परसिया छोड़कर साधु बने स्वामी रामनरेशाचार्य संस्कृत में निरंतर लुप्त हो रही हजारों साल पुरानी न्याय दर्शन, वैशेषिक और वैष्णव दर्शन की परंपरा को पुनर्जीवित करने में लगे हुए हैं। काशी की विद्वत परंपरा के विद्वान आचार्य बदरीनाथ शुक्ल से 10 वर्षो तक विद्याध्ययन करने के बाद रामनरेशाचार्य ने ऋषिकेश के कैलाश आश्रम में बिना किसी जाति-पांति व वर्ग का भेद किए हजारों विद्यार्थियों व साधुओं को न्याय दर्शन, वैशेषिक और वैष्णव दर्शन पढ़ाया। संस्कृत के दुर्लभ व लगभग अप्राप्त ग्रंथों का प्रकाशन कर रामनरेशाचार्य ने विलुप्त होते अनेक ग्रंथों को भी बचाया है।
अपने जीवन के छह दशक पूरे कर रहे रामनरेशाचार्य काशी में जगद्गुरू रामानंदाचार्य के मुख्य आचार्य पीठ "श्रीमठ" में 1988 से "जगद्गुरू रामानंदाचार्य" के पद पर अभिषिक्त होने के बाद भी अनेक देशी-विदेशी छात्रों को संस्कृत मे निबद्ध भारतीय दर्शन की जटिल शास्त्र प्रक्रिया को निरंतर सहज रूप से पढ़ा रहे हैं। देश के अनेक क्षेत्रों में संस्कृत विद्यालयों की स्थापना कर रामनरेशाचार्य विद्यार्थियों को सारी सुविधाएं भी निशुल्क ही उपलब्ध करवाते हैं। आदिवासी क्षेत्र में रामनरेशाचार्य ने संस्कृत की एक ऎसी अलख जगाई है कि वहां स्थापित विद्यालयों में हजारों छात्र समान रूप से बिना किसी भेद-भाव के संस्कृत पढ़ रहे हैं।
दु:ख क्यों होता है?
Saturday, 1 October 2011
गलत लोगों का बहिष्कार हो
दु:ख क्यों होता है?
घर घर आतंकवाद
भ्रूण हत्या से चिंता यह नहीं है कि लड़कियों की संख्या कम होगी, तो लडक़ों की शादी कैसे होगी। शादी जरूरी नहीं है, सौ में से २० लोग ही शादी की योग्यता वाले हैं। जो योग्य नहीं, वे शादी क्यों करते हैं, शादी उसी को करना चाहिए, जिसकी जेब में पैसे हों, जो स्वस्थ हो। पुराने जमाने में सभी लोगों की शादी नहीं होती थी। बहुत पुरुष कुंवारे रह जाते थे, अभी भी हरियाणा वगैरह में प्रथा चल रही है, पांच भाइयों में एक भाई शादी कर रहा है, क्योंकि पाचों शादी करेंगे, तो सबके बच्चे होंगे, विभाजन हो जाएगा, संपत्ति बिखर जाएगी। संपत्ति बिखर जाएगी, तो परिवार का कुटुंब का सम्मान चला जाएगा। इसलिए कई परिवारों में शादियां कम होती हैं।
असली बात पर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है।
दु:ख क्यों होता है?
Thursday, 29 September 2011
मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि
आज कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ी समस्या है। हम मानते हैं कि हत्या होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि जो जीवन दान है, वह हमारे द्वारा नहीं होता है, चाहे कीट का जीवन हो या पतंग का जीवन हो। यहां तक कि हम गेहूं, चावल भी स्वयं नहीं बना पाते हैं, हम केवल बीज डालते हैं, सींचते हैं, उसमें फूल स्वत: आता है, फल आता है। जो बनाता है, उसी को नष्ट करने का अधिकार है। रोटी हम बनाते हैं, बिल्ली आदि से उसकी रक्षा करते हैं, हम उसको खा जाते हैं या लोगों को खिला देते हैं। तीनों काम हुआ, उत्पादन, पालन और संहारण, इसलिए हम रोटी के स्वामी हैं। स्वामी को अधिकार है। मकान बनाया हमने, तो स्वामी उसका कोई दूसरा होगा क्या? इस संसार में एक भी ऐसा मनुष्य शरीर नहीं है, जो मनुष्य बनाता हो।
दु:ख क्यों होता है?
हर कोई अपनी संपत्ति बताए
दु:ख क्यों होता है?
Wednesday, 28 September 2011
कैसे दूर होगा भ्रष्टाचार?
दु:ख क्यों होता है?
Tuesday, 27 September 2011
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ
दु:ख क्यों होता है?
Wednesday, 21 September 2011
ऐसे संत कम हैं
Monday, 19 September 2011
सत्संग
आनंद की खोज !
Sunday, 18 September 2011
नाथ आज मैं काह न पावा
दु:ख क्यों होता है?
Wednesday, 14 September 2011
India needs own education policy
Swami Ramnareshacharya was invited by the Panjab University Students Association to express his views on the present education system in India and the need for proper guidance in the education field in colleges and universities .
Regarding the possibility of a war, the Swami said: “India is not interested in extending her territory but wants protection at the LoC. And for this purpose, India should not be afraid of any world power.”
Commenting on the recent events, including an attack on the World Trade Centre and America’s war against terrorism, he categorically stated, ‘’It was in the knowledge of America that Osama bin Laden is Pakistan’s creation and that is why it directed Pakistan to locate Osama bin Laden.”
He further said, “India should dispell fear and leave the policy of wait and watch. India should repell terrorists activity with vigour and force. The country should not fear even declaring a war against Pakistan and should strike at the very root of evil”.
“There are some other supreme powers which do not want that Pakistan and India should lead peaceful lives. The conflict between the two countries suits them”, he added.
A report published in the tribune
Chandigarh, January 4, 2002Tuesday, 13 September 2011
हरिद्वार में अद्वितीय श्रीराम मंदिर निर्माण
दुनिया में इतना दुख क्यों है?
दु:ख क्यों होता है?
Monday, 12 September 2011
प्रतिशोध की भावना क्यों?
दु:ख क्यों होता है?
चातुर्मास संपन्न
Sunday, 11 September 2011
स्वामी रामनरेशाचार्य जी
दु:ख क्यों होता है?
जय जय देव हरे
swami Ramnareshacharya ji
Friday, 9 September 2011
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज
Saturday, 3 September 2011
संत वही जो पंथ दिखाए
जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य आज के आपाधापी भरे, भौतिकता के प्रमाद में ऊभचूभ करते समय में एक ऐसे अकम्पित ज्योति-स्तम्भ हैं, जिनसे जो भी चाहे अपने जीवन में प्रकाश पा सकता है। एक ऐसे स्नेहिल-प्रेमिल संत, जो धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-दर्शन और तत्व चिंतन के अगाध समुद्र हैं और जिनकी शीतल वाणी हृदय के दाह को शांत करके मन के तार को इस तरह झंकृत कर देती है।
जगदगुरु रामनरेशाचार्य हजार वर्षों से चली आ रही रामभक्ति परम्परा की जो पावन मंदाकिनी है, उसके प्रतिनिधि आचार्य हैं और उस तत्वदर्शी संत शिरोमणि आचार्य रामानंद सम्प्रदाय के पीठाधिपति हैं, जिस सम्प्रदाय में ऊंच-नीच का भेद नहीं किया जाता और समाज के सर्वाधिक पिछड़े दलितों को भी बराबरी का सम्मान दिया जाता है। स्वयं जगदगुरु स्वामी रामनरेशाचार्य जी जहां भी जाते हैं, वंचितों व दलितों को भी वही स्नेह और मान देते हैं जिसकी अपेक्षा ऊंचे व श्रेष्ठिï वर्ग के लोगों को रहती है। वे कहते भी हैं कि बहुत मोटे-मोटे, धनवान और चिकने-चुपड़े सुंदर लोग ही धर्म के अधिकारी हैं, ऐसी बात नहीं है। जो धर्म ईश्वर का स्वरूप है, जीवन का सर्वश्रेष्ठ और उपयोगी पक्ष है, वह सबका है। जैसे कि प्राणवायु सबकी है। वे प्रतिप्रश्न करते हुए व्याख्या करते हैं- जल अलग है क्या? आकाश अलग है क्या? आप धनवान हैं तो अपने ऊपर धन लुटा सकते हैं किंतु आपको खुले आकाश में आना पड़ेगा। यदि आपने किसी के लिए आह भी भर दी, यदि कोई पीडि़त है और हम उसकी पीड़ा के निवारक संसाधन दे पाए तो यह करुणा है और यह करुणा धर्म पे्ररित है। सम्बंधों का निर्वाह जितना गरीब आदमी करता है, उतना धनिक व्यक्ति नहीं करता। यह दुनिया में आमचर्चा है। वैसे सम्बंध के निर्वाह में भी धर्म की ही भूमिका है। रविदास को सबने रोका किंतु वे धर्म की श्रेष्ठï माला हो गए। जो भी ध्यान, नियम-संयम और जप-तप करेगा, उसके लिए कोई दिक्कत नहीं है। इसीलिए आचार्य रामानंद ने वर्णाश्रम व्यवस्था की जो दीवारें थीं, उनको तोडऩे के लिए लड़ाई नहीं की, क्योंकि इसमें पड़ते तो उनकी एनर्जी इसी में समाप्त हो जाती। साइड वाली नहर नहीं निकल पाती और जहां पानी की जरूरत थी, वहां लोग सूखे ही रह जाते। इसीलिए 'संस्कृति के चार अध्याय' में दिनकर जी ने कहा है कि आचार्य रामानंद बहुत ही जागरूक और दक्ष महात्मा हैं। आचार्यों की परम्परा ने शूद्रों को वेद पढऩे की अनुमति नहीं दी तो उन्होंने कहा- 'आप राम-राम बोलिए, भज लो साधु सीताराम...हरि को भजै सो हरि का होई।' रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि इसीलिए अस्पृश्यता का प्रश्न हमारे यहां नहीं है और शराब पीकर ब्राह्मण भी आता है तो हमें दिक्कत है, क्योंकि धर्म आचार-विचार और शुद्धता का क्षेत्र है, जिसकी अपेक्षा सभी से है यानी ब्राह्मणों से भी, शूद्रों से भी।
अब आइए, संत-आचरण के दूसरे पहलू पर गौर करते हैं, जो जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी से ही संदर्भित है। आज जबकि हम देखते हैं कि राजनेताओं से मिलने-जुलने और उनके आगे-पीछे घूमने में ही कुछ भगवाधारी गौरव महसूस करते हैं और राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर सत्तारूढ़ दलों के मंच पर सुशोभित होने को उपलब्धि की तरह देखते हैं, ऐसे में एक निस्पृह संत के रूप में धर्म-मर्यादा की सर्वोच्चता का स्वामी रामनरेशाचार्यजी पूरी गरिमा और दृढ़ता से पालन करते हैं। देश के शीर्ष राजनीतिज्ञ मसलन पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत चंद्रशेखर और राजीव गांधी समेत ज्ञानी जैल सिंह और वर्तमान में भी अनेकानेक राजनेताओं को रामनरेशाचार्य जी का स्नेहपूर्ण आशीर्वचन मिलता आया है, इसके बावजूद इस मामले में उनके विचार बहुत स्पष्टï और आंखें खोल देने लायक हैं। वे कहते हैं- नि:संदेह मेरे पास देश के शीर्ष राजनीतिक आते-जाते हैं और मुझमें आस्था रखते हैं, मुझे श्रद्धा का केंद्र मानते हैं तो यह तो धर्म के लिए अच्छी बात है कि धर्म आकर्षक है-अपनी ओर खींचता है। जिन राजनयिकों से लोगों की आस्था समाप्त हो रही है, जो कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, जिनका सम्पूर्ण जीवन सत्ता, कुर्सी बचाने में, धन कमाने में लगा है, जिनके यहां कोई लोकतांत्रिक मूल्य नहीं हो पा रहा है, यदि वे लोग यहां आते हैं तो धर्म की जरूर प्रशंसा होनी चाहिए। यही नहीं, जो आ रहे हैं- कम हैं, सबको आना चाहिए। क्योंकि अच्छे स्थान पर, महात्मा के यहां शीर्षस्थ आदमी भी आ सकता है और भूमिस्थ भी आ सकता है। आखिर नेता समाज के बाहर के लोग नहीं हैं।
लेकिन साथ ही स्वामी जी यह भी कहते हैं कि हां, उस धर्मगुरु की आलोचना की जा सकती है जो अपना स्वरूप तिरोहित करके राजनीतिक मूल्यों को उजागर कर दे और उसे श्रेष्ठता दे दे। चुनाव प्रचार करना, उनकी गलत बातों का समर्थन करना- तब तो महात्मा आलोच्य होना ही चाहिए, वह संदेह के घेरे में है। रामनरेशाचार्य जी कहते हैं कि यह बहुत गलत है कि बड़े नेताओं के आने पर संत उठकर खड़े हो जाएं। इस संदर्भ में वे एक प्रसंग का उल्लेख करते हैं- 'मैं गुजरात गया था एक बड़े समारोह में। नरेंद्र मोदी आए थे तो वहां जो वरिष्ठï संत बैठे थे, कई तमाम गादीपति, तो वो लोग उठकर खड़े हो गए, जबकि सनातन धर्म में संन्यासी का दर्जा आश्रम की दृष्टि से बड़ा माना गया है। और इतना ही नहीं, उन्होंने उनके साथ इस तरह प्रणाम विधि का सम्पादन किया जैसे आधुनिक समाज में होता है- हाथ पकड़कर फिर हिलाना। जबकि अद्भुत सम्मेलन था वह। तीन लाख लोग पंडाल में, पांच लाख बाहर और सबको भोजन मिलने वाला था। मंच शानदार। मैं सर्वाधिक शीर्ष पर बैठाया गया था, सिर पर छत्र लगा था लेकिन मेरे भीतर सिर्फ एक महात्मा था- न उससे अधिक कुछ, न उससे कम कुछ। मोदी ने झुककर प्रणाम किया और मैंने आशीर्वाद दिया। यदि मैं पूछने लग जाता कि मोदी जी कैसे हो? उनके साथ चित्र खिंचवाने लग जाता, उनकी प्रशंसा में लग जाता तो...? कहने का मतलब यह कि संत अपने मार्ग से विचलित न हो, राजनयिक उनके पास आएं, जो नहीं जुड़े हैं, वो भी मुझसे जुड़ें, यह तो समाज के लिए अच्छा है।'
यहीं पर यह याद कर लेना भी जरूरी है कि जब अयोध्या के विवाद को राजनीतिक बवंडर उठाकर अंधी गुफा में धकेलने की पूरी कोशिश की जा रही थी, तभी उस उथल-पुथल के दौरान स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज ने 'राम भाव प्रसार यात्रा' जैसे विधायी आयोजन के माध्यम से भक्ति और आस्था के प्रकाश का प्रसार किया। अपनी इस यात्रा के बारे में वे कहते हैं- वह मेरे मन की भावना थी। हम रामभक्त हैं तो हमें जाना ही चाहिए अयोध्या दर्शन करने। कष्टï उठाकर अपने आराध्य के पास पहुंचने में यात्राओं का अपना महत्व है। बाकी किसी आंदोलन, व्यक्ति और पार्टी का विरोध अथवा समर्थन करना हमारा लक्ष्य नहीं था। हम सर्वत्र उन मूल्यों की चर्चा करते रहे कि कैसे लोगों में राम भाव आए। वे बताते हैं कि हमें कुछ राज्य सत्ताओं ने राज्य अतिथि का भी दर्जा देने का प्रस्ताव किया था, लेकिन हमने कहा- नहीं। यदि संत राज्य अतिथि का दर्जा पा जाएगा तो धर्म का कार्य कैसे चलेगा?
सच्चे संत का जीवन स्वयं में ऐसा दर्पण होता है, जिसमें झांककर कोई भी चाहे तो आत्म-साक्षात्कार कर सकता है। जगदगुरु रामनरेशाचार्य जी साधना पथ पर कैसे अग्रसर हुए और उनके भीतर एक आध्यात्मिक संत, एक महात्मा, एक जगदगुरु का कैसे प्राकट्ïय हुआ- यह भी जान लेते हैं। दर्शन, व्याकरण और तर्कशास्त्र के निष्णात आचार्य होने के साथ ही अगर उनके भीतर आज रामभक्ति मंदाकिनी की अविरल धारा प्रवाहित है तो इसलिए, क्योंकि आचार्यश्री ने इसके लिए अविचल, ऐकांतिक साधना की है। वे कहते हैं कि ऐसा होने में प्रारब्ध का बहुत बड़ा हाथ है, जीवन-प्रवाह में घटनाएं तो बस निमित्त मात्र होती हैं।
वे बताते हैं- विद्वान बनने की मन में गहरी लालसा थी। इच्छा थी कि शिक्षा के क्षेत्र में यशस्वी जीवन पाऊं। शुरू से पढऩे में दक्ष था और छोटी अवस्था से ही मुझे उसके लिए पहचान, स्नेह और सम्मान मिलने लगा था। किंतु मुझे ऐसा लगा कि वहां (गांव में) मेरी पढ़ाई के अनुकूल वातावरण नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि आदमी अज्ञानता से ही दुखी होता है। मैं देखता था कि लोगों को जीवन जीना नहीं आ रहा है। ग्रामीणों को अनावश्यक रूप से दुखी देख रहा था। एक बच्चा पालने की स्थिति नहीं है और सात बच्चे हैं। जहां झगड़े को टाला जा सकता है, वहां लडऩा, कहासुनी, मुकदमेबाजी और अनावश्यक बतकही। मैंने देखा कि ज्यादातर लोग शादी वाले कारण से दुखी हैं। शादी हुई, बच्चा हो गया, पति-पत्नी का झगड़ा शुरू हो गया। बच्चे नालायक निकल गए, वो तंग कर रहे हैं और मां-बाप हैं कि उन्हीं के लिए मरे जा रहे हैं। सो, बालपन की उसी कच्ची उम्र में आचार्यश्री ने तीन संकल्प लिए- विद्वान होना, विवाह न करना और लौटकर नहीं जाना।
वे बताते हैं- मैं पूरी योजना के साथ घर से कलकत्ता के लिए कहकर काशी चला आया। उस समय साधु होने का उद्देश्य नहीं था और न ही ईश्वर को प्राप्त करने की भावना थी। बस विद्वान होने की ललक। वाराणसी में वे संतों के संसर्ग में आए और तरह-तरह की लोलुपता से बचकर संयमित जीवन के साथ दर्शन शास्त्र का अध्ययन करने लगे। इसी दरम्यान उनके भीतर धीरे-धीरे आस्था का विकास होता चला गया। आचार्यश्री याद करते हैं, जब आठवीं कक्षा में था तो लोग आश्चर्य करते थे कि इस छोटी अवस्था में यह माक्र्स को भी पढ़ता है और टीका भी लगाता है। उस समय को याद करते हुए वे बताते हैं कि मुझे एक तरह से जबरदस्ती दीक्षित कर दिया गया, हालांकि तब भी लक्ष्य विद्वान बनना ही था। मेरे गुरुजी भी बहुत संयमी थे। आमदनी का कोई स्रोत नहीं था, सो कम से कम में निर्वाह होता था। न्यायशास्त्र आदि के अधिकतर ग्रंथों को स्वयं ही पढ़ा। इसी तरह स्वाध्याय के बल पर सांख्य, योग, व्याकरण आदि का अध्ययन-मनन किया। संतश्री बताते हैं, नौकरी भी समय से बहुत प्रतिष्ठिïत मिल रही थी, जब मेरे पढ़ाए हुए लोग विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर हैं तो मेरे लिए यह आसान ही थी। किंतु पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक-आध्यात्मिक आस्था का विकास हुआ और उस आस्था ने बैरागी बना दिया। आचार्यश्री कहते हैं, यह मेरा प्रारब्ध था, जिसने मुझसे घर छुड़वाया।
ज्ञान की गहरी प्यास और आस्था के उत्कट उद्भास के मणिकांचन संयोग से हमारे बीच जगदगुरु रामानंदाचार्य श्रीरामनरेशाचार्य के रूप में एक ऐसे अनासक्त संत का प्राकट्य हुआ है, जो कहता है कि पीठाधीश्वर वगैरह तो हमारे आगे-पीछे की चीजें हैं- बहुत साधारण-सी बात है। बड़ी से बड़ी गद्दी के लोग मुझे छात्रावस्था में ही वैसा आदर देने लगे थे कि मैं बहुत बड़ा आदमी हूं। पीठ की कोई आकांक्षा नहीं थी, लेकिन जब श्रीमठ का प्रस्ताव आया तो लगा कि सेवा का यह उपयुक्त स्थल है। मोक्ष नहीं, बल्कि रामभाव की भक्ति और सेवा ही स्वामी रामनरेशाचार्य जी की परम कामना और परम साधना है। हमारा सौभाग्य है कि हमारे बीच एक ऐसा संत है, जिसकी शीतल वाणी और आशीर्वचन से मन की सारी मलिनता और क्लेश धुल जाते हैं।
साभार
ना पूछो फिर जात पात
आध्यात्मिक साधना का जो फल होता है, उद्देश्य होता है, लगभग वैसा ही फल व उद्देश्य राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक साधना का होता है। राष्ट्र समृद्धि को प्राप्त हो, सुंदरता को प्राप्त हो, यही लोकतंत्र का लक्ष्य है। ऎसी सेवा साधना के लिए जाति का क्या महत्व हो सकता है? लोकतंत्र में जाति के आधार पर नागरिकों की गणना करना राष्ट्र को चरम लक्ष्य तक पहुंचने से वंचित करने के समान है। ऎसी गणना से हम कोई सकारात्मक लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे। जाति भेद क्यों बढ़ाया जा रहा है? अगर सूर्य देव भेदभाव करें, अगर वायुदेव भेदभाव करें, तो क्या होगा? मुझे लगता है, जिस दुर्भावना से ग्रस्त होकर अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना करवाई थी, उससे सावधान रहना चाहिए। वे बांटों और राज्य करो वाले लोग थे, इसके लिए उनका अपना संविधान था, किन्तु अब हमारा अपना संविधान है, हमारे यहां वैसा नहीं होना चाहिए। प्रयास ऎसे हों कि लोगों में परस्पर प्रेम बढ़े, भेद नहीं।आज पूज्य रामानन्दाचार्यजी के जाति भेद विरोधी वचनों का स्मरण करने की आवश्यकता है। राष्ट्र में कृषि विकास हो, शिक्षा, चिकित्सा या सैन्य विकास हो, किसी भी तरह के विकास में जाति की कोई आवश्यकता नहीं है, जैसे प्रेम और भक्ति में जाति की कोई आवश्यकता नहीं है। धागा जितना बड़ा होगा, उतनी ही बड़ी माला बनेगी। जाति आधारित जनगणना होगी, तो धागा टूट जाएगा। अपने राष्ट्र में पहले ही विखंडन बहुत हो चुका है, पाकिस्तान अलग हुआ, श्रीलंका अलग हुआ, बर्मा अलग हुआ, लेकिन अभी भी कई लोग हमें और बांटने के अवसर ढूंढ़ रहे हैं। ऎसी जनगणना से राष्ट्र का मार्ग कतई प्रशस्त नहीं होगा। हमें प्रयास करने चाहिए कि हमारी सांस्कृतिक धारा का विस्तार हो, उसकी उज्ज्वलता बढ़े। अशोक ने इसी राष्ट्र में महान गौरव प्राप्त किया, राष्ट्र के लिए आवश्यक श्रेष्ठ भावों को व्यक्त किया, परन्तु वे किस जाति के थे, कौन जानता है? भारत में जो लोग भेदों की दीवारों को तोड़ने में सफल हुए, वही आगे बढ़े हैं। जाति की पूछ-परख अनुचित है। पुरानी बात है। टिकट बंटवारा हो रहा था, पण्डित नेहरू ने एक जाति विशेष के व्यक्ति को टिकट दिया। जाकिर हुसैन ने पूछा कि उसे आपने टिकट क्यों दिया, उन्हें उत्तर मिला कि अमुक क्षेत्र में अमुक जाति के ज्यादा लोग हैं। जाकिर हुसैन ने तब विरोध किया था कि एक खतरनाक शुरूआत हो रही है। जाकिर हुसैन जाने-माने विद्वान नेता थे, राष्ट्रीय भावना से परिपूर्ण थे, उन्होंने तभी अनुभव कर लिया था कि एक बड़ा खतरा तैयार हो रहा है।
जहां तक महिला आरक्षण का प्रश्न है, तो मेरा मानना है, यह होना चाहिए। इस राष्ट्र की संस्कृति ने महिलाओं का जितना सम्मान किया, उतना किसी राष्ट्र ने नहीं किया। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, तो उन्होंने कहा, मैंने सीता चरित का गायन किया है, राम चूंकि उनके पति हैं, इसलिए सीता चरित में वे भी हैं। दुनिया में नारी को केन्द्र में रखकर उस जैसा दूसरा ग्रंथ नहीं है।
इंदिरा गांधी को जिस सम्मान के साथ राष्ट्र ने प्रधानमंत्री बनाया, वैसा आज तक कहीं नहीं हुआ। नारी स्वतंत्रता की बात करने वाले अमेरिका, रूस में भी नारी न तो सुप्रीम कोर्ट में उच्च पद पर पहुंची है और न राष्ट्रपति बन सकी है। चीन अभिमान करता है, लेकिन उसने अपने सबसे बड़े नेता माओ के निधन के बाद उनकी पत्नी को किनारे कर दिया। लोग कहते हैं, नारी बाहर जाएगी, तो कैसे संघर्ष करेगी, बाहर तो बड़ी गंदगी है, गुंडे हैं। इसके लिए तो पहले हमें बाहर सफाई करना चाहिए। नारियों को बाहर आने से रोकने की बजाय हमें बाहर की दुनिया की जो गंदगी है, उसका सफाया करना होगा। व्यवस्था न सुधरे, तो कोई भला पुरूष भी आगे नहीं आएगा, çस्त्रयों के आगे आने की तो बात छोडिए। आरक्षण में जो आरक्षण की बात कर रहे हैं, वे दकियानूसी लोग हैं। महिला आरक्षण संभव हुआ, तो हमारी संस्कृति के साथ एक ऎसी विशेषता जुड़ेगी, जिसकी बराबरी संसार का कोई राष्ट्र नहीं कर पाएगा। तमाम आरक्षण हो रहे हैं, किन्तु महिला आरक्षण पहले होना चाहिए।
स्वामी रामनरेशाचार्य
रामानन्द संप्रदाय के प्रधान
(जैसा उन्होंने ज्ञानेश उपाध्याय को बताया, पत्रिका में प्रकाशित लेख)
Thursday, 1 September 2011
वंदे गुरु परम्पराम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम.
प्रभु की अनुकम्पा, असंख्य पूर्व जन्मों के पुण्य प्रताप के प्रकट होने के कारण हम सभी लोगों को सर्वश्रेष्ठ भारत भूमि सर्वश्रेष्ठ वैदिक सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन की प्राप्ति हुई है। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठता केवल ऐसे ही संपन्न नहीं हुई होगी। जब तक हम इसके माध्यम से परम फल को नहीं प्राप्त करेंगे। भगवान के दिव्य धाम जाने के बाद वापस नहीं लौटना पड़ता है। ८४ लाख योनियों में से किसी योनी को प्राप्त नहीं करना पड़ता है। जीवन के सम्पूर्ण अभाव, कुरूपता, सम्पूर्ण अप्रतिष्ठा, सम्पूर्ण जीवन की जो विडंबना है, वह हमेशा हमेशा के लिए दूर हो जाती है। हमें इस मानव जीवन के माध्यम से उसको प्राप्त करना है। कैसे उसकी प्राप्ति होगी, इसके लिए शास्त्रों में जो निर्देश हैं कि हम भगवान को सुनें, उनको गाएं, उनका स्मरण करें. उसके माध्यम से भगवान प्रसन्न होंगे। वह हमें परम फल को देंगे, परम अवस्था को देंगे। भगवान तो वैसे दयालु हैं, लेकिन जब हम उनके निर्देश के अनुसार जीवन बिताने लगते हैं, तो उनकी दया का हमें अनुभव होने लगता है। उनकी विशेष दया हमारे ऊपर बरसने लगती है, तो हमें परम फल की प्राप्ति होती है। वैसे तो उन्होंने हमें जीवन दिया, वर्षा दे रहे हैं, भोजन दे रहे हैं, वायु दे रहे हैं, प्रकाश दे रहे हैं, अवकाश दे रहे हैं, आकाश दे रहे हैं, यह सभी भगवान ही दे रहे हैं। कल्पना कीजिए अगर आकाश नहीं होता, तो हम आवागमन कैसे करते हैं। आकाश ही अवकाश प्रदान करता है। उससे आवागमन संपन्न होते हैं। पृथ्वी ही आधार प्रदान करती है, जिस आधार पर हमारा जीवन व्यवस्थित है, नहीं तो हम कहां रहेंगे। कहीं भी आधार आपको प्राप्त हो, तो पृथ्वी का ही स्वरूप आपको प्राप्त होता है। चाहे आप हवाई जहाज में हों या जल में, जल में आखिर कितनी देर तक ठहरेंगे आप।
तो भगवान की दया से व अनुपम कृपा से हमें अत्यंत मंगलमय मानव जीवन प्राप्त हुआ है। अत्यंत निश्छल भावना से, संयम से तत्परता से, आदर और प्रेम से इसका हम लाभ उठा रहे हैं। संसाधनों को अपने जीवन से जोड़ रहे हैं। अभी आप लोगों ने आचार्य जयकान्त शर्मा जी से भगवान की अत्यंत मंगलमय लीला को सुना। भगवान लीला करते हैं, लोगों, भीलों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए। भगवान की लीला का यही प्रयोजन है। हम सब लोगों का भी यह बड़ा स्वभाव है, लेकिन यह अच्छा नहीं। अपनी ओर आकर्षित करने के लिए संसार के जो अज्ञानी जीव हैं, जो अधो जीवन के लिए प्रयास करते हैं, लोग काम और अर्थ के सम्पादन में ही सम्पूर्ण जीवन के अमूल्य क्षणों का विनियोग कर रहे हैं। ऐसे जीव भी अपनी ओर लोगों को आकर्षित करते हैं लोगों को. जैसे सिनेमा के लोग हैं, सिनेमा के लोग अपनी लीलाओं व भाव अभिनय से, अपने बनावटी रूपों से लोगों आकर्षित करते हैं, अपने दर्शको को आकर्षित करते हैं। तो उस सिनेमा को लोग कहते हैं कि वह सुपरहिट हो गई। बनाने वालों को भी लाभ होता है, उसमें काम करने वालों को भी लाभ होता है। सिनेमा हॉल वालों को भी लाभ होता है, उससे जुड़े तमाम लोगों को लाभ होता है। लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जो सस्कार रहित है, शास्त्रीय संस्कार से कहीं उसका स्पर्श नहीं है, उसके जीवन में मोक्ष की हल्की-फुल्की भी कामना नहीं है। ऐसे लोग संसार में अधिक हैं और वे लोग ही प्रभावित करते हैं। राजगद्दी पर जो लोग बैठे हैं, उनमें भले संस्कार न हो, लेकिन वे सबको प्रभावित तो करते ही हैं।
श्रोता भगवान का भक्त हो न या हो, लेकिन मेरा शिष्य तो हो ही गया। समर्थ रामदास जी (शिवाजी के गुरु) ने अपनी अमर कृति श्रीमत दसबोध में बहुत जोर-शोर से कहा, सनातन धर्म के श्रेष्ठ के उन्नायको में उनका भी नाम आदर के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ७०० हनुमत विग्रहों की स्थापना की। वे हनुमत विग्रह परम तेजस्वी रूप में समाज में आज भी प्रतिष्ठित हैं और असंख्य लोगों के कल्याण का कारण बन रहे हैं। उन्होंने कहा कि वक्ता में कई गुण होने चाहिए, उसमें एक गुण यह भी है उसके मन में यह भाव भी नहीं आए कि श्रोता मुझसे प्रभावित हो रहा है। बहुत गलत है, वक्ताओं का खूब शृंगार करके आना। ऐसे आते हैं, जैसे विवाह के लिए आ रहे हों।
यह स्वभाव हमारा है, लोकेषणा के साथ हमलोग आए हैं। हमारा सम्मान बढ़े, हमें आदर मिले। लोग हमारी प्रशंसा करें, जयजयकार करें, हमें धन दें, इत्यादि। भगवान भी अवतार लेकर यही काम करते हैं, लेकिन वे जीवों को धन्य बनाने के लिए करते हैं। अपना उनका कोई स्वार्थ नहीं है। हम लोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। हमसे कोई प्रभावित होगा, हमारा मान बढ़ेगा, आश्रम बढ़ेगा, हमारी दक्षिणा बढ़ जाएगी। हमें नमस्कार करने वालों की संख्या बढ़ जाएगी। हमें अधिक लोग जानने लग जाएंगे। जिन संतों ने गुफाओं में रहकर जीवन को धन्य बनाया, उनका कोई इतिहास नहीं है। इतिहास के पृष्ठों में वे नहीं हैं। ऐसे करोड़ों-करोड़ों दिव्य जीवन वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं है और कल भी नहीं होगा। बहुत नाम हो जाए, बहुत पैसा हो जाए, यह बहुत खतरनाक आकांक्षा है।
एक निर्मल संत थे, प्रतिष्ठा इतनी हो गई उनकी कि उन्हें कहीं लोग चैन लेने नहीं देते थे, जहां जाएं वहीं हजार लोग आ जाते। पहले तो उन्होंने प्रयास किया कि हमारी प्रतिष्ठा हो, लेकिन लोग जब लोग चीटें जैसे लग गए, तो कष्ट होने लगा। यदि कोई परिपूर्ण व सही चिंतन का संत नहीं है, तो उसके ऐश्वर्यों को चाटने के लिए संसारी लोग लग जाते हैं। जैसे चींटे चीनी को चाट लेते हैं, तभी छोड़ते हैं। बर्बाद कर देते हैं। भगवान भी तत्पर हैं, लेकिन हर कोई लीला धारी नहीं हो सकता। जो अपने को ही कर्ता मानता है, वह लीलाधारी नहीं हो सकता। लीला की व्याख्या है कि जिसकी क्रिया में कर्तत्वा अभिमान न हो और फल की क़ामना न हो। ऐसा कौन होगा? लोग विषयों में तत्पर हैं, विषयों की प्रमुखता स्वीकार करते हैं, उसी अनुसार अपने जीवन का संचालन करते हैं, सारा जीवन इसी में बीत जाता है। भोग में ही बीत गया। तन्द्रा में ही बीत गया। भोग करने में भोगी समाप्त हो गया। भोग समाप्त नहीं हुआ, भोगी समाप्त हो गया।
भगवान कितने दयालु हैं, वे हमें आकर्षित करना चाहते हैं। इसके लिए नाचते भी हैं। गोपियों के कहने से भगवान नाचते हैं। छाछ पीने के लिए भी नाचते हैं। गायों को चराते हैं, वस्त्रों का हरण करते हैं, तो भगवान यह सब लीला हमारे कल्याण के लिए करते हैं।
क्रमशः
-इंदौर में चातुर्मास काल में श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर दिए गए प्रवचन क़ा प्रारंभ-
Wednesday, 31 August 2011
आचार्य श्री की कलम से
इसी क्रम में जगदगुरु श्रीरामानन्दाचार्य का विचार प्रवाह एवं उसका प्रयोग अनुपम है। जिस तरह सभी भगवद्रूपों में भगवान श्रीराम अतुलनीय हैं, उसी तरह संतों व आचार्यों में आचार्यप्रवर श्रीरामानन्दाचार्य भी अनुपम हैं। तभी तो संत चरित्र के सर्वश्रेष्ठ गायक नाभादास जी ने कहा, 'रामानंद रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरण कियो। आचार्यप्रवर की जन्मभूमि तीर्थराज प्रयाग, इष्टदेव लोकनायक भगवान श्रीराम, विचारावाहिका देवभाषा संस्कृत की सर्वाधिक समीपवर्ती तथा राष्ट्रभाषा के रूप में व्यापक हिन्दी, परमभागवत अनन्तानन्द-कबीर-रविदास-पीपा-धन्ना-सैन आदि महाभागवतों का अनुपम आध्यात्मिक लोकसंघ इत्यादि सभी अनुपम ही तो है। वीर-भक्त त्यागी तथा पूर्ण समर्पित नागा संतों की धर्म सेना का निर्माण। सैनिकत्व तथा संतत्व का अद्भुत संगम। ऐसी आध्यात्मिक सेना के बिना सुरक्षा व संवर्धन भी लंकीय वातावरण को उत्पन्न करते हैं। अर्थ एवं काम के संरक्षण तथा सम्पादन के लिए प्रयुक्त तथाकथित विकसित देशों की सेनाएं कभी भी राष्ट्र एवं मानवता के लिए वरदान सिद्ध नहीं हो सकतीं।
नारियों को लोकधर्म तथा आध्यात्मिक जीवन में बराबरी का अद्वितीय प्रयोग। दुनिया के किसी भी समाज में आज तक यह प्रयोग नहीं हुआ। अपनी अद्भुत कल्याणमयी शक्ति के द्वारा वेद-वाल्मीकि रामायण के समान ही अनुपम रामचरितमानस को प्रकट कराना। रामचरितमानस के समान किसी भी धर्म-सम्प्रदाय-पन्थ परम्परा-जाति-भाषा-राष्ट्र आदि के पास लोकभिराम-कालजयी ग्रन्थ नहीं है। जगदगुरु रामानन्दाचार्य द्वारा रामभक्ति परम्परा के सर्वश्रेष्ठ तीर्थ अयोध्या को छोडक़र समीपवर्ती शैवप्रधान नगरी काशी में श्रीमठ को बनाए रखना सनातन धर्म के विघटन को दूर करने हेतु परमप्रमाण था। काशी में रामानन्द सम्प्रदाय की आचार्यपीठ को छोड़ वैदिक सनातन धर्म की अन्य किसी भी प्रामाणिक परम्परा का मुख्यालय नहीं है।